UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps

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BoardUP Board
TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectGeography (Practical Work)
ChapterChapter 2
Chapter NameRepresentation of Relief on Maps (मानचित्रों पर उच्चावच का प्रदर्शन)
Number of Questions Solved14
CategoryUP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps (मानचित्रों पर उच्चावच का प्रदर्शन)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
उच्चावच प्रदर्शन की विभिन्न विधियों का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर
धरातल सभी स्थानों पर एक-समान नहीं है। कहीं पर पर्वत, कहीं पर पठार तथा कहीं पर मैदान दिखाई पड़ते हैं। यदि धरातल ग्लोब पर सर्वत्र एक-समान होता तो उसे मानचित्र पर आसानी से प्रदर्शित किया जा सकता था, परन्तु धरातल के उच्चावचों से बहुत-सी विभिन्नताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। मानचित्र में उच्चावचों का चित्रण बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है जिससे सामान्य व्यक्ति भी पृथ्वी की। स्थलाकृतियों अथवा उसकी ऊँचाई-निचाई का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। मानचित्र पर पर्वत, घाटियाँ, दरें आदि के प्रदर्शन से क्षेत्र-विशेष की जानकारी सुगम हो जाती है।

धरातलीय विषमता को मानचित्र पर प्रदर्शित करना मानचित्र चित्रण की एक प्रमुख समस्या है। ऊपरी धरातल को प्रदर्शित करने के लिए स्थलाकृतिक मानचित्र (Topographical Maps) उपयोग में लाये जाते हैं। इन स्थलाकृतिक मानचित्रों में धरातल की ऊँचाई-निचाई प्रदर्शित की जाती है। इस प्रकार उच्चावचों के प्रदर्शन में अनके विधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं। समय-समय पर इन विधियों की स्पष्टता का ध्यान रखकर इनमें बहुत से परिवर्तन किये जा रहे हैं। मानचित्रों पर उच्चावच प्रदर्शन के लिए कभी-कभी अनेक विधियों का मिश्रण भी प्रयुक्त कर लिया जाता है, क्योंकि कई विधियों के मिश्रण मिलकर मानचित्र की स्पष्टता में वृद्धि कर देते हैं। इस प्रकार मानचित्रों में उच्चावच प्रदर्शन के लिए निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जाता है –
(1) चित्र विधि द्वारा प्रदर्शन (Pictorial Methods),
(2) गणितीय विधियाँ (Mathematical Methods) तथा
(3) मिश्रित विधियाँ (Mixed Methods)।

(1) चित्र विधि द्वारा प्रदर्शन (Pictorial Methods) – चित्र विधियों द्वारा उच्चावच के स्वरूपों का ज्ञान भर हो पाता है। इनके द्वारा उस स्थल-विशेष की ऊँचाई-निचाई एवं ढाल की सामान्य जानकारी प्राप्त हो जाती है। इन विधियों का मुख्य उद्देश्य धरातलीय स्वरूपों को अधिकाधिक दृष्टिगत बनाना है, परन्तु इन विधियों के द्वारा उस क्षेत्र की वास्तविक ऊँचाई का ज्ञान नहीं हो पाता है। चित्र विधि द्वारा प्रदर्शन की निम्नलिखित प्रविधियाँ प्रमुख हैं –

(i) हैच्यूर या रेखीय छाया (Hachures) – इस विधि का आविष्कार सेना सम्बन्धी उद्देश्यों की पूर्ति हेतु मेजर लेहमान द्वारा किया गया था। हैच्यूर वे रेखाएँ होती हैं जो अधिक से कम ढाल की ओर ऊँचाई दिखाने के लिए बनायी जाती हैं। तेज ढाल पर हैच्यूर रेखाएँ सघन बनायी जाती हैं, जबकि मन्द ढाल पर दूर-दूर या छिटकी हुई बनायी जाती हैं। ढाल जितना अधिक होगा, हैच्यूर रेखाएँ उतनी ही पास-पास होंगी। यदि भूपृष्ठ. के ढाल का कोण 45° से अधिक होगा तो वह स्थान पूर्णतया काला कर दिया जाता है। हैच्यूर रेखाएँ ढाल की दिशा में खींची जाती हैं। अतः ये रेखाएँ.समोच्च रेखाओं पर समकोण बनाती हैं। इन रेखाओं को देखकर एक सामान्य व्यक्ति भी स्थलाकृतियों की स्थिति एवं ढाल का ज्ञान आसानी से कर सकता है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps Q.1.1
इन रेखाओं के कई दोष भी हैं; जैसे- समुद्र-तल से ऊँचाई ठीक-ठीक ज्ञात नहीं हो सकती है। दूसरे, ये रेखाएँ काले रंग से बनायी जाती हैं जिसके फलस्वरूप अन्य विवरण प्रदर्शित करना कठिन होता है। इसी कारण इन रेखाओं को भूरे रंग की विभिन्न आभाओं द्वारा दिखाया जाने लगा है। तीसरे लघु मापक मानचित्रों में हैच्यूर रेखाएँ बनाना अधिक कठिन होता है।

(ii) पर्वतीय छायाकरण विधि (Hili Shading Methods) – पर्वतीय छायाकरण विधि में ढाल जितना अधिक होगा, उतनी ही गहरी छाया होगी। जो भाग छाया में पड़ते हैं, उन्हें रंगों द्वारा हल्का या गाढ़ा रंग दिया जाता है। प्रकाशीय स्थिति के अनुसार इस विधि को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है –

(अ) ऊर्ध्वाधर प्रकाश विधि (Vertical Illumination) – इस विधि में ढाल जितना खड़ा होगा, छाया भी उतनी ही सघन होगी। पर्वत-शिखर, पठार, घाटियाँ एवं मैदान प्रकाश में रहते हैं; अतः इन्हें खाली छोड़ दिया जाता है। पहाड़ों के ढाल छाया में रहते हैं; अतः इन्हें काले रंग से ढाल की तीव्रता के अनुसार अधिक गहरे अथवा हल्की छाया में दिखाया जाता है।
(ब) तिर्यक प्रकाश विधि (Oblique Illumination)-इस स्थिति में प्रकाश उत्तरी-पश्चिमी सिरे से आता हुआ मान लिया जाता है। इसके प्रभाव से पूर्वी तथा दक्षिणी-पूर्वी ढाल छाया में रहते हैं तथा इन्हें ढाल की तीव्रता के अनुसार गहरा रँगा जाता है। पश्चिमी तथा उत्तरी-पश्चिमी सिरे प्रकाश में रहने के कारण इन्हें खाली छोड़ दिया जाता है।
इस विधि का सबसे बड़ा दोष यह है कि हैच्यूर रेखाओं की भाँति इसमें ऊँचाई का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो पाता है।

(2) गणितीय विधियाँ (Mathematical Methods) – ये विधियाँ गणित के नियमों पर आधारित हैं। नवीन तकनीकी विकास के साथ-साथ पश्चिमी यूरोप एवं संयुक्त राज्य अमेरिका में समुद्र-तल को आधार मानकर विभिन्न स्थलाकृतियों की ऊँचाइयाँ निश्चित की जाती हैं। फ्रांस में 18वीं शताब्दी में कैसिनी प्रथम के संरक्षण में यह प्रक्रिया व्यवस्थित रूप से प्रारम्भ हुई। वर्तमान समय में सर्वेक्षण द्वारा विभिन्न धरातलीय ऊँचाइयों को मानचित्र में अंकित किया जाता है। प्रमुख गणितीय विधियाँ निम्नवत् हैं –

(i) स्थानांकित ऊँचाइयाँ (Spot-heights) – जब विभिन्न स्थानों की ऊँचाई प्रकट की जाती है, तो इस विधि का प्रयोग किया जाता है। यह विधि सर्वेक्षण पर आधारित है। विभिन्न बिन्दुओं के निकट ही उनकी ऊँचाइयाँ अंकित कर दी जाती हैं। प्रायः बिन्दु पर्वत-शिखरों पर अंकित किये जाते हैं, अतएव घाटी वाले भागों की ऊँचाई ज्ञात करना कठिन हो जाता है। शिखर वाले भाग पर एक छोटे त्रिभुज का निर्माण कर उस स्थान की ऊँचाई लिख दी जाती है। यह विधि अधिक सन्तोषजनक नहीं है।

(ii) तल-चिह्न विधि (Bench-mark Method) – औसत समुद्र-तल से ऊँचाई ज्ञात कर जब किसी दीवार या स्तम्भ पर एक धातु की प्लेट या पट्ट लगाकर उस पर ऊँचाई अंकित कर दी जाती है तो इसे तल-चिह्न विधि कहते हैं। धातु की प्लेट के नीचे तीर लगा रहता है तथा तीर के नुकीले भाग के ऊपर उस स्थान की ऊँचाई अंकित कर दी जाती है। इस प्रकार तल-चिह्न किसी धरातलीय बिन्दु की ऊँचाई न बताकर दीवार आदि की ऊँचाई बताता है, जब कि स्थानांकित ऊँचाई में धरातल के उस भाग की ऊँचाई – अंकित रहती है, जहाँ वह बिन्दु अंकित है। तल-चिह्न बताने के लिए मानचित्र में B.M. शब्द का प्रयोग किया जाता है। रेलवे स्टेशन पर भी स्टेशन के नाम के नीचे तल-चिह्न की ऊँचाई मीटर में अंकित रहती है।

(iii) त्रिकोणमितीय अवस्थान विधि (Trig-point Method) – त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण करते समय क्षेत्र में दूर-दूर कुछ प्रारम्भिक स्टेशन स्थापित किये जाते हैं। ऐसे बिन्दुओं या स्टेशनों की समुद्र-तल से औसत ऊँचाई ज्ञात कर एक छोटी त्रिभुज में यह ऊँचाई लिख दी जाती है। ये स्टेशन प्रायः कई किमी दूर होते हैं और इनकी स्थिति निश्चित करते समय भू-वक्रता पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है।

(iv) समोच्च रेखा विधि (Contour Line Method) – समोच्च रेखाएँ वे रेखाएँ होती हैं जो मानचित्र पर स्थित समुद्र-तल से समान ऊँचाई मिलाने वाले भागों (बिन्दुओं) से होकर खींची जाती हैं। सामान्यतया पूर्व निश्चित तल समुद्र-तल ही माना जाता है। आवश्यकता पड़ने पर किसी अन्य तल को भी इसके स्थान पर सन्दर्भ तल माना जा सकता है। ऐसे तल को मिलाने वाली रेखा को ही आधार तलरेखा (Datum Plane) कहते हैं। प्रायः सभी देशों में औसत समुद्र-तल एक निश्चित स्थान की निश्चित समय पर अंकित समुद्र-तल की स्थिति बताने वाली सतह या रेखा होती है। भारत में यह रेखा चेन्नई में ज्वार के समय की औसत ऊँचाई वाली सतह या रेखा होती है। मानचित्र पर समोच्च रेखाओं के एक कोने में उसकी ऊँचाई अंकित कर दी जाती है।
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समोच्च रेखाओं की विशेषताएँ
Characteristics of Contour Lines

समोच्च रेखाओं की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं –

  1. समोच्च रेखाएँ समान ऊँचाई वाले स्थानों को प्रदर्शित करने वाली रेखाएँ होती हैं, अर्थात् एक रेखा के सहारे-सहारे सर्वत्र एक-सी ऊँचाई होती है।
  2. जब ये रेखाएँ पास-पास होती हैं तो इनसे तीव्र ढाल एवं दूर-दूर होने पर मन्द ढाल का पता चलता है। इसी कारण पर्वतीय क्षेत्रों में समोच्च रेखाएँ जटिल तथा मैदानी क्षेत्रों में सरल होती हैं। सीधे खड़े ढाल (90°) पर समोच्च रेखाएँ एक-दूसरे से मिल जाती हैं।
  3. कमल के असमतल होने के कारण समोच्च, रेखाएँ वक्राकार होती हैं।
  4. शकाल के भौतिक स्वरूपों का आकार स्थान-स्थान पर परिवर्तनशील है। अत: इनकी सोच विशेष प्रकार की होंगी। ऐसे स्थल स्वरूपों को देखकर आसानी से धरातल की वास्तविक आकृतियों को समझा जा सकता है।
  5. मानचित्रों में समोच्च रेखाओं को भूरे रंग से प्रदर्शित किया जाता है।
  6. अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं की भाँति समोच्च रेखाएँ भी धरातलीय सन्दर्भ में काल्पनिक हैं, परन्तु भू-सर्वेक्षण द्वारा मानचित्र पर इन्हें निश्चित धरातलीय बिन्दुओं द्वारा खींचा जाता है। इसी कारण मानचित्रों में ये रेखाएँ बास्तविक लेती हैं।
  7. जल-प्रवाह प्रणाली, ढाल के अनुरूप होती है तथा समोच्च रेखाएँ ढाल के अनुप्रस्थ दिशा में खींची जाती हैं। अतः संमोच्च रेखाएँ सरिता एवं अन्य प्रवाह प्रणालियों को उनकी घाटी के आकार के अनुसार उन्हें काटती हुई खींची जाती हैं।
  8. समोच्च रेखा मानचित्र के किसी भाग के अनुप्रस्थ काट (Cross section) द्वारा धरातल का पार्श्व चित्र खींचा जा सकता है। ऐसे मानचित्रों की सहायता से अन्तर्दृश्यता (Intervisibility) ज्ञात की जा सकती है।
  9. किसी भी मानचित्र में समोच्च रेखाएँ न तो एक-दूसरे को काटती हैं एवं न ही बीच में समाप्त हो सकती हैं। ये रेखाएँ या तो एक भाग से प्रारम्भ होकर दूसरे भाग तक जाएँगी अथवा मानचित्र में ही पूर्ण आकृति बनाती हुई आपस में मिल जाएँगी।
  10. किसी मानचित्र में समोच्च अन्तर घटाकर उसमें अधिक धरातलीय लक्षण अंकित किये जा सकते हैं।
  11. आधुनिक स्थलाकृतिक एवं अन्य दीर्घकालीन मानचित्रों में समोच्च रेखाओं के साथ-साथ स्थानांकित ऊँचाई, तलचिह्न अथवा पर्वतीय छायाकरण का प्रयोग कर मानचित्र को और अधिक स्पष्ट एवं प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
  12. भू-आकृतियों को प्रदर्शित करने वाली सभी विधियों में समोच्च रेखा विधि आज भी सबसे अधिक उपयोगी एवं प्रचलित विधि है जिसके द्वारा किसी भी प्रकार के भू-स्वरूप को सही-सही चित्रित किया जा सकता है।
  13. समोच्च रेखाओं द्वारा समतल प्रदेशों का स्वरूप, दो समोच्च रेखाओं के बीच के ढाल की प्रकृति एवं ढाल की दिशा का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो पाता है। इसी प्रकार मानचित्र में किसी भी बिन्दु की सही-सही ऊँचाई का ज्ञान नहीं हो पाता है।

समोच्च रेखा मानचित्र के इन दोषों को दूर करने के लिए धरातल के विभिन्न पहलुओं को और अधिक स्पष्ट करने के लिए एक से अधिक विधियों का प्रयोग उसी मानचित्र में किया जाता है। इस विधि को मिश्रित अथवा संयुक्त विधि के नाम से पुकारा जाता है।

(3) मिश्रित विधियाँ (Mixed Methods) – वर्तमान समय में अधिकांश नवीन मानचित्रों में भू-आकृतियों को और अधिक स्पष्ट चित्रित करने के लिए एक ही विधि का प्रयोग नही किया जाता है। किसी एक विधि जैसे समोच्च रेखा, रंग, विधि आदि को आधार मानकर अन्य विधियों को प्रमुख भू-आकृतियों को स्पष्ट करने तथा छोटे-छोटे धरातलीय लक्षणों को समझाने हेतु उसे मानचित्र में अंकित किया जाता है। स्थलाकृतिक मानचित्र के नवीन रंगीन संस्करणों में समोच्च रेखाओं के साथ-साथ प्लास्टिक आभा, स्थानांकित ऊँचाइयाँ, तलचिह्न, हैच्यूर आदि विधियों का भी अंकन किया जाता है। इससे भू-आकृतिक लक्षण और अधिक स्पष्ट हो जाते हैं। इसी कारण ऐसे मानचित्र मात्रा-प्रधान एवं गुण-प्रधान दोनों ही विधियों को मिला-जुला स्वरूप है। सभी प्रकार की महत्त्वपूर्ण मानचित्रावलियों या भित्ति मानचित्रों में भी संयुक्त विधियों का खुलकर प्रयोग किया जाता है। प्रमुख मिश्रित विधियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. समोच्च रेखा एवं पहाड़ी छायाकरण अथवा प्लास्टिक छाया विधि;
  2. समोच्च रेखा एवं रंग विधि;
  3. समोच्च रेखा एवं स्थानांकित ऊँचाई, तलचिह्न एवं छाया विधि;
  4. समोच्च रेखा एवं हैच्यूर या खण्ड रेखाएँ;
  5. पहाड़ी छायाकरण एवं रंग आभा विधि;
  6. हैच्यूर, स्थानांकित ऊँचाई, तलचिह्न एवं आभा विधि;
  7. हैच्यूर एवं भू-आकृति विधि;
  8. भू-आकृति एवं स्थानांकित ऊँचाई तथा तलचिह्न आदि।

प्रश्न 2
समोच्च रेखाओं द्वारा निम्नलिखित भू-आकृतियों का प्रदर्शन उनकी पाश्र्वाकृतियों सहित प्रदर्शित कीजिए –
(1) मन्द ढाल, (2) तीव्र ढाल, (3) नतोदर ढाल, (4) उन्नतोदर ढाल, (5) सम ढाल, (6) विषम ढाल, (7) सीढ़ीनुमा ढाल, (8) खड़ा ढाल या भृगु, (9) शंक्वाकार पहाड़ी, (10) काठी एवं दर्रा, (11) जलप्रपात (झरना) तथा नदी सोपान, (12) खड्ड, गॉर्ज एवं केनियन, (13) गोखुरनुमा झील, (14) ‘यू-आकार की घाटी, (15) ‘वी’ -आकार की घाटी, (16) ज्वालामुखी शंकु।
उत्तर
(1) मन्द ढाल (Gentle Slope) – जो प्रदेश प्रायः समतल होते हैं तथा जिनकी औसत प्रवणता 1/10 या उससे कम होती है, वहाँ समोच्च रेखा एक-दूसरे से काफी दूरी पर खींची हुई होती है, वहाँ मन्द ढाल होता है। दूसरे शब्दों में, यहाँ धरातल पर चढ़ाई नाममात्र को ही होती है।।
(2) तीव्र ढाल (Steep Slope) – जिन प्रदेशों में ढाल की तीव्रता अथवा प्रवणता 1/10 से अधिक होती है अर्थात् ढाल का कोण 6° से अधिक होता है, उसे तीव्र ढाल के नाम से पुकारा जाता है। इस स्थलाकृति की समोच्च रेखाएँ पास-पास होती हैं। यहाँ पर ढलान प्रपाती होता है, अर्थात् थोड़ी दूर चलने पर अधिक चढ़ाई चढ़नी पड़ती है।

(3) नतोदर ढाल (Concave Slope) – इसे अवतल ढाल के नाम से भी पुकारते हैं। इस ढाल में समोच्च रेखाएँ पहले ऊँचाई पर पास-पास तथा आगे चलकर समोच्च रेखाएँ दूर-दूर स्थित होती हैं। इस ढाल को नतोदर ढाल कहते हैं। इसमें समोच्च रेखाएँ उन्नतोदर ढाल के विपरीत अवस्था में होती हैं।
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(4) उन्नतोदर ढाल (Convex Slope) – जब ढाल का क्रम नतोदर ढाल के विपरीत होता है, अर्थात् पहले समोच्च रेखाओं की स्थिति ऊँचाई पर दूर-दूर तथा आगे चलकर समोच्च रेखाएँ पास-पास अपनी स्थिति रखती हैं तो ऐसे ढाल को उन्नतोदर या उत्तल ढाल कहते हैं।
(5) सम ढाल (Even or Uniform Slope) – सम ढाल में समोच्च रेखाएँ समान दूरी पर स्थित होती हैं। इसमें ढाल प्राय: एक-सा रहता है।
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(6) विषम ढाल (Uneven Slope) – विषम ढाल में ढाल की स्थिति धीमी या तेज कोई भी हो सकती है। इसमें समोच्च रेखाओं का क्रम असमान रहता है। इस ढाल में एक साथ तेज एवं धीमा दोनों ही ढाल बिना किसी क्रम में प्रदर्शित किये जा सकते हैं।
(7) सीढ़ीनुमा ढाल (Terraced Slope) – इस प्रकार के ढाल में समोच्च रेखाएँ पहले पास-पास तथा फिर दूर-दूर होती हैं। यह क्रम कई बार दोहराया जाता है तथा सीढ़ीदार ढाल निर्मित हो जाता है। नदी एवं हिमानी की घाटियों में प्रायः ऐसे ही ढाल दिखाई पड़ते हैं।
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(8) खड़ा ढाल या भृगु (Vertical Slope or Cliff) – इसे लम्बवत् ढाल भी कहा जा सकता है। भृगु ढाल एकदम प्रपाती होता है। यह पूर्णतया एक दीवार की भाँति होता है। इसमें समोच्च रेखाएँ एक स्थान पर एक-दूसरी से मिल जाती हैं। कभी-कभी कई समोच्च रेखाएँ आपस में मिल जाती हैं। प्राकृतिक रूप से ऐसी प्रवणता वाले ढाल कम ही देखने को मिलते हैं। समोच्च रेखाओं के एक-दूसरे से छू जाने पर भृगु की रचना होती है।

(9) शंक्वाकार पहाड़ी (Conical Hill) – समुद्र तल से 900 मीटर से कम ऊँचे त्रिकोणात्मक स्थल खण्ड को पहाड़ी कहा जाता है। पहाड़ी के लिए खींची गयी समोच्च रेखाएँ सदैव बन्द होती हैं। यदि पहाड़ी शंक्वाकार होती है तो इसमें समोच्च रेखाएँ सदैव गोलाकार होती हैं तथा समान दूरी पर खींची जाती। हैं। शंक्वाकार पहाड़ी का ढाल सभी दिशाओं में प्राय: समान होता है। अतः समोच्च रेखाएँ भी समदूरस्थ होंगी। पहाड़ी की ऊँचाई चूंकि निरन्तर बढ़ती जाती है। अत: समोच्च रेखाओं का नामांकन करते समय केन्द्र की ओर ऊँचाई सदैव अधिक नामांकित की जाती है। पहाड़ी के सबसे ऊँचे भाग को चोटी या शिखर (Summit) कहते हैं, जिसे मध्य में बिन्दु अथवा त्रिकोण बनाकर अंकित कर दिया जाता है।
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(10) काठी एवं दर्रा (Saddle and Pass) – दो पर्वत-शिखरों के मध्य ऐसी स्थलाकृति को दर्रा कहते हैं, जो यातायात हेतु मार्ग का काम देता है। इसमें दोनों पर्वत-शिखरों की समोच्च रेखाएँ स्वतन्त्र एवं बन्द होती हैं तथा बीच का मार्ग सँकरा होता है। उच्च पर्वतीय प्रदेशों में इन दरों को देखा जा सकता है। इस प्रकार दर्रा दो पर्वत-शिखरों के मध्य निचला तुंग मार्ग होता है।
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काठी भी दरें से मिलता-जुलता भू-स्वरूप है, परन्तु काठी की चौड़ाई अधिक होती है तथा तुलनात्मक ऊँचाई कम होती है। दरें की अपेक्षा काठी का क्षेत्र दुर्गम नहीं होता है।

(11) जलप्रपात या झरना तथा द्रुत प्रवाह (Water Fall and Rapids) – नदी की लम्बवत् घाटी में ढाल सम्बन्धी कई अनियमितताएँ पायी जाती हैं। जलप्रपात भी एक ऐसी ही भू-रचना है। नदियों के प्रवाह मार्ग में कभी-कभी आकस्मिक रूप से खड़ा ढाल उपस्थित हो जाता है तो नदी का जल ऊँचाई से गिरने लगता है। इस स्थलाकृति को प्रदर्शित करने के लिए कई समोच्च रेखाएँ आपस में मिला दी जाती हैं। जिससे इनके आपस में मिलने से उस स्थान पर ढाल बहुत अधिक तीव्र हो जाता है तथा नदी का जल ऊँचाई से तीव्र गति के साथ नीचे की ओर गिरने लगता है, जिसे जलप्रपात या झरने के नाम से पुकारा जाता है। पर जब नदी का जल अनेक स्थानों पर ऊँचाई से निचाई की ओर गिरता है तो द्रुत प्रवाहों का निर्माण होता है।
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(12) खड्डू (गॉर्ज) या केनियन (Gorge or Canyon) – उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ पर नदियों का प्रवाह अत्यधिक तीव्र होता है, वहाँ कठोर चट्टानों के कारण विखण्डन की क्रिया बहुत ही कम होती है। अत: नदी की धारा अपने तलीय भाग को गहरा काटती है। इस प्रकार सँकरी परन्तु गहरी घाटी का विकास होता है। इसे संकुचित घाटी (खड्डु) या गॉर्ज अथवा केनियन कहते हैं। कई बार ऊपरी सतह से घाटी की तली दिखाई नहीं पड़ती है। इस प्रकार की घाटी के दोनों पाश्र्वो का ढाल एकदम खड़ा प्रदर्शित किया जाता है, जिसके लिए समोच्च रेखाओं का पारस्परिक अन्तर बहुत कम रखा जाता है, अर्थात् समोच्च रेखाएँ एकदम निकट आ जाती हैं।
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(13) गोखुरनुमा या छाड़न झील (Ox Bow Lake) – इस प्रकार की झीलों का निर्माण नदी के प्रवाह मार्ग में मैदानी भागों में निर्मित होता है। अत्यधिक समतल भागों में नदी घुमावदार मार्गों से प्रवाहित होने लगती है। बाढ़ के समय बहाव की तीव्रता के कारण जब नदी नये मार्ग का अनुसरण करती है, तब इस घुमाव के मुहाने पर मिट्टी जमा हो जाती है। इनके उत्तरोत्तर विकास में गोखुरनुमा या छाड़न झील का विकास होता है। नदी एवं झील का तल प्रायः एक-समान होता है। अतः नदी की धारा और झील को घेरने वाली समोच्च रेखाओं की ऊँचाई एक-सी रहती है। ऐसी झील की आकृति धनुषाकार अथवा अर्द्ध-चन्द्राकार रूप में निर्मित हो जाती है।

(14) ‘यू’ -आकार की घाटी (‘U’ Shaped Valley) – इन घाटियों का निर्माण हिमानियों द्वारा होता है। इस घाटी का तल कुछ चौड़ा और सपाट होता है तथा किनारे को ढाल खड़ा होता है जिससे इस घाटी की आकृति अंग्रेजी भाषा के अक्षर ‘U’ की भाँति हो जाती है। इस घाटी की समोच्च रेखाएँ तल के समीप पास-पास एवं समानान्तर होती हैं। पाश्र्वो का ढाल उत्तल होता है।
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‘यू’ -आकार की सहायक घाटियों को लटकती घाटी (Hanging Valley) कहते हैं, जो मुख्य नदी की घाटी में अन्य दिशा से आकर मिलती हैं। ‘यू’ आकार की घाटी के समान होने के कारण इनकी समोच्च रेखाओं का प्रदर्शन भी प्रधान घाटी की ही भाँति होता है।

(15) ‘वी’ -आकार की घाटी (‘V’ Shaped Valley) – नदी अपनी युवावस्था में लम्बी एवं सँकरी घाटी का निर्माण करती है जिसका आकार अंग्रेजी के अक्षर ‘V’ की भाँति हो जाता है। इसे घाटी की समोच्च रेखाएँ सदैव अंग्रेजी के अक्षर की भाँति मुड़ी रहती हैं। इस प्रकार की घाटी में, घाटी रेखा से भूमि दोनों ओर धीरे-धीरे ऊँची होती चली जाती है। पर्वतीय क्षेत्रों में इस प्रकार की घाटियाँ अधिक देखी जा सकती हैं।

(16) ज्वालामुखी शंकु (Volcanic Cone) – ज्वालामुखी के चारों ओर लावा आदि के एकत्रण से शंक्वाकार आकृति का निर्माण हो जाता है। इसका ऊपरी मुंह प्याले की भाँति हो जाता है, जिसे क्रेटर (Crater) कहते हैं। इसे काल्डेरा (Caldera) भी कहते हैं। शान्त ज्वालामुखी शंकु के विवर में जल भर जाने से कभी-कभी झील का भी निर्माण हो जाता है। कभी-कभी इसी ज्वालामुखी क्षेत्र में इसके सहायक शंकु का भी विकास हो जाता है। इसकी समोच्च रेखाएँ गोलाकार होती हैं जो ऊपर की ओर बढ़ती जाती हैं, परन्तु शंकु के समीप पुनः कम हो जाती हैं।
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मौखिक परिक्षा: सम्भावित प्रश्न

प्रश्न 1
उच्चावच का क्या अर्थ है?
उत्तर
वे धरातलीय स्थलाकृतियाँ जिनकी रचना ऊँचाई एवं ढाल के द्वारा प्रदर्शित की जाती है, उच्चावच कहलाती हैं।

प्रश्न 2
उच्चावच प्रदर्शन की कौन-कौन-सी प्रमुख विधियाँ हैं?
उत्तर
उच्चावच प्रदर्शन की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. चित्र विधि द्वारा प्रदर्शन (Pictorial Methods)
  2. गणितीय विधियाँ (Mathematical Methods) तथा
  3. मिश्रित या संयुक्त विधियाँ (MixedorComposite Methods)।

प्रश्न 3
हैच्यूर किसे कहते हैं?
उत्तर
हैच्यूर वे छोटी-छोटी रेखाएँ हैं जो अधिक से कम ढाल की ओर ऊँचाई दिखाने के लिए खींची जाती हैं।

प्रश्न 4
पर्वतीय छायाकरण विधि से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
उच्चावच प्रदर्शन की यह चित्रीय विधि है। इसकी रचना प्रकाश को आधार मानकर की जाती है।

प्रश्न 5
स्थानांकित ऊँचाई विधि क्या होती है?
उत्तर
यह विधि किसी स्थान की धरातल पर अंकित ऊँचाई को प्रकट करती है। मानचित्र में उस स्थान की ऊँचाई मीटर अथवा फीट में नापी जाती है।

प्रश्न 6
निर्देश चिह्न (Bench Mark) किसे कहा जाता है?
उत्तर
सर्वेक्षण में समुद्र-तल से विभिन्न स्थानों की ऊँचाई को अंकित किया जाता है। इसके समीप में निर्देश चिह्न बना दिया जाता है। इस संकेत के द्वारा उस स्थान की ऊँचाई का ज्ञान हो जाता है अथवा इस स्थान के सन्दर्भ में अन्य स्थानों की अपेक्षाकृत ऊँचाई का पता चल जाता है, जिसे निर्देश चिह्न का नाम दिया गया है।

प्रश्न 7
समोच्च रेखा से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
मानचित्र में समान ऊँचाई वाले स्थानों को मिलाकर प्रदर्शित की जाने वाली रेखा को समोच्च रेखा कहते हैं।

प्रश्न 8
किन्हीं चार मिश्रित विधियों के नाम बताइए।
उत्तर

  1. समोच्च रेखा एवं रंग विधि
  2. समोच्च रेखा, स्थानांकित ऊँचाई, तल-चिह्न तथा छाया विधि
  3. समोच्च रेखा एवं हैच्यूर या खण्ड रेखा विधि तथा
  4. समोच्च रेखा एवं पहाड़ी छायाकरण विधि। प्रश्न

प्रश्न 9
प्रवणता (Gradient) क्या होती है?
उत्तर
धरातलीय दूरी एवं लम्बवत् दूरी में जो अनुपात होता है, उसे प्रवणता कहते हैं।

प्रश्न 10
समोच्च रेखा अन्तराल निकालने का क्या सूत्र है?
उत्तर
समोच्च रेखा अन्तराल =
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प्रश्न 11
‘यू’-आकार की घाटी तथा ‘वी’ -आकार की घाटी में अन्तर बताइए।
उत्तर
‘यू’-आकार की घाटी हिमानी द्वारा निर्मित होती है। इसका प्रवाह मार्ग चौड़ा तथा चौरस होता है। आकार में यह अंग्रेजी के अक्षर ‘यू’ (U) जैसी होती है।
परन्तु ‘वीं-आकार की घाटी नदियों द्वारा निर्मित होती है जो नदियों द्वारा अपने दोनों किनारे काटने के कारण ये किनारे आधार तल पर मिल जाते हैं तथा उसका आकार अंग्रेजी के अक्षर ‘वी’ (v) जैसा हो जाता है। इसे ‘वी’-आकार की घाटी कहा जाता है।

प्रश्न 12
जल विभाजक (Water Divider) किसे कहते हैं?
उत्तर
दो जलधाराओं को पृथक् करने वाले स्थलखण्ड को जल-विभाजक कहते हैं।

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