UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 3 Environment and Society

UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 3 Environment and Society

UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 3 Environment and Society (पर्यावरण और समाज) are part of UP Board Solutions for Class 11 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 3 Environment and Society (पर्यावरण और समाज).

BoardUP Board
TextbookNCERT
ClassClass 11
SubjectSociology
ChapterChapter 3
Chapter NameEnvironment and Society
Number of Questions Solved45
CategoryUP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 3 Environment and Society (पर्यावरण और समाज)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
पारिस्थितिकी से आपका क्या अभिप्राय है? अपने शब्दों में वर्णन कीजिए।
उत्तर
पारिस्थितिकी शब्द से अभिप्राय एक ऐसे जाल से है जहाँ भौतिक एवं जैविक व्यवस्थाएँ तथा प्रक्रियाएँ घटित होती हैं और मनुष्य भी इसका एक अंग होता है। पर्वत तथा नदियाँ, मैदान तथा सागर और जीव-जंतु ये सब पारिस्थितिकी के अंग हैं। पारिस्थितिकी प्राणि-मात्र और उसके पर्यावरण के मध्य अंत:संबंध का अध्ययन है। इसे विज्ञान का एक ऐसा बहुवैषयिक क्षेत्र माना है जिसमें आनुवंशिकी, समाजशास्त्र, विज्ञान आदि अनेक विषयों से सुव्यवस्थित रूप से ज्ञान लिया जाता है। समाजशास्त्री होने के नाते हमारी रुचि मानव और उसके पर्यावरण के मध्य अंत:संबंध में है। यहाँ पर्यावरण से तात्पर्य प्राकृतिक पर्यावरण से है जिसमें वन, नदियाँ, झील, समुद्र, पहाड़, पौधे आदि आते हैं। चूंकि पारिस्थितिकीय परिवर्तन मानव जीवन पर गहरा प्रभाव डालता है, इसलिए समाजशास्त्र में इसका अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 2.
पारिस्थितिकी सिर्फ प्राकृतिक शक्तियों तक ही सीमित क्यों नहीं है?
उत्तर
सामान्य अर्थों में पारिस्थितिकी को भौतिक या प्राकृतिक शक्तियों तक ही सीमित रखा जाता है। यह सही नहीं है। पारिस्थितिकी केवल प्राकृतिक शक्तियों तक सीमित न होकर प्राकृतिक एवं जैविक व्यवस्थाओं में अंत:संबंध पर बल देती है। क्योंकि मानवीय समाज पर पारिस्थितिकी का गहरा प्रभाव पड़ता है इसलिए इसे केवल प्राकृतिक शक्तियों तक सीमित करना उचित नहीं है। बहुत बड़ी सीमा तक किसी समाज की संस्कृति मानवीय विचारों तथा व्यवहार पर पारिस्थितिकी के गहन प्रभाव को प्रतिबिंबित करती है। व्यवसाय, भोजन, वस्त्र, आवास, धर्म, कला, आचार, विचार एवं इसी प्रकार के मानव निर्मित अनेक सांस्कृतिक निर्माण पारिस्थितिकी से ही प्रभावित होते हैं।

किसी स्थान की पारिस्थितिकी पर वहाँ के भूगोल तथा जलमंडल की अंत:क्रियाओं को भी प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ-मरुस्थलीय प्रदेशों में रहने वाले जीव-जंतु अपने आपको वहाँ की परिस्थितियों (न्यून वर्षा, पथरीली अथवा रेतीली मिट्टी तथा अत्यधिक तापमान) के अनुरूप अपने आप को ढाल लेते हैं। इसी प्रकार, पारिस्थितिकीय कारक स्थान विशेष पर व्यक्तियों के रहने का निर्धारण भी करते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि पारिस्थितिकी केवल प्राकृतिक शक्तियों तक ही सीमित नहीं है।

प्रश्न 3.
उस दोहरी प्रक्रिया का वर्णन करें जिसके कारण सामाजिक पर्यावरण का उद्भव होता है?
उत्तर
सामाजिक पर्यावरण का उद्भव जैव भौतिक पारिस्थितिकी तथा मनुष्य के लिए हस्तक्षेप की अंत:क्रिया के द्वारा होता है। यह प्रक्रिया दोनों ओर से होती है। जिस प्रकार से प्रकृति समाज को आकार देती है, ठीक उसी प्रकार से समाज भी प्रकृति को रूप देता है। उदाहरणार्थ-सिंधु-गंगा के बाढ़ के मैदान की उपजाऊ भूमि गहन कृषि के लिए उपयुक्त है। इसकी उच्च उत्पादन क्षमता के कारण यह घनी आबादी का क्षेत्र बन जाता है। ठीक इसके विपरीत, राजस्थान के मरुस्थल केवल पशुपालकों को सहारा देते हैं जो अपने पशुओं के चारे की खोज में इधर-उधर भटकते रहते हैं। इन उदाहरणों से पता चलता है कि किस प्रकार पारिस्थितिकी मनुष्य के जीवन और उसकी संस्कृति को रूप देती है।

दूसरी ओर, पूँजीवादी सामाजिक संगठनों ने विश्व भर की प्रकृति को आकार दिया है। निजी परिवहन पूँजीवादी वस्तु का एक ऐसा उदाहरण है जिसने जीवन तथा भू-दृश्य को बदला है। नगरों में वायु प्रदूषण तथा जनसंख्या वृद्धि, प्रादेशिक झगड़े, तेल के लिए युद्ध तथा विश्वव्यापी तापमान वृद्धि आदि पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों के कुछ उदाहरण हैं। इसीलिए यह माना जाता है कि बढ़ता हुआ मानवीय हस्तक्षेप पर्यावरण को पूरी तरह से बदलने में समर्थ है।

प्रश्न 4.
सामाजिक संस्थाएँ कैसे तथा किस प्रकार से पर्यावरण तथा समाज के आपसी रिश्तों को आकार देती हैं?
उत्तर
सामाजिक संगठन में विद्यमान संस्थाओं द्वारा पर्यावरण तथा समाज के आपसी संबंधों को आकार प्रदान किया जाता है। उदाहरणार्थ- यदि वनों पर सरकार का आधिपत्य है तो यह निर्णय लेने का अधिकार भी सरकार के पास होता है कि वह वनों को लकड़ी के किसी व्यापारी को पट्टे पर दे अथवा ग्रामीणों को वन उत्पादों को संग्रहीत करने का अधिकार दे। यदि भूमि तथा जल संसाधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व है तो मालिक ही यह निर्धारित करेंगे कि अन्य लोगों का किन नियमों एवं शर्तों के अंतर्गत इन संसाधनों के उपयोग का अधिकार होगा। इस प्रकार, सामाजिक संस्थाएँ पर्यावरण तथा समाज के आपसी संबंधों को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

प्रश्न 5.
पर्यावरण व्यवस्था समाज के लिए एक महत्त्वपूर्ण तथा जटिल कार्य क्यों है?
उत्तर
पर्यावरण का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसीलिए पर्यावरण व्यवस्था समाज के लिए। महत्त्वपूर्ण मानी जाती है परंतु पर्यावरण प्रबंधन एक कठिन कार्य है। औद्योगीकरण के कारण संसाधनों के बड़े पैमाने पर दोहन ने पर्यावरण के साथ मनुष्य के संबंध और जटिल बना दिए हैं। इसलिए यह माना जाता है कि आज हम जोखिम भरे समाज में रह रहे हैं जहाँ ऐसी तकनीकों तथा वस्तुओं का हम प्रयोग करते हैं जिनके बारे में हमें पूरी समझ नहीं है। नाभिकीय विपदा (जैसे-चेरनोबिल कांड, भोपाल गैस कांड, यूरोप में फैली ‘मैड काऊ’ बीमारी आदि) औद्योगिक पर्यावरण में होने वाले खतरों को दिखाते हैं। संसाधनों में निरंतर होने वाली कमी, प्रदूषण, वैश्विक तापमान वृद्धि, जैनेटिकली मोडिफाइड, ऑर्गेनिज्म, प्राकृतिक एवं मानव निर्मित पर्यावरण विनाश आदि पर्यावरण की प्रमुख समस्याओं एवं जोखिमों ने पर्यावरण व्यवस्था को समाज के लिए न केवल महत्त्वपूर्ण बना दिया है, अपितु इसे ऐसी जटिल व्यवस्था बना दिया है कि इसका प्रबंधन अधिकांश समाज उचित प्रकार से नहीं कर पा रहे हैं।

प्रश्न 6.
प्रदूषण संबंधित प्राकृतिक विपदाओं के मुख्य रूप कौन-कौन से हैं?
उत्तर
प्रदूषण संबंधित प्राकृतिक विपदाओं के अनेक रूप होते हैं। भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़ अथवा ज्वारभाटीय लहरें (जैसे सुनामी लहरें) इत्यादि प्राकृतिक विपदाएँ समाज को पूर्ण रूप से बदलकर रख देती हैं। यह बदलाव, अपरिवर्तनीय अर्थात् स्थायी होते हैं तथा चीजों को वापस अपनी पूर्वावस्था में नहीं आने देते। साथ ही, प्रदूषण से संबंधित अनेक प्राकृतिक विपदाओं के उदाहरण आज हमारे सामने हैं। इन सब में वायु प्रदूषण से संबंधित विपदाएँ; जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण तथा ध्वनि प्रदूषण की तुलना में कहीं अधिक हुई हैं। पूर्व सोवियत संघ के यूक्रेन प्रांत में हुए चेरनोबिल काण्ड तथा भारत में भोपाल गैस कांड वायु प्रदूषण से संबंधित प्रमुख विपदाओं के उदाहरण हैं।

3 दिसम्बर, 1984 ई० की रात को भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड कीटनाशक फैक्ट्री से मिथाइल आइसोसाइनेट नामक गैस के रिसाव से 4,000 लोगों की मृत्यु हो गई तथा 2,00,000 व्यक्ति हमेशा के लिए अपंग हो गए। इस प्रकार की दुर्घटना रोकने हेतु इस फैक्ट्री में कंप्यूटरीकृत अग्रिम चेतावनी व्यवस्था नहीं थी जो अमेरिका स्थित इसी कंपनी के प्रत्येक प्लांट का एक अनिवार्य हिस्सा है। ध्वनि प्रदूषण बहरेपन को तो मृदा प्रदूषण अनेक रोगों को जन्म देता है। इसीलिए प्रदूषण से संबंधित प्राकृतिक विपदाओं के सभी रूप विनाशकारी होते हैं। भारत में प्रतिवर्ष घरेलू वायु प्रदूषण से मरने वाले लोगों की संख्या लाखों में है।

प्रश्न 7.
संसाधनों की क्षीणता से संबंधित पर्यावरण के प्रमुख मुद्दे कौन-कौन से हैं?
उत्तर
संसाधनों की क्षीणता से संबंधित पर्यावरण के अनेक प्रमुख मुद्दे हैं। इससे न केवल वन्य जीवों की अनेक किस्में खत्म हो चुकी हैं तथा अनेक अन्य समाप्त होने के कगार पर हैं, अपितु आने वाले वर्ष मानव के लिए भी संघर्षमय हो सकते हैं। जैव ऊर्जा (मुख्यतः पेट्रोलियम) की कमी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यदि इसका कोई विकल्प शीघ्र सामने नहीं आया तो पेट्रोलियम इतने महगे हो जाएँगे कि सामान्य जनता की पहुँच उन तक नहीं हो पाएगी। पानी तथा भूमि में क्षीणता तेजी से बढ़ रही है। भू-जल के स्तर में लगातार कमी वैसे तो पूरे भारत में है पर मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा हरियाणा में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है। कुछ ही दशकों में कृषि, उद्योग तथा नगरीय केंद्रों की बढ़ती माँगों के कारण पानी खत्म होने के कगार पर है।

नदियों के बहाव को मोड़े जाने के कारण जल बेसिन को भी नुकस्मन पहुँचा है जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती। भू-जल की भाँति हजारों वर्षों से मृदा की ऊपरी परत को होने वाला निर्माण भी पर्यावरण के कुप्रबंधन (भू-कटाव, पानी का जमाव, पानी का खारा होना आदि) के कारण नष्ट होता जा रहा है। भवन निर्माण के लिए ईंटों का उत्पादन भी मृदा की ऊपरी सतह के नाश के लिए जिम्मेदार है। जंगल, घास के मैदान तथा आर्द्रभूमि आदि दूसरे मुख्य संसाधन भी समाप्ति के कगार पर खड़े हैं। यदि वृक्षारोपण द्वारा पर्यावरण के संतुलन के प्रयास नहीं किए गए तो आने वाले वर्षों में पर्यावरणीय संसाधनों की क्षीणता मानव के सामने सबसे गंभीर चुनौती होगी।

प्रश्न 8.
पर्यावरण की समस्याएँ सामाजिक समस्याएँ भी हैं। कैसे? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
पर्यावरण से संबंधित अनेक सामाजिक समस्याएँ हैं। इससे जनता का स्वास्थ्य प्रभावित होता है। आर्सेनिक कैंसर, टाइफाइड, हैजा एवं पीलिया जैसी बीमारियाँ प्रदूषित जल से फैलती हैं तथा गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न कर देती हैं। वायुमंडलीय प्रदूषण से विश्व तापमान में वृद्धि हो रही है। मृदा का कटाव होने से उपज कम हो जाती हैं जिससे महँगाई बढ़ती है तथा निर्धन लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ होने लगते हैं। ध्वनि प्रदूषण न केवल सिरदर्द अपितु बेचैनी बढ़ने, हृदय की गति तीव्र होने, ब्लड प्रेशर बढ़ने आदि अनेक अन्य बीमारियों के लिए भी उत्तरदायी है। पर्यावरणीय असंतुलन के कारण अपंगता में वृद्धि होती है। अध्ययनों से पता चला है कि रेडियोधर्मी पदार्थों से उत्पन्न प्रदूषण का परिणाम अपंग संतान का उत्पन्न होना है।

प्रदूषण स्वस्थ शरीर में रोग निवारक शक्ति को कम करता है। प्रदूषण का जीवन-प्रक्रम तथा मानवीय गतिविधियों पर काफी प्रभाव पड़ता है। अत्यधिक प्रदूषण शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है जिससे बच्चों का विकास ठीक प्रकार से नहीं हो पाता। पर्यावरणीय प्रदूषण के कारण फसलें भी नष्ट हो जाती हैं। जलीय जीवों के नष्ट हो जाने से खाद्य पदार्थों की हानि होती है। बड़ी संख्या में मछलियों आदि का मरना, बीमार होना आदि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होने के साथ-साथ मछलियों के व्यापार से जुड़े लोगों के सामने अनेक आर्थिक समस्याएँ भी उत्पन्न कर देता है।

प्रश्न 9.
सामाजिक पारिस्थितिकी से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
सामाजिक पारिस्थितिकी वह विचारधारा है जो यह बताती है कि सामाजिक संबंध, मुख्य रूप से संपत्ति तथा उत्पादन के संगठन, पर्यावरण की सोच तथा कोशिश को एक आकार देते हैं। पारिस्थितिकी की चुनौतियों का सामना करने हेतु विकसित ‘सामाजिक पारिस्थितिकी’ समाज पर पड़ने वाले प्रभावों के मद्देनजर पर्यावरण को नियंत्रित करने पर बल देती है। समाज के विभिन्न वर्ग पर्यावरण से संबंधित मुद्दों को भिन्न प्रकार से देखने एवं समझने का प्रयास करते हैं। उदाहरणार्थ-वन विभाग अधिक राजस्व प्राप्ति हेतु अधिक मात्रा में बाँस का उत्पादन करता है। बाँस का कारीगर इसका उपयोग कैसे करेगा। यह वन्य विभाग की चिंता का विषय नहीं है। दोनों द्वारा बॉस से संबंधित होने के बावजूद दोनों के दृष्टिकोण अलग-अलग हैं।

इसीलिए विभिन्न रुचियाँ एवं विचारधाराएँ पर्यावरण संबंधी मतभेद उत्पन्न कर देती हैं। इस अर्थ में पर्यावरण संकट की जड़ें सामाजिक असमानताओं में देखी जा सकती हैं। वस्तुत: आज की परिस्थितिकी से संबंधित सभी समस्याएँ कहीं-न-कहीं सामाजिक समस्याओं से उत्पन्न हुई हैं। इसलिए आर्थिक, नृजातीय, सांस्कृतिक, लैंगिक मतभेद तथा अन्य बहुत-सी समस्याओं के केंद्र में पर्यावरण की व्यवस्था स्थित है। पर्यावरण से संबंधित समस्याओं को सुलझाने का एक तरीका पर्यावरण तथा समाज के आपसी संबंधों में परिवर्तन है और इसका अर्थ है– विभिन्न समूहों (स्त्री तथा पुरुष, ग्रामीण तथा शहरी लोग, जमींदार तथा मजदूर आदि) के बीच संबंधों में बदलाव। सामाजिक संबंधों में परिवर्तने विभिन्न ज्ञान व्यवस्थाओं और भिन्न ज्ञान तंत्र को जन्म देगा जो पर्यावरण का प्रबंधन सुचारु रूप से कर सकेगा।

प्रश्न 10.
पर्यावरण संबंधित कुछ विवादास्पद मुद्दे जिनके बारे में आपने पढ़ा या सुना हो (अध्याय के अतिरिक्त) उनका वर्णन कीजिए।
उत्तर
पर्यावरण से संबंधित अनेक विवादास्पद मुद्दे हैं। वस्तुतः मनुष्यों और प्रकृति के बीच का संबंध तथा प्रकृति पर मानव कार्यों के हानिकारक प्रभाव, जो कि अभी तक एक उपेक्षित क्षेत्र रहा है, आज मुख्य मुद्दे के रूप में उभरा है। पर्यावरणीय राजनीति/आंदोलनों की वृद्धि सर्वाधिक चिंता का मुद्दा है। पूर्व-औद्योगिक समाजों में प्राकृतिक आपदाओं से उत्पन्न जोखिम और उसकी गूढ़ प्रकृति को स्वैच्छिक निर्णयन के लिए उत्तरदायी नहीं माना जा सकता। औद्योगिक समाजों में जोखिम की प्रकृति बदल गई है। कार्यस्थल पर होने वाली दुर्घटनाओं और औद्योगिक जोखिमों या बेरोजगारी के बढ़ते खतरे हेतु प्रकृति को दोषी नहीं माना जा सकता।

26 अप्रैल, 1986 ई० को बेलोरशियन सीमा से 12 किमी दूर हुई चैरनोबिल नाभिकीय पावर स्टेशन की एक पावर इकाई में घोर संकट पैदा हो गया। परमाणविक ऊर्जा प्रयोग के समग्र विश्व इतिहास में यह सर्वाधिक भीषण महाविपत्ति मानी जाती है। बंद रियेक्टर के धमाके के परिणामस्वरूप रेडियोऐक्टिव पदार्थों की भारी मात्रा पर्यावरण में घुल-मिल गई। दुर्घटना से बेलारूस क्षेत्र के 23 प्रतिशत भाग पर रेडियोऐक्टिव प्रभाव का भारी असर पड़ा जहाँ पर 2 मिलियन से अधिक लोगों की 3,778 बस्तियाँ थीं। प्रभावित कुल क्षेत्र यूक्रेन का 4.8 प्रतिशत भाग था। इस महाविपत्ति से वहाँ रहने वाले लाखों लोगों के भाग्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

पर्यावरण संबंधित एक प्रमुख विवादास्पद मुद्दा पारिस्थितिकीय आंदोलनों का है। ऐसे आंदोलन हमें आधुनिकता के ऐसे आयामों का मुकाबला करने के लिए विवश करते हैं जिन्हें अभी तक अनदेखा किया गया है। इसके अतिरिक्त ये प्रकृति एवं मनुष्यों के बीच के सूक्ष्म संबंधों के प्रति हमें संवेदनशील बनाते हैं जिन्हें कि अन्यथा छोड़ दिया जाता है। भारत में टिहरी जलविद्युत परियोजना, नर्मदा नदी घाटी परियोजना, भोपाल गैस त्रासदी, चिल्का झींगा उत्पादन जैसे विवादास्पद मुद्दे पर्यावरण से ही संबंधित हैं। आज पर्यावरणीय मुद्दों का अंतर्राष्ट्रीयकरण होता जा रहा है। इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में स्थायी विकास के नियोजन में पर्यावरणीय संतुलन पर बल दिया जाता है।

क्रियाकलाप आधारित प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्या आप जानते हैं कि रिज इलाके के जंगल में पायी जाने वाली वनस्पति क्षेत्रीय नहीं है। बलिक अंग्रेजों द्वारा लगभग सन 1915 में लगाई गई थी? (क्रियाकलाप 1)
उत्तर
यह सही है कि रिज इलाके के जंगल में पायी जाने वाली वनस्पति क्षेत्रीय नहीं है बल्कि अंग्रेजों द्वारा लगभग 1915 ई० में लगाई गई थी। इस इलाके में मुख्य रूप से विलायती कीकर अथवा विलायती बबूल के वृक्ष पाए जाते हैं जो दक्षिणी अमेरिका से लाकर यहाँ लगाए गए थे और अब संपूर्ण उत्तरी भारत में ऐसे वृक्ष प्राकृतिक रूप में पाए जाते हैं।

प्रश्न 2.
क्या आप जानते हैं कि ‘चोरस,-जहाँ उत्तराखंड स्थित कार्बेट नेशनल पार्क के वन्य जीवन की अद्भुत छटा को देखा जा सकता है, कभी वहाँ किसान खेती किया करते थे? (क्रियाकलाप 1)
उत्तर
उत्तराखंड में कार्बेट नेशनल पार्क एक प्रमुख आकर्षण का स्थल है जहाँ वन्य जीवन की अद्भुत छटा को देखा जा सकता है। जिस स्थान पर यह पार्क बनाया गया है वहाँ पहले किसान खेती करते थे। इस क्षेत्र के गाँवों को पुनस्र्थापित किया गया ताकि यहाँ वन्य जीवन को अपने प्राकृतिक रूप में देखा जा सके। यह ‘प्राकृतिक रूप से देखी जाने वाली चीज वास्तव में मनुष्य के सांस्कृतिक हस्तक्षेप का उदाहरण है। मनुष्य के सांस्कृतिक हस्तक्षेप के ऐसे अनगिनत अन्य उदाहरण भी हैं। जलरहित विदर्भ क्षेत्र में भारत का पहला हिम गुंबद’ तथा ‘फन एण्ड फूड विलेज’ वाटर एंड एम्युजमेंट पार्क’ आदि उदाहरण लगभग सभी प्रदेशों में देखे जा सकते हैं। वन्य जीवों के संरक्षण तथा लुप्तप्राय होती वन्य जीवों की प्रजातियों को बनाए रखने हेतु सरकार ने अनेक स्थानों का अधिग्रहण किया है।

प्रश्न 3.
पता कीजिए कि आपके परिवार में रोजाना कितना पानी इस्तेमाल किया जाता है। यह जानने का प्रयास कीजिए कि विभिन्न आय समूहों के परिवारों में तुलनात्मक रूप से कितना पानी इस्तेमाल होता है। विभिन्न परिवार पानी के लिए कितना समय और पैसा खर्च करते हैं? परिवार में पानी भरने का काम कौन करता है? सरकार विभिन्न वर्ग के लोगों के लिए कितना पानी मुहैया करवाती है? (क्रियाकलाप 2)
उत्तर
परिवार के सदस्यों की संख्या तथा उसके निवास स्थान से पानी को व्यय ज्ञात होता है और उसके घर में यदि पेड़-पौधे भी हैं या और कोई अतिरिक्त उपयेाग है तब उसके अनुसार ज्ञात किया जाता है। एक मध्यम आकार का परिवार प्रतिदिन कम-से-कम 150 से 250 लीटर पानी का प्रयोग करता है। यदि पेड़-पौधों को भी पानी देता है तो यह 500 लीटर तक भी हो सकता है। गर्मियों में पानी का अधिक उपयोग होता है, जबकि सर्दियों में कम। कम आय समूह के परिवारों में उच्च समूह के परिवारों की तुलना में पानी कम खर्च होता है। नगरों में पानी भरने के लिए बहुत कम समय देना पड़ता है, जबकि गाँव में इसके लिए एक घंटा तक लग सकता है।

यदि नगरों में पानी का प्रेशर ठीक है तो मकानों में रखी टंकियाँ अपने आप भर जाती हैं तथा किसी भी सदस्य को इसके लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। जिन स्थानों पर प्रेशर कम है अथवा कुछ नियत समय के लिए ही पानी आता है वहाँ पर काफी समय पानी के लिए खर्च करना पड़ सकता है। गाँव में पानी भरने का काम अधिकतर महिलाएँ ही करती हैं। कई बार उन्हें काफी दूर से पानी लाना पड़ता है। कुछ नगरों में पानी के मीटर लगे रहते हैं। तथा परिवार जितना पानी इस्तेमाल करेंगे उतना ही उन्हें बिल देना पड़ेगा। एक मध्यम आकार के मकान एवं मध्यम वर्ग के परिवार में पानी का खर्चा लगभग 100 महीना होता है। अनेक नगरों में मकानों के क्षेत्रफल के आधार पर पानी के लिए प्रतिमाह एक निश्चित धनराशि वसूल की जाती है।

यदि कोई व्यक्ति नगर विकास निगम द्वारा बनाई गई कॉलोनी में रहता है तो उसके मकान की श्रेणी (आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग, निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग एवं उच्च वर्ग) के अनुरूप पानी का मासिक किराया निर्धारित कर दिया जाता है। ऐसी कालोनियों में पानी की सप्लाई हेतु काफी बड़ी टंकियों का निर्माण भी भवनों के निर्माण के साथ ही कर दिया जाता है। पहले कभी परिवारों को पानी के लिए बहुत कम पैसा व्यय करना पड़ता था, लेकिन अब यह व्यय निरंतर बढ़ता जा रहा है। महानगरों में बड़े भवनों में रहने वाले लोगों को र 300 से भी अधिक का खर्चा प्रतिमाह पानी पर करना पड़ता है।

प्रश्न 4.
कल्पना कीजिए कि आप 14-15 साल के झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाले लड़का/लड़की हैं। आपका परिवार क्या काम करता है और आप कैसे रहते हैं? अपनी दिनचर्या का वर्णन करते हुए उस पर एक छोटा निबंध लिखिए। (क्रियाकलाप 3)
उत्तर
यदि आपने कोई झुग्गी-झोपड़ी देखी है तो आप वहाँ रहने वाले परिवार का वर्णन सरलता से कर सकते हैं। प्रायः झुग्गी-झोंपड़ी नगर में बड़ी-बड़ी इमारतों, होटलों एवं सरकारी कार्यालयों, पुलों, रेल की पटरियों के किनारों, रेलवे स्टेशनों के नजदीक, नगर के बाहरी इलाकों में स्थित होती हैं। झुग्गी-झोपड़ियाँ प्रायः छप्पर की या खपरैल की होती हैं तथा पूरा परिवार इसी में निवास करता है। पुरुष काम के लिए (रिक्शा चलाने, किसी निर्माण स्थल पर मजदूरी करने, कूड़ा बीनने या कोई अन्य कार्य करने हेतु) बाहर चला जाता है।

कई बार परिवार की स्त्री भी अपने छोटे बच्चे के साथ मजूदरी करने चली जाती है। ऐसे परिवार में दिन में कोई भी नहीं रहता। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते जाते हैं, वैसे-वैसे बच्चों को भी मजदूरी या अन्य किसी ऐसे काम (जैसे-पास के मुहल्ले में कारों की सफाई करना, पास के घरों में सफाई करना) में लगा दिया जाता है जिससे वह परिवार के लिए कुछ पैसे प्रतिदिन कमाकर लाएँ तथा परिवार का बोझ कम करें। 14-15 साल के लड़के/लड़कियाँ घरों में सारा दिन अथवा सुबह-शाम काम करते हैं तथा अपने हमउम्र साथियों के साथ बैठकर अपना समय बिताते हैं।

यदि परिवार कोई अपना कार्य (जैसे-लोहे, लकड़ी या मिट्टी की कोई वस्तु बनाना) करता है तो बच्चे इस कार्य में परिवार की सहायता करते हैं। यदि झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाले परिवार मध्यम स्थिति में है तो वह बच्चों को शिक्षा के लिए सरकारी स्कूल में भी भेज सकता है। ऐसी स्थिति में 14-15 साल के लड़के/लड़कियाँ पढ़ाई के अतिरिक्त अन्य घरों में काम करके अथवा पारिवारिक काम में हाथ बँटाकर परिवार को सहयोग देते हैं। चूंकि झुग्गी-झोंपड़ियों में न तो पानी का इंतजाम होता है और न ही सार्वजनिक शौचालयों का, अतः इस आयु के बच्चे आस-पास से पानी भरकर लाने का भी काम करते हैं।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
“पर्यावरण किसी भी उस बाह्य शक्ति को कहते हैं जो हमें प्रभावित करती है। यह परिभाषा किस विद्वान ने प्रस्तुत की है?
(क) जिसबर्ट
(ख) रॉस
(ग) मैकाइवर
(घ) डेविस
उत्तर
(ख) रॉस

प्रश्न 2.
प्रकृति द्वारा मनुष्य को प्रदत्त दशाओं से निर्मित पर्यावरण को क्या कहा जाता है?
(क) भौगोलिक
(ख) सामाजिक
(ग) सांस्कृतिक
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) सामाजिक

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से किस विद्वान ने भौगोलिक निश्चयवाद का समर्थन किया है?
(क) बकल
(ख) लीप्ले
(ग) हटिंग्टन
(घ) ये सभी
उत्तर
(घ) ये सभी

प्रश्न 4.
भौगोलिक पर्यावरण किन तत्त्वों से बनता है?
(क) मनुष्य
(ख) प्राकृतिक दशाएँ
(ग) धार्मिक विश्वास
(घ) प्रथाएँ।
उत्तर
(ख) प्राकृतिक दशाएँ

प्रश्न 5.
वह कौन-सा सिद्धांत है जो सम्पूर्ण मानवीय क्रियाओं को भौगोलिक पर्यावरण के आधार पर स्पष्ट करने का प्रयास करता है?
(क) भौगोलिक निर्णायकवाद
(ख) तकनीकी निर्णायकवाद
(ग) सांस्कृतिक निर्णायकवाद
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(क) भौगोलिक निर्णायकवाद

प्रश्न 6.
हंटिंग्टन किस सम्प्रदाय का समर्थक है?
(क) भौगोलिक निर्णायकवाद
(ख) तकनीकी निर्णायकवाद
(ग) सांस्कृतिक निर्णायकवाद
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(क) भौगोलिक निर्णायकवाद

प्रश्न 7.
भारतीय सरकार ने गंगा विकास प्राधिकरण’ की स्थापना किस सन में की थी?
(क) सन् 1984 में
(ख) सन् 1985 में
(ग) सन् 1986 में
(घ) सन् 1987 में
उत्तर
(ख) सन् 1985 में

प्रश्न 8.
पर्यावरण दिवस मनाया जाता है।
(क) 5 जून को
(ख) 24 जून को
(ग) 6 जून को
(घ) 20 जून को
उत्तर
(क) 5 जून को

निश्चित उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
मानवीय गतिविधियों द्वारा पर्यावरण में होने वाले असंतुलन को क्या कहा जाता है?
उत्तर
मानवीय गतिविधियों द्वारा पर्यावरण में होने वाले अवांछनीय परिवर्तन को ‘पर्यावरणीय प्रदूषण’ कहते हैं।

प्रश्न 2.
जल प्रदूषण के दो प्रमुख स्रोत कौन-से हैं?
उत्तर
औद्योगिक अपशिष्ट या जहरीले गौण उत्पाद तथा कृषीय कीटनाशक दवाएँ जल प्रदूषण के दो प्रमुख स्रोत हैं।

प्रश्न 3.
वायु प्रदूषण के दो प्रमुख स्रोत बताइए।
उत्तर
कारखानों से निकलने वाला धुआँ तथा ऑटोमोबाइल से निकलने वाली गैसें वायु प्रदूषण के दो प्रमुख स्रोत हैं।

प्रश्न 4.
जल प्रदूषण का एक प्रभाव बताइए।
उत्तर
जल प्रदूषण के प्रभाव से आर्सेनिक कैंसर, टाइफाइड, हैजा एवं पीलिया जैसे रोगों की आशंका बढ़ जाती है।

प्रश्न 5.
भारत में राष्ट्रीय पारिस्थितिकी बोर्ड की स्थापना किस वर्ष हुई थी?
उत्तर
भारत में राष्ट्रीय पारिस्थितिकी बोर्ड की स्थापना वर्ष 1981 में हुई थी।

प्रश्न 6.
भारत में पर्यावरण और वन्य जीवन मंत्रालय की स्थापना कब की गई?
उत्तर
भारत में पर्यावरण और वन्य जीवन मंत्रालय की स्थापना 1985 ई० में की गई।

प्रश्न 7.
उस बाह्य शक्ति को क्या कहते हैं जो हमें प्रभावित करती है?
उत्तर
पर्यावरण।

प्रश्न 8.
‘भौगोलिक निर्णायकवाद’ की संकल्पना को किसने विकसित किया?
उत्तर
बकल ने।

प्रश्न 9.
चिपको आन्दोलन किसने चलाया?
उत्तर
सुन्दरलाल बहुगुणा ने।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
पर्यावरण क्या है? इसके दो प्रकार बताइए।
या
पर्यावरण क्या है? इसके प्रमुख प्रकार बताइए।
उत्तर
पर्यावरण से अभिप्राय उन सभी वस्तुओं से है जो हमें चारों ओर से घेरे रखती हैं। हमारे चारों ओर की प्राकृतिक वस्तुएँ तथा सांस्कृतिक वातावरण पर्यावरण के अंतर्गत ही आते हैं। पर्यावरण प्रमुख रूप से दो प्रकार का होता है- भौगोलिक (प्राकृतिक) पर्यावरण तथा सांस्कृतिक पर्यावरण।

प्रश्न 2.
भौगोलिक पर्यावरण क्या है? यह किस प्रकार मानव समाज को प्रभावित करता है?
उत्तर
प्रकृति द्वारा निर्मित पर्यावरण को भौगोलिक पर्यावरण कहा जाता है। इसमें वे सभी वस्तुएँ सम्मिलित होती हैं जिनको मानव ने नहीं बनाया है। कुछ विद्वानों का कहना है कि भौगोलिक पर्यावरण मानव समाज को अत्यधिक प्रभावित करता है। जनसंख्या का घनत्व, व्यवसाय, आर्थिक जीवन, धार्मिक जीवन, व्यक्ति की कार्यक्षमता तथा सामाजिक संस्थाओं पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 3.
प्रदूषण किसे कहते हैं?
उत्तर
पर्यावरण की लय एवं संतुलन में होने वाले अवांछनीय परिवर्तन, जो मानव जीवन के लिए हानिकारक होते हैं अथवा जीवनदायिनी शक्तियों को नष्ट करते हैं, प्रदूषण कहलाते हैं।

प्रश्न 4.
पारिस्थितिकीय निर्धारणवाद क्या है?
उत्तर
पारिस्थितिकीय निर्धारणवाद वह विचारधारा है जो सभ्यता के विकास की संभावनाओं में पर्यावरण को मूल कारण मानती है। इस विचारधारा के अनुसार पारिस्थितिकी सभी घटनाओं को नियंत्रित करता है।

प्रश्न 5.
प्रदूषण के प्रमुख दो सामाजिक प्रभावों को लिखिए।
उत्तर
प्रदूषण मानव तथा अन्य जीवों के जीवन-चक्र पर हानिकारक प्रभाव डालता है। अतः यह मानव तथा समाज दोनों के लिए हानिकारक है। प्रदूषण के दो प्रमुख हानिकारक प्रभाव निम्नलिखिते हैं –

  1. मानव के जीवन-स्तर पर प्रभाव – मानव-जीवन पर प्राकृतिक सम्पदाओं का प्रभाव पड़ता है। यह प्राकृतिक सम्पदाएँ भूमि; पेड़-पौधे, खनिज पदार्थ, जल, वायु आदि के रूप में मनुष्य को उपलब्ध हैं। प्रदूषण के कारण इन सभी पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। प्रदूषण के कारण फसलों, फलों, सब्जियों आदि पर बुरा प्रभाव पड़ता है, जलीय जीव (मछलियाँ आदि) नष्ट हो जाते हैं। इससे वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि हो जाती है तथा लोगों को आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ता है।
  2. प्राणियों के खाद्य-पदार्थों में कमी – वनों की अन्धाधुन्ध कटाई के परिणामस्वरूप | जीव-जन्तुओं को चारा तक उपलब्ध नहीं हो पा रहा है, जिस कारण हमें पशुओं से जो पदार्थ प्राप्त होते हैं, वे नष्ट होते जा रहे हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
पर्यावरणीय प्रदूषण क्या है? उत्तर-पर्यावरणीय प्रदूषण से आशय जैवमंडल में ऐसे तत्त्वों के समावेश से है, जो जीवनदायिनी शक्तियों को नष्ट कर रहे हैं। उदाहरणार्थ-रूस में चेरनोबिल के आणविक बिजलीघर से एक हजार किलोमीटर क्षेत्र में रेडियोधर्मिता फैल गई, जिससे मानव जीवन के लिए ही अनेक संकट पैदा हो गए। आज इस दुर्घटना के बाद लोग आणविक बिजलीघर का नाम सुनते ही सिहर उठते हैं। इसी तरह रासायनिक खाद, लुगदी बनाने, कीटनाशक दवाओं के बनाने और चमड़ा निर्माण करने आदि के कुछ ऐसे दुसरे उद्योग हैं, जो वायु प्रदूषण फैलाते हैं। इतना ही नहीं, कई उद्योग तो वायु प्रदूषण के साथ-साथ मिट्टी और पानी का भी प्रदूषण करते हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति की विज्ञान सलाहकार समिति के अनुसार, “पर्यावरणीय प्रदूषण मनुष्यों की गतिविधियां द्वारा ऊर्जा स्वरूपों, विकिरण स्तरों, रासायनिक तथा भौतिक संगठनों, जीवों की संख्या में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से परिवर्तन के परिणामस्वरूप उत्पन्न उप-उत्पाद है, जो हमारे परिवेश में पूर्ण अथवा अधिकतम प्रतिकूल परिवर्तन उत्पन्न करता है।”

प्रश्न 2.
प्रदूषण नियंत्रण हेतु चार प्रमुख उपायों की विवेचना करें।
उत्तर
प्रदूषण नियंत्रण हेतु चार प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं –

  1. प्रदूषण नियंत्रण हेतु जनता का सहयोग अनिवार्य है। जनता के सहयोग हेतु प्रदूषण-नियंत्रण के लिए शिक्षा का अभियान चलाया जाना चाहिए। जनसंचार माध्यमों द्वारा जनता में पर्यावरणीय सुरक्षा एवं प्रदूषण के प्रति जागरूकता लाने के प्रयास भी किए जाने चाहिए।
  2. प्रदूषण नियंत्रण हेतु कारखानों को नगरों से दूर स्थापित किया जाना चाहिए जिससे उनसे निकलने वाले धुएँ एवं हानिकारक गैस आदि से बचाव हो सके।
  3. पर्यावरणीय सुरक्षा के क्षेत्र में ऐच्छिक संगठनों का सहयोग लिया जाना चाहिए। वैसे तो हमारे देश में इस क्षेत्र में अनेक ऐच्छिक संगठन क्रियाशील हैं जिनके सामाजिक कार्यकर्ता प्रदूषण के खिलाफ संघर्षरत हैं, तथापि सरकार को भी ऐसे संगठनों को वित्तीय सहायता उपलब्ध करानी चाहिए।
  4. नागरिक दायित्व के निर्वहन हेतु जनता को प्रेरित करना चाहिए जिससे वे खुले में कूड़ा-करकट, मैला तथा अन्य किसी प्रकार का प्रयुक्त पदार्थ न डालें।

प्रश्न 3.
प्रदूषण के स्रोतों की विवेचना कीजिए।
या
प्रदूषण के उत्तरदायी कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
प्रदूषण के उत्तरदायी स्रोत या कारण निम्नलिखित हैं –

  1. उद्योगों से निकलने वाले स्राव (अपशिष्ट) प्रदूषण का प्रमुख कारण हैं। इनसे मुख्य रूप से वायु एवं जल प्रदूषण बढ़ता है।
  2. कीटनाशक दवाएँ भी प्रदूषण का कारण मानी जाती हैं क्योंकि इनके प्रयोग के काफी हानिकारक प्रभाव होते हैं।
  3. प्रदूषित जल तथा वायु प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं। अधिकांशतया इन्हीं के सर्वाधिक हानिकारक प्रभाव आए दिन सामने आते रहते हैं।
  4. आवागमन के साधनों से निकलने वाला धुआँ भी प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है।
  5. नगरों में जगह-जगह पर पड़ा कूड़ा-करकट भी प्रदूषण का एक कारण है।
  6. उद्योगों से निकलने वाले स्राव का नदियों के जल में मिल जाने से जल प्रदूषित हो जाता है।
  7. नगरीकरण, औद्योगीकरण एवं आर्थिक विकास हेतु बड़े पैमाने पर वनों का कटाव भी प्रदूषण का एक कारण है।
  8. रसोईघरों, स्वत:चालित वाहनों एवं कारखानों की चिमनियों से निकलने वाला धुआँ भी प्रदूषण फैलाता है।

प्रश्न 4.
“पर्यावरण प्रदूषण का सर्वप्रथम कारण मानव सभ्यता का विकास ही है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
पहले जब मानव सभ्यता का विकास प्रारंभ नहीं हुआ था तो व्यक्ति प्राकृतिक जीवन व्यतीत करता था। मानव सभ्यता के शनैः शनैः विकास के परिणामस्वरूप मानव ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पर्यावरण से छेड़छाड़ करना प्रारंभ कर दिया। जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास होता गया, मानव की आवश्यकताएँ बढ़ती गईं तथा पर्यावरण से छेड़छाड़ भी उसी अनुपात में अधिक होने लगा। इसी का परिणाम प्रदूषण के रूप में सामने आया है। इसीलिए पर्यावरणीय प्रदूषण को एक नवीन संकल्पना माना जाता है।

भौतिक विकास को अत्यधिक महत्त्व दिया जाने लगा जिसके परिणामस्वरूप फ्रकृति का भंडार समाप्त होने लगा। मानव सभ्यता के विकास के फलस्वरूप ही भारी उद्योगों एवं बड़े-बड़े बाँधों के निर्माण में तेजी आई तथा इनसे प्रकृति के घटकों का संतुलन बिगड़ना प्रारंभ हो गया। ऐसा लगता है कि प्रदूषण वह कीमत है जो मानव सभ्यता के विकास हेतु सभी समाजों को चुकानी पड़ती है। ऊर्जा के स्रोतों के रूप में आज आणविक एवं ताप बिजलीघरों का निर्माण किया जा रहा है जिनसे निकलने वाली गैसें अधिक खतरनाक होती हैं। भोपाल गैस कांड जैसे कई कांड इसके दुष्परिणामों के उदाहरण हैं। कई विद्वान ऐसा भी मानते हैं कि पर्यावरण प्रदूषण मानव सभ्यता के विकास की वह कीमत है जो उसे विकास के नाम पर चुकानी पड़ती है।

प्रश्न 5.
कार्बन मोनो-ऑक्साइड का वायुमंडल में बढ़ता प्रवाह किस प्रकार की सामाजिक समस्याओं को जन्म दे रहा है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
कार्बन मोनो-ऑक्साइड का वायुमंडल में बढ़ता प्रवाह वायु प्रदूषण से संबंधित है। वायु में गैसों की अनावश्यक वृद्धि (केवल ऑक्सीजन को छोड़कर) या उसके भौतिक व रासायनिक घटकों में परिवर्तन वायु प्रदूषण उत्पन्न करता है। वायु में विभिन्न गैसों में संतुलन पाया जाता है, परंतु मोटरगाड़ियों से निकलने वाला धुआँ, कुछ कारखानों से निकलने वाला धुआँ तथा वनों व वृक्षों के काटे जाने से वायु में ऑक्सीजन, नाइट्रोजन व कार्बन डाइऑक्साइड का संतुलन बिगड़ जाता है तथा यह मनुष्यों व अन्य जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव डालने लगता है।

अनेक कारण वायु प्रदूषण के लिए उत्तरदायी माने जाते हैं परंतु इन सभी कारणों में कार्बन मोनो-ऑक्साइड का वायुमंडल में बढ़ती प्रवाह महत्त्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इससे स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। छाती, सॉस, आँखों तथा हड्डियों से संबंधित अनेक बीमारियाँ इसी के परिणामस्वरूप होती हैं। इतना ही नहीं, जब व्यक्ति का स्वास्थ्य ही ठीक नहीं होगा तो निर्धनता एवं बेरोजगारी जैसी समस्याओं में वृद्धि होगी।

प्रश्न 6.
ध्वनि प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? आधुनिक समाज पर इसका कुप्रभाव सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
तीखी आवाज से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण को ध्वनि प्रदूषण कहा जाता है। इस प्रकार का प्रदूषण गाँव की तुलना में नगरों में अधिक पाया जाता है। विभिन्न प्रकार के यंत्रों, वाहनों, मशीनों, जहाजों, रॉकेटों, रेडियो व टेलीविजन, पटाखों, लाउड्स्पीकरों आदि के प्रयोग से ध्वनि प्रदूषण विकसित होता है। ध्वनि प्रदूषण जनसंख्या वृद्धि के कारण निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। ध्वनि प्रदूषण अनेक प्रकार के रोगों का कारण माना जाता है।

इससे सुनने की क्षमता का ह्वास होता है, रुधिर चाप बढ़ जाता है, हृदय रोग की आशंका बढ़ जाती है तथा तंत्रिका तंत्र संबंधी रोग हो सकते हैं। ध्वनि प्रदूषण से व्यक्ति को ठीक प्रकार से नींद नहीं आती तथा वह चिड़चिड़ा हो जाता है। इससे उसमें मानसिक तनाव बढ़ जाता है। साथ ही, कुछ विशेष प्रकार की ध्वनियाँ सूक्ष्म जीवों को नष्ट कर देती है, जिससे जैव अपघटन क्रिया में रुकावट उत्पन्न होती है।

प्रश्न 7.
‘पारिस्थितिकी तंत्र का पतन एवं पर्यावरण प्रदूषण पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
पारिस्थितिकी तंत्र से अभिप्राय किसी समुदाय के निर्जीव पर्यावरण तथा उसमें पाए जाने वाले जीवधारियों की समग्र व्यवस्था से है। संतुलित पर्यावरण को पारिस्थितिकी तंत्र कहते हैं। जब इसमें मानवीय प्रयासों के परिणामस्वरूप अवक्रमण होता है तो इसे पारिस्थितिकी तंत्र का पतन कहते हैं। पारिस्थितिकी तंत्र के पतन का कारण वनों का विनाश, भूमि या मृदा का कटाव, जल स्रोतों की कमी तथा खतरनाक उद्योग (जैसे-दून घाटी में चूना उद्योग) इत्यादि हैं।

यह सब ऐसे कारण हैं जिनसे पर्यावरणीय प्रदूषण में वृद्धि होती है। जैसे-जैसे विकास हेतु पारिस्थितिकी तंत्र का पतन होता है, वैसे-वैसे पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि होती है। वनों के विनाश से वायु प्रदूषण, मृदा के कटाव अथवा मृदा में होने वाले अस्वाभाविक परिवर्तन से मृदीय प्रदूषण तथा जल स्रोतों के दूषित होने से जलप्रदूषण होता है। खतरनाक उद्योगों से पानी का स्तर नीचे पहुँच जाता है, पेड़ धूल से भरे रहते हैं तथा उद्योगों से हानिकारक गैसों का स्राव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। इसीलिए पारिस्थितिकी तंत्र के पतन एवं पर्यावरण प्रदूषण में गहरा संबंध पाया जाता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
पारिस्थितिकी किसे कहते हैं? पारिस्थितिकी एवं समाज में संबंध स्पष्ट कीजिए।
या
पारिस्थितिकी क्या है? पारिस्थितिकीय अवक्रमण के प्रमुख कारण बताइए।
उत्तर

पारिस्थितिकी का अर्थ

पारिस्थितिकी (Ecology) को प्रत्येक समाज का आधार माना जाता है। इससे अभिप्राय किसी समुदाय के निर्जीव पर्यावरण तथा उसमें पाए जाने वाले जीवधारियों की समग्र व्यवस्था का अध्ययन करने वाले विज्ञान से है। इस प्रकार, पारिस्थितिकी का अर्थ एक ऐसे जाल से है जहाँ भौतिक और जैविक व्यवस्थाएँ तथा प्रकियाएँ गठित होती है और मनुष्य भी इसका एक अंग होता है। पर्वत, नदियाँ, मैदान, सागर और जीव-जंतु सभी पारिस्थितिकी के अंग हैं।
संतुलित पर्यावरण को पारिस्थितिकतंत्र (Ecosystem) कहा जाता है। इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ए० जी० टेन्सले नामक वैज्ञानिक ने 1935 ई० में किया था पर्यावरण के जैविक एवं अजैविक, सभी कारकों के परस्पर संबंधों को पारिस्थितिक तंत्र कहा जाता है। जब इसमें मानवीय प्रयासों के परिणामस्वरूप अवक्रमण होता है तो उसे पारिस्थितिकीय अवक्रमण कहा जाता है।

पारिस्थितिकी एवं समाज का संबंध 

पारिस्थितिकी एवं समाज में गहरा संबंध पाया जाता है। किसी स्थान की पारिस्थितिकी पर वहाँ के भूगोल तथा जलमंडल की अंत:क्रियाओं का प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ-मरुस्थलीय प्रदेशों में रहने वाले जीव-जंतु अपने आप को न्यून वर्षा, पथरीली अथवा रेतीली मिट्टी तथा अत्यधिक तापमान के अनुसार अपने आप को ढाल लेते हैं। इसीलिए यह कहा जाता है कि पारिस्थितिकीय कारक यह भी निर्धारित करते हैं कि किसी स्थान विशेष पर लोग कैसे रहेंगे। मरुस्थलीय प्रदेशों, पहाड़ी प्रदेशों, समुद्रतटीय क्षेत्रों, मैदानी प्रदेशों, बर्फीले प्रदेशों आदि में इसीलिए मानवीय जीवन में अंतर देखा जा सकता है। यह अंतर न केवल रहन-सहन, खान-पान एवं पहनावे में ही देखा जा सकता है बल्कि परंपराओं में भी भिन्नताएँ विकसित हो जाती हैं। मनुष्य की क्रियाओं द्वारा पारिस्थितिकी में होने वाले परिवर्तन से मानव समाज में भी परिवर्तन होना प्रारंभ हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि जैवभौतिक पारिस्थितिकी सामाजिक पर्यावरण पर गहरा प्रभाव डालती है। एक तरफ प्रकृति समाज को आकार देती है दूसरी ओर समाज भी प्रकृति को आकार देता है।

पारिस्थितिकीय अवक्रमण के कारण

संपूर्ण विश्व में आर्थिक विकास की जो कीमत चुकानी पड़ी है उसमें विस्थापन के अलावा पारिस्थितिकीय अवक्रमण (जिसे निम्नीकरण भी कहा जा सकता है) की समस्या भी प्रमुख मानी जाती है। पारिस्थितिकीय अवक्रमण वन क्षेत्र में होने वाली कमी, पानी की सतह नीची होने तथा भूमि कटाव के रूप में देखा जा सकता है। प्राकृतिक साधनों का अवक्रमण एक विश्व स्तर की समस्या बन गई है। तीव्र औद्योगीकरण व नगरीकरण, गहन कृषि, जनसंख्या विस्फोट, खनन तथा अन्य मानवीय क्रियाओं के परिणामस्वरूप भूमि तथा पानी के स्रोतों का अवक्रमण हुआ है।

भारत का अधिकतर भौगोलिक क्षेत्र किसी-न-किसी प्रकार के पारिस्थितिकीय अवक्रमण से प्रभावित हुआ है। वनों का बड़ी तेजी से विनाश हुआ है तथा पानी के स्रोत (नदियों, झीलों तथा जमीन के नीचे पानी) सूखते जा रहे हैं तथा पानी की गुणवत्ता प्रभावित होती जा रही है। प्राकृतिक साधनों का अवक्रमण आर्थिक विकास का परिणाम तो है ही यह भारत जैसे विकासशील देश में सामाजिक-आर्थिक विकास तथा विश्व पर्यावरण के लिए खतरा भी बनता जा रहा है। पारिस्थितिकीय अवक्रमण के निम्नलिखित कारण हैं –

1. वनों का विनाश – वनों की लकड़ी व्यवसाय में उपयोग करने तथा जड़ी-बूटियों हेतु किए जाने वाले वनों के कटाव के परिणामस्वरूप भारत में वन क्षेत्र बड़ी तेजी से घटता जा रहा है। जितने पेड़ लगाए जाते हैं उससे कहीं अधिक संख्या में काटे जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि भारत में । वन गाँवों से दूर होते जा रहे हैं। अनेक बार तो निजी स्वार्थों हेतु बड़े पैमाने पर वनों में आग लगा दी जाती है। गर्मियों में ग्रामवासी वनों में आग इसलिए भी लगा देते हैं कि बरसात के बाद अच्छी घास उपलब्ध हो पाएगी। अनेक बार तो विभागीय स्तर पर भी वन के कुछ हिस्से में। आग इसलिए लगा दी जाती है ताकि उसे कृषि योग्य बनाया जा सके और आग के पूरे वन क्षेत्र में फैलने से बचा जा सके। इससे मूल्यवान पेड़ नष्ट हो जाते हैं। विकास के नाम पर बनाए जाने वाले बड़े-बड़े बाँध भी पारिस्थितिकीय अवक्रमण विकसित करते हैं।

2. भूमि या मृदा कटाव – भूमि एक मूल्यवान भौतिक संपदा मानी जाती है। जब तक पारिस्थितिक तन्त्र में कोई छेड़-छाड़ नहीं की जाती या बहुत कम की जाती है जो आवश्यक होती है तब भूमि का निरंतर परिष्करण एवं संपन्नीकरण होता रहता है। जब इस पर, पेड़-पौधों का प्राकृतिक आवरण कम हो जाती है तो भूमि कटाव प्रांरभ हो जाती है। भू-स्खलन (Landslides) एवं गाद भरने (Siltation) के परिणामस्वरूप भी भूमि कटाव से पारिस्थितिकीय अवक्रमण की स्थिति पैदा हो जाती है।

3. जल स्रोतों की कमी – पानी जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक तत्त्व है। भारत में जल स्रोतों की भी निरंतर कमी होती जा रही है तथा भूमि के नीचे पानी का स्तर और नीचा होता जा रहा है। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि अगर यही स्थिति रही तो कुछ ही दशकों में पानी की अत्यधिक कमी हो जाएगी। कृषि उत्पादन बढ़ाने हेतु खादों के प्रयोग से पानी प्रदूषित होता जा रहा है तथा कम वर्षा के परिणामस्वरूप नदियों में पानी का स्तर घटता जा रहा है। मरुस्थल का निंरतर विस्तार होता जा रहा है। यह पारिस्थितिकीय अवक्रमण का ही द्योतक है।

4. खतरनाक उद्योग – अनेक बार औद्योगिक विकास के परिणामस्वरूप भी पारिस्थितिकीय संकट पैदा हो जाता है। उदाहरणार्थ-दून घाटी में चूने के उद्योग के परिणामस्वरूप पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचा है। इससे पानी का स्तर काफी नीचे पहुँच गया है, पेड़ धूल से भरे हुए रहते हैं तथा चूने की भट्टियों से हानिकारक गैसों का स्राव होता रहता है। इसी प्रकार, टिहरी बाँध के परिणामस्वरूप भी उपजाऊ भूमि के बहुत बड़े भाग को नष्ट कर दिया गया है।

सरकार ने भारत में बढ़ते हुए पारिस्थितिकीय अवक्रमण को देखते हुए आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण की दीर्घकालिक नीति बनाई है। इसके अंतर्गत पारिस्थितिकीय अवक्रमण को रोकने एवं प्रदूषण नियंत्रण हेतु चरणबद्ध ढंग से अनेक कार्यक्रम लागू किए गए हैं। अनेक गैर-सरकारी संगठनों को भी इस कार्य में सहयोग देने हेतु आर्थिक सहायता दी जा रही है।

2002 ई० में ‘नवीन राष्ट्रीय जल नीति‘ को स्वीकृति प्रदान की गई। इस योजना के अंतर्गत देश के जल संसाधनों के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया जा रही है। राष्ट्रीय जल बोर्ड, राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद्, केंद्रीय भूमिगत जल प्राधिकरण तथा संबंधित जल संसाधन विकास योजना द्वारा इस दिशा में अनेक कदम उठाए गए हैं जिनसे थोड़ी सफलता ही मिल पाई है। पर्यावरणीय शिक्षा एवं सामान्य जागरूकता द्वारा जन-जागृति आने पर मिलने वाला नागरिकों का सहयोग ही इस समस्या के समाधान में सार्थक सिद्ध हो सकता है।

प्रश्न 2.
पर्यावरणीय प्रदूषण क्या है? यह कितने प्रकार का होता है?
या
पर्यावरणीय प्रदूषण की परिभाषा कीजिए तथा इसके सामाजिक प्रभावों की विवेचना कीजिए।
या
भारत में प्रदूषण नियंत्रण हेतु सरकार द्वारा उठाए गए कदमों की समीक्षा कीजिए।
या
प्रदूषण नियंत्रण हेतु कुछ उपाय बताइए।
उत्तर
मानव ने अपनी सुख-सुविधाओं में वृद्धि हेतु पर्यावरण में इतना अधिक परिवर्तन कर दिया है। कि इससे पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गई है। यह समस्या आज किसी एक देश की नहीं, है, अपितु सभी दे, कम या अधिक सीमा में इस समस्या का सामना कर रहे हैं। भारत में यह समस्या एक गंभीर स्थिति बनती जा रही है जिसके अनेक दुष्परिणाम आज हमारे सामने आ रहे हैं। पर्यावरण के विभिन्न घटकों में मानवीय क्रिया-कलापों से जो असंतुलन आता जा रहा है, वही प्रदूषण कहलाता है।

पर्यावरणीय प्रदूषण का अर्थ एवं परिभाषाएँ

‘पर्यावरणीय प्रदूषण का अर्थ समझने के लिए पहले ‘पर्यावरण के अर्थ को समझ लेना अनिवार्य है। ‘पर्यावरण को अंग्रेजी में एनवायरमेंट’ (Environment) कहा जाता है। पर्यावरण’ शब्द दो शब्दों से बना है-‘परि’ + ‘आवरण। ‘परि’ शब्द का अर्थ होता है चारों ओर से’ एवं ‘आवरण’ शब्द का अर्थ होता है ‘ढके या घेरे हुए’। अन्य शब्दों में, पर्यावरण शब्द का अर्थ वह वस्तु है जो हमसे अलग होने पर भी हमें चारों ओर से ढके या घेरे रहती है। इस प्रकार, किसी जीव या वस्तु को जो-जो वस्तुएँ, विषय, जीव एवं व्यक्ति आदि प्रभावित करते हैं वे सब उसका पर्यावरण हैं। पर्यावरण अनुकूल भी हो सकता है और प्रतिकूल भी।

जब पर्यावरण अनुकूल होता है तो उससे प्रभावित होने वाली वस्तु का विकास होता है और जब यह प्रतिकूल होता है तो विकास अवरूद्ध हो जाता है। उदाहरण के लिए एक बीज को यदि उपजाऊ भूमि में डाल दिया जाएगा और पानी नहीं दिया जाएगा तो प्रतिकूल पर्यावरण के कारण वह नष्ट हो जाएगा। इसी प्रकार, मनुष्य का विकास भी अनुकूल व प्रतिकूल पर्यावरण से भिन्न-भिन्न रूप से प्रभावित होता है। जिसबर्ट (Gisbert) के अनुसार, “प्रत्येक वह वस्तु जो किसी वस्तु को चारों ओर से घेरती एवं उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालती है, पर्यावरण कही जाती है।” टी०डी० इलियट के अनुसर, चैतन पदार्थ की इकाई के प्रभावकारी उद्दीपन और अन्त: क्रिया के क्षेत्रों को पर्यावरण कहते हैं।

उपर्युक्त परिभाषाओं द्वारा ‘पर्यावरण’ का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। वास्तव में, पर्यावरण एक विस्तृत अवधारणा है। इसके विभिन्न रूप एवं प्रभाव हैं। पर्यावरण जीवन के प्रत्येक पक्ष में अंतर्निहित होता है। यह मानव-शक्तियों को निर्देशित या विमुक्त, उत्साहित या हतोत्साहित कर देता है। यह उसकी वाणी को मोड़ देता है, यह उसके संगठन को सूक्ष्म रूप से परिवर्तित करता है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि इससे भी अधिक यह उसके अंदर निवास करता है। यह उसके मस्तिष्क और मांसपेशियों में अंकित है। यह उसके रक्त में भी कार्य करता है।

‘प्रदूषण’ का अर्थ पर्यावरण के किसी एक घटक या संपूर्ण पर्यावरण में होने वाला ऐसा परिवर्तन है जो कि मानव व अन्य प्राणियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। जब पर्यावरण में होने वाले परिवर्तन मानव तथा अन्य सजीवों व निर्जीवों को हानि पहुँचाने की स्थिति में पहुँच जाते हैं तो उसे हम प्रदूषण कहते हैं। मृदा (भूमि), जल एवं वायु भौतिक पर्यावरण के तीन प्रमुख घटक हैं। इनमें होने वाला असंतुलन जब जीवन-प्रक्रम चलाने में कठिनाई उत्पन्न करने लगता है तो उसे हम प्रदूषण कहते हैं। इसे निम्नांकित रूप में परिभाषित किया गया है –

1. अमेरिका के राष्ट्रपति की विज्ञान सलाहकार समिति (Science Advisory Committee to President of U.S.A) के अनुसार – “पर्यावरणीय प्रदूषण मनुष्यों की गतिविधियों द्वारा ऊर्जा स्वरूपों, विकिरण स्तरों, रासायनिक तथा भौतिक संगठनों और जीवों की संख्या में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किए जाने वाले परिवर्तन के परिणामस्वरूप उत्पन्न उप-उत्पाद हैं जो हमारे परिवेश में पूर्ण अथवा अधिकतम प्रतिकूल परिवर्तन उत्पन्न करता है।”

2. अमेरिका की राष्ट्रीय विज्ञान सलाहकार अकादमी (Environmental Committee of Science Advisory Forum of U.S.A) के अनुसार – “चूंकि पृथ्वी अधिक भीड़ युक्त हो रही है अत: प्रदूषण से बचने का कोई रास्ता नहीं है। एक व्यक्ति का कूड़ादान दूसरे व्यक्ति का निवास स्थल है।’

3. ओडम (Odum) के अनुसार – “प्रदूषण हमारी हवा, मृदा एवं जल के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक लक्षणों में अवांछनीय परिवर्तन है जो मानव जीवन तथा अन्य जीवों, हमारी औद्योगिक प्रक्रिया, जीवन दशाओं तथा सांस्कृतिक विरासतों को हानिकारक रूप में प्रभावित करता है अथवा प्रभावित करेगा ‘अथवा जो कच्चे पदार्थों के स्रोतों (संसाधनों) को नष्ट कर सकता है या करेगा।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि पर्यावरणीय प्रदूषण हमारे पर्यावरण में होने वाला ऐसा रासायनिक, भौतिक या अन्य किसी प्रकार का परिवर्तन है जो मानव जीवन व अन्य प्राणियों के जीवन-प्रक्रम पर अवांछनीय या हानिकारक प्रभाव डालता है।

पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रकार

पारिस्थितिकीय विज्ञान के अनुसार, पृथ्वी को तीन प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है –

  1. स्थलमण्डल (Lithosphere),
  2. वायुमंडल (Atmosphere) तथा
  3. जलमंडल (Hydrosphere); अत: प्रदूषण मुख्यतः इन्हीं तीन क्षेत्रों में होता है। प्रदूषण के अन्य स्रोतों में हम उन स्रोतों को भी सम्मिलित करते हैं जो अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि, वैज्ञानिक आविष्कारों तथा रासायनिक व भौतिक परिवर्तनों के कारण विकसित होते हैं। इनमें
  4. ध्वनि (Sound) तथा
  5. रेडियोधर्मिता (Radioactivity) व तापीय (Thermal) स्रोत प्रमुख हैं। अत: पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रमुख प्रकार निम्नांकित हैं –

1. मृदीय प्रदूषण – मृदीय प्रदूषण का कारण मृदा में होने वाले अस्वाभाविक परिवर्तन हैं। प्रदूषित जल व वायु, उर्वरक, कीटाणुनाशक पदार्थ, अपतृणनाशी पदार्थ इत्यादि मृदा को भी प्रदूषित कर देते हैं। इसके काफी हानिकारक प्रभाव होते हैं तथा पौधों की वृद्धि रुक जाती है, कम हो जाती है अथवा उनकी मृत्यु होने लगती है। अगर मृदीय स्वरूप, मृदीय संगठन, मृदीय जल व वायु तथा मृदीय ताप में अस्वाभाविक परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाता है तो इसका जीव-जंतुओं पर अत्यंत हानिकारक प्रभाव होता है।

2. जल प्रदूषण – जल में निश्चित अनुपात में खनिज, कार्बनिक व अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसे घुली होती है। जब इसमें अन्य अनावश्यक व हानिकारक पदार्थ घुल जाते हैं तो जल प्रदूषित हो जाता है। कूड़ा-करकट, मल-मूत्र आदि का नदियों में छोड़ा जाना, औद्योगिक अवशिष्टों एवं कृषि पदार्थों (कीटाणुनाशक पदार्थ, अपतृणनाशक पदार्थ व रासायनिक खादं आदि) से निकले अनावश्यक पदार्थ जल प्रदूषण पैदा करते हैं। साबुन तथा गैसों के वर्षा के जल में घुलकर अम्ल व अन्य लवण बनाने से भी जल प्रदूषित हो जाता है। भारत में जल प्रदूषण एक प्रमुख समस्या है।

3. वायु प्रदूषण – वायु में गैसों की अनावश्यक वृद्धि (केवल ऑक्सीजन को छोड़कर) या उसके भौतिक व रासायनिक घटकों में परिवर्तन वायु प्रदूषण उत्पन्न करता है। मोटर गाड़ियों से निकलने वाला धुआँ, कुछ कारखानों से निकलने वाला धुआँ तथा वनों व वृक्षों के कटाव से वायु में ऑक्सीजन, नाइट्रोजन व कार्बन डाइऑक्साइड का संतुलन बिगड़ जाता है तथा यह मनुष्यों व अन्य जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव डालने लगता है। दहन, औद्योगिक अवशिष्ट, धातुकर्मी प्रक्रियाएँ, कृषि रसायन, वनों व वृक्षों का काटा जाना, परमाणु ऊर्जा, मृत पदार्थ तथा जनसंख्या विस्फोट इत्यादि वायु प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं। जनसंख्या विस्फोट सबसे मुख्य कारण है। क्योंकि मानव ने अपने रहने तथा उद्योग का निर्माण करने के लिए ही तो वनों को काटा और इसी कारण वायु प्रदूषण बढ़ा है।

4. ध्वनि प्रदूषण – तीखी ध्वनि या आवाज से ध्वनि प्रदूषण पैदा होता है। विभिन्न प्रकार के यंत्रों, वाहनों, मशीनों, जहाजों, रॉकेटों, रेडियो व टेलीविजन, पटाखों, लाउडस्पीकरों के प्रयोग से ध्वनि प्रदूषण विकसित होता है। ध्वनि प्रदूषण प्रत्येक वर्ष दोगुना होता जा रहा है। ध्वनि प्रदूषण से सुनने की क्षमता का ह्रास होता है, रुधिर ताप बढ़ जाता है, हृदय रोग की आशंका बढ़ जाती है तथा तंत्रिका तंत्र संबंधी रोग हो सकते हैं। कुछ विशेष प्रकार की ध्वनियाँ सूक्ष्म जीवों को नष्ट . कर देती है, जिससे जैव अपघटन क्रिया में बांधा उत्पन्न होती है।

5. रेडियोधर्मी व तापीय प्रदूषण – रेडियोधर्मी पदार्थ पर्यावरण में विभिन्न प्रकार के कण और किरणें उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार, तापीय प्रक्रमों से भी कण निकलते हैं। ये कण व किरणे जल, वायु तथा मिट्टी में मिलकर प्रदूषण पैदा करते हैं। इस प्रकार के प्रदूषण से कैंसर, ल्यूकेमिया इत्यादि भयानक रोग उत्पन्न होते हैं तथा मनुष्यों में रोग अवरोधक शक्ति कम हो जाती है। बच्चों पर इस प्रकार के प्रदूषण का अधिक प्रभाव प्रड़ता है। नाभिकीय विस्फोट, आणविक ऊर्जा संयंत्र, परमाणु भट्टियाँ, हाइड्रोजन बम, न्यूट्रॉन व लेसर बम आदि इस प्रकार के प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं।

पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रमुख कारण

वैसे तो प्रदूषण अनेक प्रकार का होता है तथा प्रत्येक प्रकार के प्रदूषण के कुछ विशिष्ट कारण हैं, फिर भी पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले अनेक सामान्य कारणों में से प्रमुख कारण अग्रलिखित हैं –

1. कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा – वायुमंडल में प्रमुखतः नाइट्रोजन, ऑक्सीजन तथा कार्बन डाई-ऑक्साइड गैसों का संतुलित अनुपात होता है; किंतु मानव द्वारा विभिन्न प्रकार से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ाई जा रही है। अनुमानतः गत 100 वर्षों में केवल मनुष्य ने ही वायुमण्डल में 36 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ी है। कल-कारखानों, यातायात के साधनों, ईंधन (Fuel) के जलाने आदि से यह कार्य हो रहा है। इस गैस का अनुपात बढ़ने से दोहरी हानि होने की आशंका है—एक तो यह स्वयं हानिकारक है। और दूसरे ऑक्सीजन जैसी प्राणदायक वायु का अनुपात कम होने का खतरा है।

2. घरेलू अपमार्जकों का प्रयोग – घर, फर्नीचर, बर्तन इत्यादि की सफाई के लिए प्रयोग किए जाने वाले तथा कुछ छोटे जीवों; जैसे-मक्खी, मच्छर, खटमल, कॉकरोच, दीमक, चूहे आदि को नष्ट करने के लिए उपयोग में आने वाले पदार्थों; जैसे साबुन, सोडा, विम, पेट्रोलियम उत्पाद, फैटी अम्ल, डी०डी०टी०, गैमेक्सीन, फिनायल आदि को प्रयोग करने के बाद नालियों इत्यादि के द्वारा नदियों, झीलों आदि के जल में मिला दिया जाता है। ये पदार्थ यदि विघटित नहीं होते हैं तो खाद्य श्रृंखलाओं में चले जाते हैं और विषाक्त रूप से प्रदूषण का कारण बन जाते हैं।

3. वाहित मल का नदियों में गिराया जाना – घरों, कारखानों इत्यादि स्थानों से अपमार्जक पदार्थों | (विषैली दवाएँ, मिट्टी का तेल, शैंपू इत्यादि) को बड़े-बड़े शहरों में नालों द्वारा बहाकर करके नदियों, झीलों या समुद्र में डाल दिया जाता है जो जल को प्रदूषित करते हैं। इन पदार्थों के विघटन से फीनोल, क्रोमेट, क्लोरीन, अमोनिया, सायनाइड्स (Cyanides) आदि उत्पन्न होते हैं। जो जल के पारिस्थितिक तंत्र के लिए तरह-तरह से हानिकारक सिद्ध होते हैं।

4. उद्योगों से अपशिष्ट रासायनिक पदार्थों का निकास – विभिन्न प्रकार के उद्योगों से, जिनकी संख्या सभ्यता के साथ-साथ बढ़ रही है, धुआँ इत्यादि के साथ अनेक प्रकार के रासायनिक पदार्थ (जैसे- विभिन्न गैसे, धातु के कण, रेडियोऐक्टिव पदार्थ इत्यादि) अपशिष्ट के रूप में निकलते हैं जो वाहित जलं की तरह जल तथा वायुमंडल को प्रदूषित करते हैं।

5. स्वतः चलित निर्वातक – विभिन्न प्रकार के स्वत:चलित यातायात वाहनों; जैसे-मोटर, रेलगाड़ी, जहाज, वायुयान आदि में कोयला, पेट्रोल, डीजल इत्यादि पदार्थों के जलने से अनेक प्रकार की विषैली गैसें वातावरण में आ जाती हैं। सल्फर डाइऑक्साइड (SO2), कार्बन डाइ-ऑक्साइड (CO2), कार्बन मोनो-ऑक्साइड (CO), क्लोरीन (CI), नाइट्रोजन ऑक्साइड (NO), हाइड्रोजन फ्लोराइड (HF), फॉस्फोरस पेंटा-ऑक्साइड (P2O5), हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S), अमोनिया (NH3) आदि हानिकारक गैसें इसी प्रकार वातावरण में बढ़ती जाती हैं।

6. रेडियोधर्मी पदार्थ – परमाणु बमों के विस्फोट तथा इसी प्रकार के अन्य परीक्षणों से रेडियोऐक्टिव पदार्थ वातावरण में आकर अनेक प्रकार से प्रदूषण उत्पन्न करते हैं। यहाँ से ये पौधों में, जंतुओं के दूध व मांस में और फिर मनुष्य के शरीर में पहुँच जाते हैं। ये अनेक प्रकार के रोग; विशेषकर कैंसर तथा आनुवंशिक रोग उत्पन्न करते हैं। इनके प्रभाव से, जीन्स (Genes) का उत्परिवर्तन (Mutation) हो जाने से संततियाँ भी रोगग्रस्त या अपंग पैदा होती हैं।

7. कीटाणुनाशक एवं अपतृणनाशक पदार्थ – विभिन्न प्रकार के अवांछनीय जीवों एवं खरपतवारों को नष्ट करने के लिए अनेक प्रकार के रासायनिक पदार्थ काम में लाए जाते हैं। इनमें से कुछ पदार्थ हैं- डी०डी०टी० (D.D.T.), मीथॉक्सीक्लोर, फीनॉल, पोटैशियम परमैंगनेट, चूना, गंधक चूर्ण, सल्फर डाइऑक्साइड, क्लोरीन, फॉर्मेल्डीहाइड, कपूर आदि। ये पदार्थ जिस प्रकार के जीवों को नष्ट करने के काम में लाए जाते हैं। उसी के अनुसार इनका नाम होता है।

ये पदार्थ अवांछित रूप से भूमि, वायु, जल आदि में एकत्रित होकर उन स्थानों को प्रदूषित कर देते हैं। वहाँ से ये पौधों, भोजन, फलों इत्यादि के द्वारा जंतुओं और मनुष्यों के शरीर में पहुँच जाते हैं। इनमें देर से अपघटित (Decompose) होने वाले पदार्थ अधिक, खतरनाक होते हैं। भूमि में इनके एकत्रित होने से ह्युमस बनाने वाले जीव नष्ट हो जाते हैं। अतः भूमि की उर्वरता भी कम हो जाती है। मनुष्यों के शरीर में पहुँचकर ये तरह-तरह की हानियाँ पहुँचाते हैं।

उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि, वनों से वृक्षों का काटा जाना, नाभिकीय ऊर्जा, मृत पदार्थों तथा युद्ध इत्यादि को भी पर्यावरणीय प्रदूषण का कारण माना गया है।

पर्यावरणीय प्रदूषण के सामाजिक प्रभाव

पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रमुख सामाजिक प्रभाव निम्नांकित हैं –

1. जीवन-प्रक्रम पर प्रभाव – प्रदूषण व्यक्तियों के जीवन-प्रक्रम तथा गतिविधियों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों से प्रभावित करता है। अत्यधिक प्रदूषण शारीरिक स्वास्थ्य तथा मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। बच्चों का विकास ठीक प्रकार से नहीं हो पाता तथा बीमारियों में वृद्धि हो जाती है।

2. रोगों में वृद्धि – प्रदूषण के परिणामस्वरूप रोगों में वृद्धि होती है तथा जन-स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ता है। पक्षाघात, पोलियो, मियादी बुखार, हैजा, डायरिया, क्षय रोग आदि अनेक बीमारियाँ विकसित हो जाती हैं। थकान व सिरदर्द भी काफी सीमा तक ध्वनि प्रदूषण का परिणाम है।

3. अपंगता में वृद्धि – प्रदूषण के बुरे प्रभाव से अपंगता में वृद्धि होती है। अनुसंधानों से ज्ञात हुआ है कि रेडियोधर्मी पदार्थों से उत्पन्न प्रदूषण का परिणाम अपंग संतान का उत्पन्न होना है। वैसे भी प्रदूषण के कारण, स्वस्थ शरीर में भी रोग निवारक क्षमता कम होती है। अपंगता से अप्रत्यक्ष रूप से अनेक सामाजिक समस्याएँ पैदा हो जाती हैं।

4. सामाजिक-आर्थिक समस्याओं में वृद्धि – प्रदूषण के कारण फसलें भी नष्ट हो जाती हैं। जलीय जीवों के मरने से खाद्य पदार्थों की हानि होती है। बड़ी संख्या में मछलियों आदि का मरना, बीमार होना आदि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होने के साथ-साथ अनेक आर्थिक समस्याएँ उत्पन्न कर देती है।

पर्यावरणीय प्रदूषण के निराकरण के उपाय

पर्यावरणीय प्रदूषण आज एक अत्यंत गंभीर समस्या है; अतः केंद्र तथा राज्य सरकारों ने प्रदूषण के नियंत्रण तथा पर्यावरण के संरक्षण के लिए अनेक उपाय किए हैं। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु केंद्र एवं राज्य सरकारों ने लगभग 30 कानून बनाए हैं। इनमें से प्रमुख कानून हैं- जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974; वायु (प्रदूषण और निवारण) अधिनियम, 1981; फैक्ट्री अधिनियम; कीटनाशक अधिनियम आदि। इन अधिनियमों के क्रियान्वयन का दायित्व केंद्रीय एवं राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, कारखानों के मुख्य निरीक्षक और कृषि विभागों के कीटनाशक निरीक्षकों पर है। पर्यावरण संरक्षण के संबंध में सरकारी प्रयासों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है –

1. पर्यावरण संगठनों का गठन – सबसे पहले चौथी योजना के प्रारंभ में सरकार का ध्यान पर्यावरण संबंधी समस्याओं की ओर आकर्षित हुआ। इस दृष्टि से सरकार ने सर्वप्रथम 1972 ई० में एक पर्यावरण समन्वय समिति का गठन किया। जनवरी 1980 ई० में एक अन्य समिति का गठन किया जिसे विभिन्न कानूनों तथा पर्यावरण को बढ़ावा देने वाले प्रशासनिक तंत्र की विवेचना करने और उन्हें सुदृढ़ करने हेतु सिफारिशें देने का कार्य सौंपा गया। इस समिति की सिफारिश पर 1980 ई० में पर्यावरण विभाग की स्थापना की गई। परिणामस्वरूप पर्यावरण के कार्यक्रमों के आयोजन, प्रोत्साहन और समन्वय के लिए 1985 ई० में ‘पर्यावरण और वन्य-जीवन मंत्रालय की स्थापना की गई।

2. पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986 – यह अधिनियम 19 नवम्बर,1986 ई० से लागू हो गया है। इस अधिनियम की कुछ महत्त्वपूर्ण बातें निम्नांकित हैं –
पर्यावरण की गुणवत्ता के संरक्षण के लिए सभी आवश्यक कदम उठाना,

  1. इससे केंद्र सरकार को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हो गए हैं –
    • पर्यावरण सुरक्षा से संबंधित अधिनियमों के अंतर्गत राज्य सरकारों, अधिकारियों और प्राधिकारियों के काम में समन्वय स्थापित करना,
    • पर्यावरणीय प्रदूषण के निवारण, नियंत्रण और उपशमन के लिए राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम की योजना बनाना और उसे क्रियान्वित करना,
    • पर्यावरणीय प्रदूषण के नि:सरण के लिए मानक निर्धारित करना,
    • किसी भी अधिकारी को प्रवेश, निरीक्षण, नमूना लेने और जाँच करने की शक्ति प्रदान करना,
    • पर्यावरणीय प्रयोगशालाओं की स्थापना करना या उन्हें मान्यता प्रदान करना,
    • सरकारी विश्लेषकों को नियुक्त करना या उन्हें मान्यता प्रदान करना,
    • पर्यावरण की गुणवत्ता के मानक निर्धारित करना,
    • दुर्घटनाओं की रोकथाम के लिए रक्षोपाय निर्धारित करना और दुर्घटनाएँ होने पर उपचारात्मक कदम उठाना,
    • खतरनाक पदार्थों के रखरखाव/सँभालने आदि की प्रक्रियाएँ और रक्षोपाय निर्धारित करना, तथा
    • कुछ ऐसे क्षेत्रों का परिसीमन करना जहाँ किसी भी उद्योग की स्थापना अथवा औद्योगिक गतिविधियाँ संचालित न की जा सकें।
  2. किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त है कि निर्धारित प्राधिकरणों को 60 दिन की सूचना देने के बाद इस अधिनियम के उपबंधों का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध न्यायालयों में शिकायत कर दे।
  3. अधिनियम के अंतर्गत किसी भी स्थान का प्रभारी व्यक्ति किसी दुर्घटना आदि के परिणामस्वरूप प्रदूषकों का रिसाव निर्धारित मानक से अधिक होने या अधिक रिसाव होने की आशंका पर उसकी सूचना निर्धारित प्राधिकरण को देने के लिए बाध्य होगा।
  4. अधिनियम का उल्लंघन करने वालों के लिए अधिनियम में कठोर दंड देने की व्यवस्था की गई है।
  5. इस अधिनियम के अंतर्गत आने वाले मामले दीवानी अदालतों के कार्यक्षेत्र में नहीं आते।

3. जल प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण बोर्ड – केंद्रीय जल प्रदूषण निवारण और नियंत्रण बोर्ड, जल और वायु प्रदूषण के मूल्यांकन, निगरानी और नियंत्रण की शीर्षस्थ संस्था है। जल (1974) और वायु (1981) प्रदूषण निवारण और नियंत्रण कानूनों तथा जल उपकर अधिनियम (1977) को लागू करने का उत्तरदायित्व बोर्ड पर और इन अधिनियमों के अंतर्गत राज्यों में गठित इसी प्रकार के बोर्डो पर है।

4. केंद्रीय गंगा प्राधिकरण – सरकार ने 1985 ई० में केंद्रीय गंगा प्राधिकरण की स्थापना की थी। गंगा सफाई कार्य-योजना का लक्ष्य नदी में बहने वाली मौजूदा गंदगी की निकासी करके उसे अन्य किन्हीं स्थानों पर एकत्र करना और उपयोगी ऊर्जा स्रोत में परिवर्तित करने का है। इस योजना में निम्नलिखित कार्य शामिल हैं –

  1. दूषित पदार्थों की निकासी हेतु बने नालों और नालियों का नवीनीकरण,
  2. अनुपयोगी पदार्थों तथा अन्य दूषित द्रव्यों को गंगा में जाने से रोकने के लिए नए रोधक नालों का निर्माण तथा वर्तमान पम्पिंग स्टेशनों और जल-मल सयंत्रों का नवीनीकरण,
  3. सामूहिक शौचालय बनाना, पुराने शौचालयों को फ्लश में बदलना, विद्युत शव दाह गृहे बनवाना तथा गंगा के घाटों का विकास करना, तथा
  4. जल-मल प्रबंध योजना का आधुनिकीकरण।

5. अन्य योजनाएँ – पर्यावरणीय प्रदूषण के निराकरण हेतु जो योजनाएँ बनाई गईं, उनमें से प्रमुख योजनाएँ इस प्रकार हैं –

  1. राष्ट्रीय पारिस्थितिकी बोर्ड (1981) की स्थापना,
  2. विभिन्न राज्यों में जीव-मंडल भंडारों की स्थापना,
  3. सिंचाई भूमि स्थलों के लिए राज्यवार नोडल एकेडेमिक रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना,
  4. राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड (1985) की स्थापना,
  5. वन नीति में संशोधन,
  6. राष्ट्रीय वन्य जीवन कार्य योजनाओं का आरंभ,
  7. अनुसंधान कार्यों के लिए निरंतर प्रोत्साहन,
  8. अंतर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना, तथा
  9. प्रदूषण निवारण पुरस्कारों की घोषणा।

प्रदूषण के निराकरण हेतु सरकार द्वारा उठाए गए कदमों में समाज के व्यक्तियों के साथ की कमी रही। है। इस कारण इन उपायों के उचित परिणाम अभी हमारे सामने नहीं आए हैं। जल, वायु तथा मृदा प्रदूषण के निराकरण हेतु एक ओर जहाँ संतुलित औद्योगिक विकास को बनाए रखा जाना आवश्यक है। तो दूसरी ओर जनसंख्या विस्फोट जैसे सामाजिक कारकों पर नियंत्रण रखना भी जरूरी है। हमारे समाज में बढ़ते हुए ध्वनि प्रदूषण को रोकने हेतु तथा वनों और वृक्षों को काटने से रोकने के लिए भी अधिक कठोर कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 3 Environment and Society (पर्यावरण और समाज) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 3 Environment and Society (पर्यावरण और समाज), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.