UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi उपयोगितापरक निबन्ध
उपयोगितापरक निबन्ध
मानव-जीवन में वनों की उपयोगिता
सम्बद्ध शीर्षक
- भारत की वन-सम्पदा और पर्यावरण
- वन-संरक्षण की आवश्यकता
- वन-संरक्षण का महत्त्व
- मनुष्य और वृक्ष : पारस्परिक सम्बन्ध
- वन महोत्सव की उपादेयता
- वृक्ष हमारे जीवन-साथी
- वन-सम्पदा और स्वास्थ्य
प्रमुख विचार-बिन्दु
- प्रस्तावना,
- वनों का प्रत्यक्ष योगदान
(क) मनोरंजन का साधन;
(ख) लकड़ी की प्राप्ति;
(ग) विभिन्न उद्योगों के लिए कच्चे माल की पूर्ति;
(घ) प्रचुर फलों की प्राप्ति;
(ङ) जीवनोपयोगी जड़ी-बूटियां;
(च) वन्य पशु-पक्षियों को संरक्षण;
(छ) बहुमूल्य वस्तुओं की प्राप्ति;
(ज) आध्यात्मिक लाभ, - वनों का अप्रत्यक्ष योगदान
(क) वर्षा;
(ख) पर्यावरण सन्तुलन (शुद्धीकरण);
(ग) जलवायु पर नियन्त्रण;
(घ) जल के स्तर में वृद्धि;
(ङ) भूमि – कटाव पर रोक;
(च) रेगिस्तान के प्रसार पर रोक;
(छ) बाढ़ – नियन्त्रण में सहायक, - भारतीय वन – सम्पदा के लिए उत्पन्न समस्याएँ,
- वनों के विकास के लिए सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास,
- उपसंहार
प्रस्तावना – वन मानव-जीवन के लिए बहुत उपयोगी हैं, किन्तु सामान्य व्यक्ति इसके महत्त्व को नहीं समझ पा रहा है। जो व्यक्ति वनों में रहते हैं या जिनकी जीविका वनों पर आश्रित है, वे तो वनों के महत्त्व को समझते हैं, लेकिन जो लोग वनों में नहीं रह रहे हैं वे तो इन्हें प्राकृतिक शोभा का साधन ही मानते हैं। पर वनों का मनुष्यों के जीवन से कितना गहरा सम्बन्ध है, इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों में उसका योगदान क्रमिक रूप से द्रष्टव्य है।
वनों का प्रत्यक्ष योगदान
(क) मनोरंजन का साधन – वन, मानव को सैर-सपाटे के लिए रमणीक क्षेत्र प्रस्तुत करते हैं। वृक्षों के अभाव में पर्यावरण शुष्क हो जाता है और सौन्दर्य नष्ट हो जाता है। वृक्ष स्वयं सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं। ग्रीष्मकाल में बहुत बड़ी संख्या में लोग पर्वतीय-क्षेत्रों की यात्रा करके इस प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेते हैं।
(ख) लकड़ी की प्राप्ति – वनों से हम अनेक प्रकार की बहुमूल्य लकड़ियाँ प्राप्त करते हैं। ये लकड़ियाँ हमारे अनेक प्रयोगों में आती हैं। इन्हें ईंधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। ये लकड़ियाँ व्यापारिक दृष्टिकोण से भी बहुत उपयोगी होती हैं, जिनमें साल, सागौन, देवदार, चीड़, शीशम, चन्दन, आबनूस आदि की लकड़ियाँ मुख्य हैं। इनका प्रयोग फर्नीचर, इमारती सामान, माचिस, रेल के डिब्बे, स्लीपर, जहाज आदि बनाने के लिए किया जाता है।
(ग) विभिन्न उद्योगों के लिए कच्चे माल की पूर्ति – वनों से लकड़ी के अतिरिक्त अनेक उपयोगी सहायक वस्तुओं की प्राप्ति होती है, जिनका अनेक उद्योगों में कच्चे माल के रूप में उपयोग किया जाता है। इनमें गोंद, शहद, जड़ी-बूटियाँ, कत्था, लाख, चमड़ा, बाँस, बेंत, जानवरों के सींग आदि मुख्य हैं। इनका कागज उद्योग, चमड़ा उद्योग, फर्नीचर उद्योग, दियासलाई उद्योग, टिम्बर उद्योग, औषध उद्योग आदि में कच्चे माल के रूप में उपयोग किया जाता है।
(घ) प्रचुर फलों की प्राप्ति – वन प्रचुर मात्रा में फलों को प्रस्तुत करके मानव का पोषण करते हैं। ये फल अनेक बहुमूल्य खनिज लवणों व विटामिनों का स्रोत हैं।
(ङ) जीवनोपयोगी जड़ी-बूटियाँ – वन अनेक जीवनोपयोगी जड़ी-बूटियों के भण्डार हैं। वनों में ऐसी अनेक वनस्पतियाँ पायी जाती हैं, जिनसे अनेक असाध्य रोगों का निदान सम्भव हो सका है। विजयसार की लकड़ी मधुमेह की अचूक औषध है। लगभग सभी आयुर्वेदिक ओषधियाँ वृक्षों से ही विविध तत्त्वों को एकत्र कर बनायी जाती हैं।
(च) वन्य पशु-पक्षियों को संरक्षण – वन्य पशु-पक्षियों की सौन्दर्य की दृष्टि से अपनी उपयोगिता है। वन अनेक वन्य पशु-पक्षियों को संरक्षण प्रदान करते हैं। वे हिरन, नीलगाय, गीदड़, रीछ, शेर, चीता, हाथी आदि वन्य पशुओं की क्रीड़ास्थली हैं। ये पशु वनों में स्वतन्त्र विचरण करते हैं, भोजन प्राप्त करते हैं और संरक्षण पाते हैं। गाय, भैंस, बकरी, भेड़ आदि पालतू पशुओं के लिए भी वन विशाल चरागाह प्रदान करते हैं।
(छ) बहुमूल्य वस्तुओं की प्राप्ति – वनों से हमें अनेक बहुमूल्य वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। हाथी दाँत, मृग-कस्तूरी, मृग-छाल, शेर की खाल, गैंडे के सींग आदि बहुमूल्य वस्तुएँ वनों की ही देन हैं। वनों से प्राप्त कुछ वनस्पतियों से तो सोना और चाँदी भी निकाले जाते हैं। तेलियाकन्द’ नामक वनस्पति से प्रचुर मात्रा में स्वर्ण प्राप्त होता है।
(ज) आध्यात्मिक लाभ – भौतिक जीवन के अतिरिक्त मानसिक एवं आध्यात्मिक पक्ष में भी वनों का महत्त्व कुछ कम नहीं है। सांसारिक जीवन से क्लान्त मनुष्य यदि वनों में कुछ समय निवास करते हैं तो उन्हें सन्तोष तथा मानसिक शान्ति प्राप्त होती है। इसीलिए हमारी प्राचीन संस्कृति में ऋषि-मुनि वनों में ही निवास करते थे। इस प्रकार हमें वनों का प्रत्यक्ष योगदान देखने को मिलता है, जिनसे सरकार को राजस्व और वनों के ठेकों के रूप में करोड़ों रुपये की आय होती है। साथ ही सरकार चन्दन के तेल, उसकी लकड़ी से बनी कलात्मक वस्तुओं, हाथी दाँत की बनी वस्तुओं, फर्नीचर, लाख, तारपीन के तेल आदि के निर्यात से प्रति वर्ष करोड़ों रुपये की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा अर्जित करती है।
वनों का अप्रत्यक्ष योगदान
(क) वर्षा – भारत एक कृषिप्रधान देश है। सिंचाई के अपर्याप्त साधनों के कारण यह अधिकांशतः मानसून पर निर्भर रहता है। कृषि की मानसून पर निर्भरता की दृष्टि से वनों का बहुत महत्त्व है। वन वर्षा में सहायता करते हैं। इन्हें वर्षा का संचालक कहा जाता है। इस प्रकार वनों से वर्षा होती है और वर्षा से वन बढ़ते हैं।
(ख) पर्यावरण सन्तुलन (शुद्धीकरण) – वन-वृक्ष वातावरण से दूषित-वायु (कार्बन डाइऑक्साइड) ग्रहण करके अपना भोजन बनाते हैं और ऑक्सीजन छोड़कर पर्यावरण को शुद्ध बनाये रखने में सहायक होते हैं। इस प्रकार वन पर्यावरण में सन्तुलन बनाये रखने में सहायक होते हैं।
(ग) जलवायु पर नियन्त्रण – वनों से वातावरण का तापक्रम, नमी और वायु प्रवाह नियन्त्रित होता है, जिससे जलवायु में सन्तुलन बना रहता है। वन जलवायु की भीषण उष्णता को सामान्य बनाये रखते हैं। ये आँधी-तूफानों से हमारी रक्षा करते हैं। ये सारे देश की जलवायु को प्रभावित करते हैं तथा गर्म व तेज हवाओं को रोककर देश की जलवायु को समशीतोष्ण बनाये रखते हैं।
(घ) जल के स्तर में वृद्धि – वने वृक्षों की जड़ों के द्वारा वर्षा के जल को सोखकर भूमि के नीचे के जल-स्तर को बढ़ाते रहते हैं। इससे दूर-दूर तक के क्षेत्र हरे-भरे रहते हैं। साथ ही कुओं आदि में जल का स्तर घटने नहीं पाता है। पहाड़ों पर बहते चश्मे वनों की पर्याप्तता के ही परिणाम हैं। वनों से नदियों के सतत प्रवाहित होते रहने में भी सहायता मिलती है।
(ङ) भूमि-कटाव पर रोक – वनों के कारण वर्षा का जल मन्द गति से प्रवाहित होता है; अत: भूमि का कटाव कम होता है। वर्षा के अतिरिक्त जल को वन सोख लेते हैं और नदियों के प्रवाह को नियन्त्रित करके भूमि के कटाव को रोकते हैं, जिसके फलस्वरूप भूमि ऊबड़-खाबड़ नहीं हो पाती तथा मिट्टी की उर्वरा-शक्ति भी बनी रहती है।
(च) रेगिस्तान के प्रसार पर रोक – वन तेज आँधियों को रोकते हैं तथा वर्षा को आकर्षित भी करते हैं, जिससे मिट्टी के कण उनकी जड़ों में बँध जाते हैं। इससे रेगिस्तान का प्रसार नहीं होने पाता।
(छ) बाढ़-नियन्त्रण में सहायक – वृक्ष की जड़े वर्षा के अतिरिक्त जल को सोख लेती हैं, जिनके कारण नदियों का जल-प्रवाह नियन्त्रित रहता है। इससे बाढ़ की स्थिति में बचाव हो जाता है।
वनों को हरा सोना इसीलिए कहा जाता है क्योंकि इन जैसा मूल्यवान, हितैषी व शोभाकारक मनुष्य के लिए कोई और नहीं। आज भी सन्तप्त मनुष्य वृक्ष के नीचे पहुँचकर राहत का अनुभव करता है। सात्विक भावनाओं के ये सन्देशवाहक प्रकृति का सर्वाधिक प्रेमपूर्ण उपहार हैं। स्वार्थी मनुष्य ने इनसे निरन्तरे दुर्व्यवहार किया है, जिसको प्रतिफल है- भयंकर उष्णता, श्वास सम्बन्धी रोग, हिंसात्मक वृत्तियों का विस्फोट आदि।
भारतीय वन-सम्पदा के लिए उत्पन्न समस्याएँ – वनों के योगदान से स्पष्ट है कि वन हमारे जीवन में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूप से बहुत उपयोगी हैं। वनों में अपार सम्पदा पायी जाती है, किन्तु जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती गयी, वनों को मनुष्य के प्रयोग के लिए काटा जाने लगा। अनेक अद्भुत और घने वन आज समाप्त हो गये हैं और हमारी वन-सम्पदा का एक बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया है। वन-सम्पदा के इस संकट ने व्यक्ति और सरकार को वन संरक्षण की ओर सोचने पर विवश कर दिया है। यह निश्चित है कि वनों के संरक्षण के बिना मानव-जीवन दूभर हो जाएगा। आज हमारे देश में वनों का क्षेत्रफल केवल 22.7 प्रतिशत ही रह गया है, जो कम-से-कम एक-तिहाई होना चाहिए था। वनों के असमान वितरण, वनों के पर्याप्त दोहन, नगरीकरण से वनों की समाप्ति, ईंधन व इमारती सामान के लिए वनों की अन्धाधुन्ध कटाई ने भारतीय वन-सम्पदा के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं।
वनों के विकास के लिए सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास – सरकार ने वनों के महत्त्व को दृष्टिगत रखते हुए समय-समय पर वनों के संरक्षण और विकास के लिए अनेक कदम उठाये हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण अग्रवत् है
- सन् 1956 ई० में वन महोत्सव का आयोजन किया गया, जिसका मुख्य नारा था-‘अधिक वृक्ष लगाओ।’ तभी से यह उत्सव प्रति वर्ष 1 से 7 जुलाई तक मनाया जाता है।
- सन् 1965 ई० में सरकार ने केन्द्रीय वन आयोग की स्थापना की, जो वनों से सम्बन्धित आँकड़े और सूचनाएँ एकत्रित करके वनों के विकास में लगी हुई संस्थाओं के कार्य में ताल-मेल बैठाता है।
- वनों के विकास के लिए देहरादून में ‘वन अनुसन्धान संस्थान (Forest Research Institute) की स्थापना की गयी, जिसमें वनों के सम्बन्ध में अनुसन्धान किये जाते हैं और वन अधिकारियों को प्रशिक्षित किया जाता है।
- विभिन्न राज्यों में वन निगमों की रचना की गयी है, जिससे वनों की अनियन्त्रित कटाई को रोका जा सके। व्यक्तिगत स्तर पर भी अनेक आन्दोलनों का संचालन करके समाज-सेवियों द्वारा समय-समय पर सरकार को वनों के संरक्षण और विकास के लिए सचेत किया जाता रहा है। इनमें चिपको आन्दोलन प्रमुख रहा है, जिसका श्री सुन्दरलाल बहुगुणा ने सफल नेतृत्व किया।
उपसंहार – नि:सन्देह वन हमारे जीवन के लिए बहुत उपयोगी हैं। इसलिए वनों का संरक्षण और संवर्द्धन बहुत आवश्यक है। इसके लिए जनता और सरकार का सहयोग अपेक्षित है। बड़े खेद का विषय है कि एक ओर तो सरकार वनों के संवर्द्धन के लिए विभिन्न आयोगों और निगमों की स्थापना कर रही है तो दूसरी ओर वह कुछ स्वार्थी तत्त्वों के हाथों में खेलकर केवल धन के लाभ की आशा से अमूल्य वनों को नष्ट भी कराती जा रही है। आज मध्य प्रदेश में केवल 18% वन रह गये हैं, जो कि पहले एक-तिहाई हुआ करते थे। इसलिए आवश्यकता है कि सरकार वन-संरक्षण नियमों को कड़ाई से पालन कराकर भावी प्राकृतिक विपदाओं से रक्षा करे। इसके लिए सरकार के साथ-साथ सामान्य जनता का सहयोग भी अपेक्षित है। इसके लिए यदि प्रत्येक व्यक्ति वर्ष में एक बार एक वृक्ष लगाने और उसका भली प्रकार संरक्षण करने का संकल्प लेकर उसे क्रियान्वित भी करे तो यह राष्ट्र के लिए आगे आने वाले कुछ एक वर्षों में अमूल्य योगदान हो सकता है।