UP Board Solutions for Class 10 Home Science Chapter 11 सामान्य संक्रामक रोगों का परिचय
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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1:
संक्रामक रोग किसे कहते हैं? संक्रामक रोग किस प्रकार से फैलते हैं? इनसे बचाव के उपायों का वर्णन कीजिए।
या
संक्रामक रोग किसे कहते हैं? कुछ संक्रामक रोगों के नाम लिखिए। [2009, 10, 13, 15, 17, 18]
या
छूत के रोग (संक्रामक रोग) कैसे फैलते हैं। किन्हीं तीन छूत के रोगों के नाम लिखिए। इन्हें फैलने से कैसे रोका जा सकता है?
या
संक्रामक रोग क्या हैं? दो संक्रामक रोगों के लक्षण एवं उपचार बताइए। [2008]
या
वायु द्वारा रोग कैसे फैलते हैं? वर्णन कीजिए। [2013, 15]
या
संक्रामक रोग किन-किन माध्यमों से फैलते हैं? [2007, 09, 11, 15]
या
संक्रामक रोगों की रोकथाम के मुख्य उपाय लिखिए। [2015]
उत्तर:
संक्रामक रोग का अर्थ
रोग अनेक प्रकार के होते हैं। कुछ रोग शरीर के विभिन्न अंगों के सही कार्य न करने के कारण उत्पन्न होते हैं तथा कुछ रोग पोषक तत्वों के अभाव के कारण हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य विशेष प्रकार के रोग भी होते हैं जो विभिन्न प्रकार के बैक्टीरिया या रोग के जीवाणुओं द्वारा ही पनपते हैं। ऐसे रोग एक व्यक्ति अथवा प्राणी से दूसरे व्यक्ति या प्राणी को लग जाते हैं। इस प्रकार के रोगों को संक्रामक रोग (Infectious diseases) कहा जाता है। इस प्रकार वे रोग जो जीवाणुओं के माध्यम से एक व्यक्ति अथवा प्राणी से दूसरे व्यक्ति अथवा प्राणी को लग जाते हैं, संक्रामक रोग कहलाते हैं। साधारण बोलचाल की भाषा में इन रोगों को छूत के रोग भी कहा जाता है। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक इस प्रकार के रोगों के फैलने को रोग का संक्रमण कहा जाता है।
संक्रामक रोगों को फैलाने के माध्यम
संक्रामक रोग बड़ी तेजी से व्यापक क्षेत्र में फैल जाते हैं। वास्तव में संक्रामक रोगों को उत्पन्न करने वाले रोगाणु या जीवाणु विभिन्न माध्यमों द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक फैल जाते हैं। संक्रामक रोग मुख्य रूप से निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा फैलते हैं|
(1) वायु द्वारा:
धूल के कणों के साथ-साथ वायु रोगाणुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाती रहती है। इसके अतिरिक्त अनेक रोगाणु व बीजाणु एक लम्बी अवधि तक वायु में निलम्बित रहते हैं। इस प्रकार की अशुद्ध वायु में साँस लेने से अनेक रोग हो जाते हैं। वायु द्वारा फैलने वाले रोग हैं- चेचक, इन्फ्लुएन्जा, खसरा, काली खाँसी, क्षय रोग इत्यादि।
(2) भोजन तथा जल द्वारा:
जल में संक्रमित होने से, मक्खियों व अन्य कीट-पतंगों द्वारा रोगाणु जल तथा भोजन में पहुँचकर पनप जाते हैं। रोगाणुयुक्त भोजन अथवा जल का सेवन करने से अनेक प्रकार के संक्रामक रोग फैलते हैं। उदाहरण-हैजा, मोतीझरा, पेचिश, अतिसार आदि।
(3) सम्पर्क द्वारा:
कुछ संक्रामक रोग एवं उनके रोगाणु प्रत्यक्ष सम्पर्क द्वारा भी फैलते हैं। जब कोई स्वस्थ व्यक्ति किसी रोगी व्यक्ति के सीधे सम्पर्क में आता है तो रोग के कीटाणु स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में भी प्रवेश कर जाते हैं। सामान्य रूप से त्वचा सम्बन्धी रोग सम्पर्क द्वारा ही फैलते हैं। दाद, खारिश, खुजली तथा एग्जीमा रोग सम्पर्क द्वारा ही फैलते हैं। वर्तमान समय में एड्स तथा हेपेटाइटिस ‘बी’ जैसे गम्भीर एवं घातक रोग भी प्रत्यक्ष सम्पर्क द्वारा ही फैल रहे हैं।
(4) रक्त द्वारा या कीड़ों के काटने के द्वारा:
कुछ संक्रामक रोगों के कीटाणु व्यक्ति के शरीर में सीधे रक्त में प्रवेश करके पहुँचते हैं। ये कीटाणु विभिन्न प्रकार के मच्छरों, पिस्सुओं, मक्खियों अथवा पशुओं के माध्यम से फैलते हैं। सामान्य रूप से ये कीट या मच्छर आदि किसी रोगी व्यक्ति के शरीर का खून चूसते हैं। इस स्थिति में रोग के कीटाणु इनके शरीर में पहुँच जाते हैं। इसके उपरान्त ये कीट जब किसी स्वस्थ व्यक्ति को काटते हैं, तो इनके शरीर से सम्बन्धित रोग के कीटाणु स्वस्थ व्यक्ति के रक्त में पहुँच जाते हैं तथा वहाँ पहुँचकर बड़ी तेजी से बढ़ने लगते हैं तथा व्यक्ति रोग का शिकार हो जाता है। मलेरिया, डेंगू, प्लेग तथा पीत-ज्वर इसी प्रकार से फैलने वाले रोग हैं। इनसे भिन्न हाइड्रोफोबिया नामक भयंकर रोग कुत्ते आदि पशुओं द्वारा काटे जाने पर रक्त में रोगाणु मिल जाने से ही उत्पन्न होता है।
बचाव के उपाय:
संक्रामक रोगों को फैलने से रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाए जाने चाहिए
- संक्रांमक रोग से ग्रसित रोगियों को अविलम्ब अस्पताल में ले जाना चाहिए और यदि यह सम्भव न हो, तो उन्हें अन्य व्यक्तियों से पृथक् किसी स्वच्छ कमरे में रखना चाहिए।
- रोग परिचर्या से सम्बन्धित व्यक्तियों को रोग प्रतिरोधक टीके आवश्यक रूप से तत्काल लगवाने चाहिए।
- आवासीय स्थानों पर मक्खियों, मच्छरों एवं अन्य कीटों को समय-समय पर नष्ट करने के उपाय करते रहना चाहिए।
- ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में रोगाणुमुक्त पेय जल की उपयुक्त व्यवस्था होनी चाहिए।
- राष्ट्रीय स्तर पर रोग-प्रतिरोधक टीकों की व्यवस्था की जानी चाहिए तथा जन-सामान्य में इसके प्रति अभिरुचि जाग्रत करने के प्रयास किए जाने चाहिए।
- संक्रामक रोग के फैलने की सूचना तुरन्त निकटतम स्वास्थ्य अधिकारी को दी जानी चाहिए।
- विभिन्न उपायों द्वारा रोगाणुनाशन का कार्य यथासम्भव व्यापक स्तर पर किया जाना चाहिए।
- सभी बच्चों को विभिन्न संक्रामक रोगों से बचाव के सभी टीके निर्धारित समय पर अवश्य लगवाए जाने चाहिए।
प्रश्न 2:
चेचक (Smallpox) नामक संक्रामक रोग के लक्षणों, फैलने के कारणों, बचाव के उपायों एवं उपचार का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए। [2011]
या
चेचक रोग के कारण, लक्षण और बचाव के उपाय लिखिए। [2011, 13, 15]
उत्तर:
चेचक
संक्रामक रोगों में चेचक एक अत्यधिक भयंकर एवं घातक रोग है। अब से कुछ वर्ष पूर्व तक भारतवर्ष में इस संक्रामक रोग को काफी अधिक प्रकोप रहता था। प्रतिवर्ष लाखों व्यक्ति इस रोग से पीड़ित हुआ करते थे तथा हजारों की मृत्यु हो जाती थी, परन्तु अब सरकार के व्यवस्थित प्रयास से हमारे देश में चेचक पर काफी हद तक नियन्त्रण पा लिया गया है। चेचक को जड़ से ही समाप्त करना हमारा उद्देश्य है। चेचक को स्थानीय बोलचाल की भाषा में बड़ी माता भी कहा जाता है।
लक्षण:
- शरीर में चेचक के रोगाणु सक्रिय होते ही व्यक्ति को तेज ज्वर होता है। सारे शरीर में पीड़ा होती है तथा नाक से पानी बहने लगता है।
- इस काल में ही कभी-कभी जी मिचलाने लगता है और उल्टी भी आ जाती है।
- चेचक के लक्षण प्रकट होते ही आँखें लाल हो जाती हैं तथा बहुत अधिक बेचैनी अनुभव की जाती है।
- इसके बाद चेचक के दाने निकलने लगते हैं। सबसे पहले चेहरे पर लाल रंग के दाने दिखाई देते हैं। धीरे-धीरे ये दाने हाथ-पाँव, पेट तथा सारे ही शरीर पर निकल आते हैं।
- चेचक के दाने प्रारम्भ में लाल रंग के होते हैं। धीरे-धीरे ये फूलने लगते हैं तथा इनमें एक प्रकार का तरल पदार्थ भर जाता है जो धीरे-धीरे मवाद में बदल जाता है। दानों का यह भयंकर प्रकोप लगभग एक सप्ताह तक रहता है।
- एक सप्ताह बाद चेचक का प्रकोप घटने लगता है, ज्वर भी घट जाता है तथा दाने धीरे-धीरे सूखने लगते हैं, परन्तु शरीर में असह्य पीड़ा, खुजलाहट तथा जलन होती है। कभी-कभी शरीर पर सूजन भी आ जाती है।
- इसके बाद चेचक के दानों का मवाद सूखने लगता है तथा दानों पर पपड़ी-सी बन जाती है। जो बाद में सूखकर गिरने लगती है। पूरे शरीर से यह पपड़ी सूखकर गिर जाने के बाद ही रोगी स्वस्थ हो पाता है। |
चेचक का फैलना:
चेचक वायु के माध्यम से फैलने वाला संक्रामक रोग है। यह रोग एक विषाणु (Virus) द्वारा फैलता है, जिसे वरियोला वायरस कहते हैं। रोगी व्यक्ति के साँस, खाँसी, बलगम के अतिरिक्त उसके दानों की मवाद, खुरण्ड, कै, मल एवं मूत्र से भी चेचक के विषाणु वायु में व्याप्त हो जाते हैं तथा शीघ्र ही सब ओर फैल जाते हैं जिससे अनेक व्यक्ति प्रभावित होने लगते हैं। रोगी के सीधे सम्पर्क द्वारा भी चेचक फैल सकती है। चेचक के फैलने का मुख्य काल नवम्बर से मई तक होता है। चेचक नामक रोग का सम्प्राप्ति काल या उद्भवन अवधि सामान्य रूप से 10 से 12 दिन होती है।
बचाव के उपाय:
यह सत्य है कि चेचक का उपचार नहीं हो सकता, परन्तु इस रोग से बचाव के उपाय किए जा सकते हैं। इस रोग से बचाव के पर्याप्त उपाय कर लिए जाएँ तो इस संक्रामक रोग को फैलने से रोका जा सकता है। चेचक से बचाव तथा इसको फैलने से रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं—-
- चेचक के रोग से बचने के लिए चेचक का टीका अवश्य लगवा लेना चाहिए। इस बात का प्रयास करना चाहिए कि हर व्यक्ति को समय पर चेचक का टीका लग जाए।
- चेचक के रोगी को बिल्कुल अलग रखना चाहिए, अन्य व्यक्तियों विशेष रूप से बच्चों को उसके सम्पर्क में नहीं आना चाहिए।
- चेचक के लक्षण दिखाई देते ही किसी अच्छे चिकित्सक से परामर्श करना चाहिए तथा चिकित्सक के निर्देश के अनुसार ही परिचर्या करनी चाहिए।
- चेचक के रोगी द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले बर्तनों एवं अन्य वस्तुओं को बिल्कुल अलग रखना चाहिए।
- चेचक के रोगी के मल-मूत्र, थूक तथा कै आदि को अलग रखना चाहिए तथा उसमें कोई तेज विसंक्रामक तत्त्व डालकर या तो जमीन में गाड़ देना चाहिए अथवा जला देना चाहिए।
- रोगी की सेवा का कार्य करने वाले व्यक्ति को पहले से ही चेचक का टीका लगवा देना चाहिए। इस व्यक्ति को भी अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क से बचना चाहिए।
- रोगी के दानों पर से उतरने वाली पपड़ियों को सावधानी से एकत्र करके जला देना चाहिए।
उपचार:
सामान्य रूप से चेचक के रोग के निवारण के लिए कोई भी औषधि नहीं दी जाती। यह रोग निश्चित अवधि के उपरान्त अपने आप ही समाप्त होता है, परन्तु कुछ उपचारों द्वारा इस रोग की भयंकरता से बचा जा सकता है तथा रोग से होने वाले अन्य कष्टों को कम किया जा सकता है। चेचक के रोगी को हर प्रकार से अलग रखना अनिवार्य है। उसे हर प्रकार की सुविधा दी जानी चाहिए। रोगी के कमरे में अधिक प्रकाश नहीं होना चाहिए, क्योंकि रोशनी से आँखों में चौंध लगती है जिसका नजर पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। चेचक के रोगी को पीने के लिए उबला हुआ पानी तथा हल्का आहार ही देना चाहिए। रोगी से सहानुभूतिमय व्यवहार करना चाहिए। किसी, चिकित्सक की राय से कोई अच्छी मरहम भी दानों पर लगाई जा सकती है। रोगी को सुझाव देना चाहिए कि वह दानों को खुजलाए नहीं।
प्रश्न 3:
डिफ्थीरिया (Liphtheria) नामक रोग के लक्षणों, संक्रमण, उपचार एवं बचाव के उपायों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
डिफ्थीरिया
डिफ्थीरिया भी एक भयंकर रोग है। इस रोग को भी वायु द्वारा संक्रमित होने वाले रोगों की श्रेणी में रखा जाता है। यह रोग प्रायः बच्चों को ही होता है। इस रोग के विषय में विस्तृत जानकारी निम्नलिखित है
कारण:
यह रोग जीवाणु जनित है। कोरीनीबैक्टीरियम डिफ्थीरी नामक जीवाणु इस रोग की उत्पत्ति का कारण है। यह एक भयानक संक्रामक रोग है जोकि प्राय: 2-5 वर्ष की आयु के बच्चों में अधिक होता है। यह रोग बहुधा शीत ऋतु में होता है। इस रोग का उद्भवन काल प्राय: 2-3 दिन तक होता है।
लक्षण:
इस रोग का प्रारम्भ रोगी की नाक व गले से होता है। इसके प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं
- प्रारम्भ में गले में दर्द होता है और फिर सूजन आ जाती है तथा घाव बन जाते हैं।
- शरीर का तापक्रम 101°-104° फारेनहाइट तक हो जाता है, परन्तु रोग बढ़ने पर यह कम हो जाता है।
- टॉन्सिल व कोमल तालू पर झिल्ली बन जाती है, जोकि श्वसन-क्रिया में अवरोधक होती है। इसके कारण रोगी दम घुटने का अनुभव करता है।
- रोगी को बोलने तथा खाने-पीने में कठिनाई होती है।
- रोगी के शरीर के अंगों को लकवा मार जाता है।
- जीवाणुओं का अतिक्रमण फेफड़ों तथा हृदय तक होता है, जिससे बहुधा रोगी की मृत्यु हो जाती है।
संक्रमण:
इस रोग की संवाहक वायु है। रोगी के बोलने, खाँसने एवं छींकने से जीवाणु वायु में मिलकर अन्य व्यक्तियों तक पहुंचते हैं। रोगी द्वारा प्रयुक्त वस्त्रों, जूठे बचे पेय एवं खाद्य पदार्थों के
माध्यम से भी यह रोग स्वस्थ व्यक्तियों में संक्रमित हो सकता है।
बचाव एवं उपचार:
रोग के लक्षण प्रकट होते ही रोगी को तुरन्त पास के अस्पताल में ले जाना चाहिए। रोग से बचाव के लिए निम्नलिखित उपाय करना सदैव लाभप्रद रहता है
- स्वस्थ व्यक्तियों विशेष रूप से छोटे बच्चों को रोगी से दूर रहना चाहिए।
- रोगी द्वारा प्रयुक्त वस्तुओं को सावधानीपूर्वक नष्ट कर देना चाहिए।
- रोगी की परिचर्या करने वाले व्यक्ति को तथा घर के अन्य बच्चों को डिफ्थीरियाएण्टीटॉक्सिन इन्जेक्शन लगवाने चाहिए।
- स्वच्छ एवं स्वस्थ रहन-सहन द्वारा रोग-प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है; अतः वातावरण की स्वच्छता एवं निद्रा व विश्राम का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
- रोगी को उबालकर ठण्डा किया हुआ जल देना चाहिए।
- नमक मिले जल से नाक, गले व मुंह को साफ करना चाहिए।
- सिरदर्द एवं अधिक तापक्रम होने पर माथे व सिर पर शीतल जल की पट्टी रखना लाभकारी रहता है।
- रोगी को पर्याप्त मात्रा में द्रव (Liquid) पिलाना चाहिए।
- मधु में लहसुन का रस मिलाकरे रोगी के गले पर लेप करना उचित रहता है।
- रोगमुक्त होने के पश्चात् भी रोगी को कम-से-कम दस दिन तक पूर्ण विश्राम करना चाहिए।
- रोगी के प्रभावित अंगों की मालिश करना प्रायः लाभप्रद रहता है।
प्रश्न 4:
तपेदिक (Tuberculosis) नामक रोग के फैलने के कारणों, लक्षणों तथा उपचार के उपायों का वर्णन कीजिए। [2007, 09, 10, 13]
या
क्षय रोग के सामान्य लक्षण एवं रोकथाम के उपाय लिखिए। [2007, 09, 10, 11, 12, 16]
या
क्षय रोग के कारण, लक्षण और बचाव के उपाय लिखिए। क्षय रोग के रोगी को क्या विशेष भोजन देना चाहिए?
या
किसी एक संक्रामक रोग के कारण, लक्षण एवं बचने के उपाय लिखिए। [2007, 12, 13, 14, 18]
उत्तर:
तपेदिक (क्षय रोग)
यह अत्यन्त दुष्कर विश्वव्यापी संक्रामक रोग है जो आधुनिक वैज्ञानिक अनुसन्धानों के बावजूद भी नियन्त्रण में नहीं आ रहा है तथा उत्तरोत्तर वृद्धि कर रहा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार, तपेदिक के विश्व के सम्पूर्ण रोगियों के एक-तिहाई भारत में हैं। इस रोग को ‘Captain of Death’ कहते हैं। इस रोग में मनुष्य के शरीर का शनैः-शनैः क्षय होता रहता है तथा इसमें घुल-घुलकर मनुष्य अन्ततोगत्वा मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इसी कारण से इसे क्षय रोग भी कहते हैं। वैसे अब यह रोग असाध्य नहीं रहा। इसका पूर्ण उपचार सम्भव है। नियमित रूप से निर्धारित अवधि तक उचित औषधियाँ लेने तथा आहार-विहार को नियमित करके रोग से छुटकारा पाया जा सकता है। |
इस रोग के कई रूप हैं: फेफड़ों की तपेदिक, आँतों की तपेदिक, अस्थियों की तपेदिक तथा ग्रन्थियों की तपेदिक। इनमें सर्वाधिक प्रचलित फेफड़ों की तपेदिक है, जिसे पल्मोनरी टी० बी० (Pulmonary TB.) भी कहते हैं।
फैलने के कारण: इस रोग का जीवाणु ट्युबरकल बैसिलस (Tubercle bacillus) कहलाता है। इसका आकार मुड़े हुए दण्ड के समान होता है। सन् 1882 में सर्वप्रथम रॉबर्ट कॉक ने रोगियों के बलगम में इसे देखा तथा इसी जीवाणु को रोग का कारण बताया। ये जीवाणु सीलन वाले तथा अँधेरे स्थानों में बहुत दिन तक जीवित रह सकते हैं, किन्तु धूप लगने से ये शीघ्रता से नष्ट हो जाते हैं। साधारणत: यह रोग वायु या श्वास द्वारा ही फैलता है। रोगी के जूठे भोजन, जूठे सिगरेट-हुक्के, उसके वस्त्रों तथा बर्तनों में भी रोग के कीटाणु आकर रोग को फैला देते हैं। मक्खियाँ भी इस रोग के जीवाणुओं को अपने साथ उड़ाकर ले जाती हैं और साफ भोजन को दूषित कर इस रोग को फैला देती हैं।
तंग स्थानों व बस्तियों में जहाँ प्रकाश की उचित मात्रा नहीं पहुँचती, रहने वाले नागरिक शीघ्रता से इस बीमारी के शिकार बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त, निर्धनता, परदा-प्रथा, बाल-विवाह, अपौष्टिक भोजन और वंश-परम्परा भी इस रोग को फैलाने में सहायक होते हैं। सड़कों पर पत्थर तोड़ने वाले मजदूरों, चमड़े तथा टिन का कार्य करने वाले श्रमिकों तथा भरपेट भोजन न प्राप्त कर सकने वाले व्यक्तियों को भी यह रोग शीघ्रता से ग्रस्त कर लेता है। बहुत अधिक मानसिक क्लेशों के व्याप्त रहने तथा मादक द्रव्यों का अत्यधिक सेवन करने से भी यह रोग जन्म लेता है। गायों को यह रोग शीघ्रता से लता है तथा इस रोग से ग्रस्त गायों का दूध पीने से भी यह रोग हो सकता है।
उदभवन-काल:
इस रोग के जीवाणु शरीर में पहुँचकर धीरे-धीरे बढ़ते तथा अपना प्रभाव जमाते हैं। रोग के काफी बढ़ जाने पर ही इसका पता लगता है।
रूप और लक्षण:
प्रारम्भ में शरीर में हर समय हल्का ज्वर रहता है। शरीर के अंग शिथिल रहते हैं। हल्की खाँसी रहती है। रोगी का भार धीरे-धीरे कम हो जाता है और उसे भूख भी कम लगती है। किसी शारीरिक अथवा मानसिक कार्य को करने से अत्यधिक थकान हो जाती है। रोगी को हर समय आलस्य का अनुभव होता है। कभी-कभी मुख से बलगम के साथ रक्त आता है। फेफड़ों का एक्स-रे (X-Ray) चित्र स्पष्ट रूप से रोग का प्रभाव बतलाता है। अस्थियों की तपेदिक में रोगी की अस्थियाँ निर्जीव हो जाती हैं तथा उनकी वृद्धि रुक जाती है। आँतों की तपेदिक में आरम्भ में दस्त बहत होते हैं। रोग काफी बढ़ जाने पर ही पहचान में आता है।
उपचार तथा बचाव
- (1) इस रोग वाले व्यक्ति को तुरन्त किसी क्षय-चिकित्सालय (T:B. sanatorium) में भेजना चाहिए, परन्तु यदि रोगी को घर में ही रखना पड़े, तो उसके सम्पर्क से दूर रहना चाहिए।
- (2) रोगी को शुद्ध वायु तथा धूप से युक्त कमरे में रखना चाहिए। उसके खाने-पीने के बर्तन पृथक् होने चाहिए। रोगी के परिचारकों को अपना मुंह तथा नाक ढककर रोगी के पास जाना चाहिए।
- (3) रोगी के आस-पास का वातावरण बिल्कुल स्वच्छ रखना चाहिए। उसका थूक, बलगम आदि ऐसे बर्तन में पड़ना चाहिए जो नि:संक्रामक विलयन से भरा हुआ हो। उसके कपड़ों को भी नि:संक्रामकों से धो देना चाहिए।
- (4) B.C.G. का टीका लगवाना चाहिए। इस टीके को लगवाकर सामान्य रूप से क्षय रोग से बचा जा सकता हैं। स्वच्छ वातावरण, सन्तुलित पौष्टिक आहार तथा साधारण व्यायाम भी इस रोग से बचाव में सहायक होते हैं।
- (5) रोगी को शुद्ध एवं नियमित जीवन व्यतीत करते हुए ताजे फल तथा उत्तम स्वास्थ्यप्रद एवं सुपाच्य भोजन देना चाहिए।
प्रश्न 5:
टिटनेस (Tetanus) रोग के कारण, लक्षण और इससे बचाव के उपाय बताइए। [2011, 12, 14]
या
टिटनेस होने के क्या कारण हैं? टिटनेस के लक्षण, रोकथाम और उपचार लिखिए। [2011, 12]
उत्तर:
टिटनेस या धनु रोग अथवा हनुस्तम्भ रोग
कारण: यह रोग क्लॉस्ट्रीडियम टिटेनाइ नामक जीवाणु द्वारा होता है। ये जीवाणु घोड़ों की लीद, गोबर, मिट्टी व जंग खाए लोहे पर पनपते हैं। शरीर में कहीं भी चोट लगने, त्वचा के छिलने अथवा फटने पर तथा उपर्युक्त वस्तुओं के सम्पर्क में आने पर जीवाणु शरीर के अन्दर प्रवेश कर जाते
सम्प्राप्ति काल: 2 से 14 दिन तक।
लक्षण: इस रोग के निम्नलिखित लक्षण हैं
- रीढ़ की हड्डी धनुष के आकार की हो जाती है। इसी कारण से इसका नाम धनु रोग अथवा हनुस्तम्भ रोग रखा गया है।
- मांसपेशियों के फैलने व सिकुड़ने की क्षमता शून्य हो जाती है तथा ये अकड़ जाती हैं।
- गर्दन की मांसपेशियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं तथा जबड़ा जकड़ जाता है। इस अवस्था को बन्द जबड़ा (लॉक्ड-जॉ) कहते हैं।
- अन्तिम अवस्था में रोगी के फेफड़े व हृदय काम करना बन्द कर देते हैं तथा रोगी की मृत्यु हो जाती है।
- यह रोग इतना भयानक है कि थोड़ी-सी भी असावधानी होने पर प्रसव के समय माँ व शिशु दोनों को अपना शिकार बना लेता है।
उपचार एवं बचाव: इस रोग के उपचार निम्नलिखित हैं
- रोग के प्रथम लक्षण प्रकट होते ही रोगी को तुरन्त पास के अस्पताल में ले जाना चाहिए।
- प्रसव के समय माँ को तथा इसके बाद 3 से 5 माह के बच्चे को टिटनेस का टीका लगवा देना चाहिए।
- त्वचा फटने, छिलने व घाव होने पर 24 घण्टों के अन्दर टैटवैक का इन्जेक्शन लगवा लेना चाहिए। इस इन्जेक्शन का प्रभाव लगभग 6 माह तक रहता है।
- किसी भी स्थिति में घाव खुला नहीं रहना चाहिए।
- घाव अथवा त्वचा के फटने के स्थान को मिट्टी, लोहे व गोबर आदि के सम्पर्क से सुरक्षित । रखना चाहिए।
- घाव अथवा त्वच के फटने अथवा छिलने के स्थान एवं इसके आस-पास के भाग को सैवलॉन अथवा डेटॉल से अच्छी तरह से साफ करना चाहिए। जीवाणुमुक्त रुई से घाव को ढककर पट्टी बाँध देनी चाहिए।
- किसी भी रोग में इन्जेक्शन लगवाते समय इस बात को निश्चित कर लें कि इन्जेक्शन लगाने वाले चिकित्सक अथवा उसके परिचारक ने इन्जेक्शन-निडिल को भली प्रकार जीवाणुरहित (स्टेरीलाइज) कर लिया है।
प्रश्न 6:
विषाक्त भोजन (Food poisoning) से क्या तात्पर्य है? भोजन के विषाक्त होने के कारण, लक्षण एवं उपचार की विधियाँ लिखिए। [2011]
या
भोजन विषैला होने के कारण, लक्षण तथा इससे बचाव के उपाय बताइए। [2007, 10, 11, 12]
या
भोजन दूषित होने के विभिन्न कारणों को लिखिए । मनुष्य में भोज्य विषाक्तता के लक्षण भी लिखिए। [2007]
या
विषाक्त भोजन से आप क्या समझती हैं? विषाक्त भोजन से मानव शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है? [2008, 10, 11, 13, 15, 16]
या
भोजन विषाक्तता से आप क्या समझती हैं? भोजन विषाक्तता के लक्षण बताइए। भोजन विषाक्तता से बचने के लिए क्या उपाय करने चाहिए? [2007, 10, 11, 12, 13]
या
विषाक्त भोजन की हानियाँ लिखिए [2016]
उत्तर:
विषाक्त भोजन:
अर्थपूर्ण रूप से स्वच्छ, पौष्टिक तथा उपयुक्त दिखायी देने वाले भोज्य पदार्थ भी कभी-कभी व्यक्ति को रोगी बना सकते हैं। सामान्यतः ऐसे भोजन में कोई-न-कोई पदार्थ व्यक्ति को ग्राह्य नहीं होता। इसका मुख्य कारण होता है, भोजन के अन्दर उपस्थित ऐसे पदार्थ जो व्यक्ति के शरीर में जाने के बाद विषैले प्रभाव उत्पन्न करते हैं। यही विषाक्त भोजन है। वास्तव में कुछ जीवाणु आहार में मिलकर उसे विषाक्त बना देते हैं। आहार को विषाक्त बनाने वाले मुख्य जीवाणुओं का सामान्य परिचय निम्नवर्णित है
(1) साल्मोनेला समूह:
इस समूह के जीवाणु पशु-पक्षियों के शरीर में पाए जाते हैं। मनुष्य जब इनका मांस खाते हैं अथवा दूध पीते हैं, तो जीवाणु उनके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। संक्रमण के छह घण्टों से दो दिन तक के समय में जीवाणु विषाक्तता के लक्षण प्रकट कर देते हैं। भोजन की यह विषाक्तता प्रायः मांस, अण्डे, क्रीम तथा कस्टर्ड आदि द्वारा उत्पन्न होती है। मक्खियाँ भी इन जीवाणुओं के संवाहन में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं।
लक्षण :
मितली, वमन, पेट में पीड़ा तथा दस्त होते हैं, जिनके कारण रोगी निर्जलीकरण अथवा डी-हाइड्रेशन का शिकार भी हो सकता है। उचित उपचार न मिलने पर रोगी की मृत्यु भी हो सकती है।
बचाव एवं उपचार
- भोजन को मक्खियों से सुरक्षित रखना चाहिए।
- भोजन बनाने व करने से पूर्व हाथों को साबुन से भली प्रकार से धो लेना चाहिए।
- भोजन को उच्च ताप पर पकाना चाहिए तथा संरक्षित भोजन को खाने से पूर्व लगभग 72° सेण्टीग्रेड तक गर्म कर लेना चाहिए। इससे भोजन के सभी जीवाणु नष्ट हो जाते हैं।
- डी-हाइड्रेशन होने पर किसी योग्य चिकित्सक द्वारा ग्लूकोज एवं सैलाइन जल चढ़वा देना चाहिए।
(2) स्टैफाइलोकोकाई समूह:
इस समूह के जीवाणु प्राय: वायु में, मनुष्यों की नाक, गले, फोड़े-फुन्सियों व घावों में पाए जाते हैं। ये भोजन बनाते समय खाँसने व छींकने तथा गन्दे हाथों के माध्यम से भोजन में प्रवेश करते हैं। भोजन के विषाक्त होने का मुख्य कारण भोजन के पकाने के पश्चात् इसे अधिक समय तक गर्म रख छोड़ना है। इस प्रकार का विषाक्त भोजन खाने के एक से छह घण्टों के अन्दर विषाक्तता के लक्षण प्रकट होने लगते हैं।
लक्षण:
रोगी शिथिल हो जाता है। यह विषाक्तता अधिक भयानक परिणाम नहीं दिखाती है।
बचाव एवं उपचार:
- भोजन बनाते समय सावधानी से छींकना अथवा खाँसना चाहिए।
- भोजन बनाने से पूर्व हाथों को भली प्रकार साबुन से धोना चाहिए।
- भोजन पकाने के बाद ठण्डा कर उसे रेफ्रिजेरेटर में रखने से जीवाणुओं के पनपने की सम्भावना कम रहती है।
- अत्यधिक ताप पर देर तक भोजन पकाने पर भोजन का विषैलापन नष्ट हो जाता है।
- रोगी को उपवास रखना चाहिए तथा हल्का सुपाच्य भोजन लेना चाहिए।
- अधिक विषाक्तता होने पर योग्य चिकित्सक से परामर्श लेना विवेकपूर्ण रहता है।
(3) क्लॉस्ट्रीडियम समूह-क्लॉस्ट्रीडियम परफ्रिजेन्स :
नामक इस समूह का जीवाणु प्रायः डिब्बा बन्द भोज्य पदार्थों को विषाक्त करता है। यह जीवाणु एक प्रकार का हानिकारक टॉक्सिन अथवा विष उत्पन्न करता है।
लक्षण: मानव शरीर में प्रवेश करने पर पेट में पीड़ा व डायरिया के लक्षण पैदा करता है, परन्तु इस जीवाणु द्वारा उत्पन्न विषाक्तता के कारण मृत्यु की सम्भावना बहुत कम रहती है।
उपचार:
एण्टीटॉक्सिन अथवा विषनाशक तथा पेनीसिलीन का प्रयोग करने से रोगी शीघ्र ही स्वस्थ हो जाता है।
(4) क्लॉस्ट्रीडियम बौटूलिनम:
इस जीवाणु द्वारा उत्पन्न भोजन की विषाक्तता को बौटूलिज्म कहते हैं। यह जीवाणु भयानक टॉक्सिन उत्पन्न करता है। इसकी भयानकता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि एक औंस टॉक्सिन करोड़ों लोगों की मृत्यु के लिए पर्याप्त है। ये जीवाणु अपनी बीजाणु अवस्था में मछलियों, पक्षियों, गाय व घोड़े जैसे पशुओं व मनुष्यों की आँतों में पाए जाते हैं। जीवाणुओं के ये बीजाणु खाद तथा मल-मूत्र जैसी गन्दगियों के माध्यम से भूमि में पहुँचकर कृषि द्वारा प्राप्त खाद्य पदार्थों से चिपक जाते हैं। ऑक्सीजनविहीन परिस्थितियों में तथा असावधानियों से तैयार किए गए डिब्बा-बन्द खाद्य पदार्थों में ये बीजाणु अंकुरित हो असंख्य को जन्म देते हैं। सेम, मक्का, मटर व चना इत्यादि इस प्रकार के डिब्बा-बन्द खाद्य पदार्थों के उदाहरण हैं। इस अवस्था में जीवाणु टॉक्सिन उत्पन्न करते हैं, जिसके मनुष्यों में होने वाले प्रभाव निम्नलिखित हैं–
प्रभाव:
- विषाक्त भोजन के सेवन के केवल कुछ ही घण्टों में रोगी पैरालिसिस अथवा लकवे का अनुभव करने लगता है।
- आँखों में धुंधलापन, भोजन चबाने व सटकने में तथा साँस लेने में कठिनाई विषाक्त भोजन के अन्य प्रभाव हैं।।
- बोलने में अस्पष्टता के साथ ही भुजाएँ लकवे की स्थिति में हो जाती हैं।
- हृदय तथा फेफड़ों तक टॉक्सिन का प्रभाव पहुँचने पर रोगी की मृत्यु निश्चित है।
बचाव एवं उपचार:
- एण्टीबायोटिक औषधियों के उपयोग का इस विषाक्तता में कोई लाभ नहीं है।
- रोगी को तुरन्त अस्पताल ले जाना चाहिए।
- एण्टीटॉक्सिन अथवा विषनाशक की पर्याप्त मात्रा से ही रोग पर नियन्त्रण सम्भव है। यह उपचार भी समय पर उपलब्ध होने पर ही लाभकारी है अन्यथा मृत्यु निश्चित है।
- यह विषाक्तता इतनी भयानक है कि ठीक उपचार होने पर भी पीड़ित मनुष्य 6-7 महीनों में पूर्ण स्वस्थ हो पाता है।
- अप्राकृतिक लगने वाले दुर्गन्धयुक्त भोजन को जलाकर नष्ट कर देना चाहिए, क्योंकि विषाक्त भोजन पशु-पक्षियों में भी विषाक्तता उत्पन्न कर सकता है।
- डिब्बों में भोजन बन्द करते समय भाप के दबावयुक्त ताप से डिब्बों व भोजन को । विसंक्रमित करना चाहिए।
- डिब्बा-बन्द भोजन को खाने से पूर्व उच्च ताप पर लगभग दस मिनट तक पकाना चाहिए।
प्रश्न 7:
डेंगू (Dengue) नामक रोग का सामान्य परिचय दें। इस रोग के कारण, लक्षणों, गम्भीरता तथा बचने के उपाय भी लिखिए। [2018]
उत्तर:
डेंगू एक संक्रामक रोग है जो मादा एडीज (Female Aedes) मच्छर के काटने से होता है। यह मच्छर प्रायः दिन में ही सक्रिय होता है तथा मनुष्यों को काटता है। डेंगू का अधिक प्रकोप कुछ वर्षों से अधिक हुआ है। हर वर्ष अनेक व्यक्ति इसके शिकार होते हैं। समुचित उपचार न होने की दशा में यह रोग घातक भी सिद्ध होता है। यह रोग उस समय अधिक गम्भीर हो जाता है, जब रोगी के रक्त के प्लेटलेट्स तेजी से घटने लगते हैं।
डेंगू के लक्षण-डेंगू के लक्षण निम्नलिखित हैं
- इस रोग में तेज बुखार होता है।
- रोगी को सिरदर्द, कमरदर्द तथा जोड़ों में दर्द होता है।
- हल्की खाँसी तथा गले में खरास की भी शिकायत होती है।
- रोगी को काफी थकावट तथा कमजोरी महसूस होती है।
- रोग के बढ़ने के साथ-साथ उल्टियाँ होती हैं तथा शरीर पर लाल-लाल दाने निकल आते हैं।
- इस रोग में रोगी की नाड़ी कभी तेज तथा कभी धीमी चलने लगती है तथा प्रायः रक्तचाप भी बहुत घट जाता है।
- डेंगू शॉक सिंड्रोम (D.S.S.) के रोगियों में साधारण डेंगू बुखार तथा डेंगू हेमोरेजिक बुखार के लक्षणों के साथ-साथ बेचैनी महसूस होती है।
- डेंगू हेमोरेजिक बुखार में अन्य लक्षणों के साथ-ही-साथ रक्त में प्लेटलेट्स की अत्यधिक कमी होने लगती है। इस स्थिति में शरीर में कहीं से भी रक्तस्राव होने लगता है। यह रक्तस्राव दाँतों, मसूड़ों से भी हो सकता है तथा नाक, मुँह या मल से भी हो सकता है।
डेंगू की गम्भीरता:
डेंगू रोग उस समय गम्भीर रूप ग्रहण कर लेता है जब व्यक्ति के प्लेटलेट्स तेजी से घटने लगते हैं। सामान्य रूप से एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में डेढ़ से दो लाख प्लेटलेट्स होते हैं। यदि ये एक लाख से कम हो जाये तो रोगी को हॉस्पिटल में भर्ती करवाना आवश्यक हो जाता है, क्योंकि इस स्थिति में प्लेटलेट्स चढ़ाने की आवश्यकता होती है। यदि प्लेटलेट्स और घट जाते हैं तो रोगी के शरीर से रक्तस्राव होने लगता है। ऐसे में शरीर के विभिन्न मुख्य अंगों के फेल (Multi-organ Failure) होने की भी आशंका रहती है।
डेंगू से बचने के उपाय:
डेंगू से बचने के लिए आवश्यक है कि मच्छरों से बचाव किया जाये। इसके लिए एक उपाय है कि मच्छरों को पनपने न दिया जाये। डेंगू फैलाने वाले मच्छर साफ पानी में पनपते हैं अतः घरों के अन्दर तथा आस-पास कहीं भी साफ पानी एकत्र न होने दें। पानी के बर्तनों को ढककर रखना चाहिए। फूलदानों आदि का पानी प्रतिदिन बदलते रहें। कूलर, पानी की हौदियों, टायर-ट्यूब, टूटे बर्तन, मटके, डिब्बे आदि में पानी एकत्र न होने दें। पक्षियों के खाने-पीने के बर्तनों को भी साफ करते रहें। मच्छरों की रोकथाम के साथ-ही-साथ स्वयं को मच्छरों से बचायें। इसके लिए मच्छरदानी का प्रयोग करें तथा मच्छरों को दूर रखने के लिए क्रीम या तेल का इस्तेमाल करें।
प्रश्न 8:
चिकनगुनिया (Chikungunya) नामक रोग का सामान्य परिचय दें। इस रोग के लक्षणों तथा उपचार के उपायों का वर्णन करें।
उत्तर:
चिकनगुनिया एक वायरसजनित संक्रामक रोग है। यह रोग भी हमारे देश में कुछ वर्षों से प्रबल हो रहा है। इस रोग को फैलाने में एडीज मच्छर एइजिप्टी की मुख्य भूमिका होती है। इस रोग का नाम स्वाहिली भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ है-ऐसा जो मुड़ जाता है। इस रोग के मुख्य लक्षण जोड़ों के दर्द के कारण रोगी को शरीर झुक जाता है, को देखकर यह नाम रखा गया है। यह रोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को सीधे तौर पर नहीं होता बल्कि संक्रमित व्यक्ति को मच्छर द्वारा काटने के उपरान्त स्वस्थ व्यक्ति को काटने पर वायरस का संक्रमण हो जाता है।
चिकनगुनिया के लक्षण:
इस रोग में जोड़ों में दर्द होता है तथा साथ ही ज्वर होता है। त्वचा शुष्क हो जाती है तथा प्रायः त्वचा पर लाल चकत्ते पड़ जाते हैं। बच्चों में रोग के संक्रमण से उल्टियाँ भी होने लगती हैं।
चिकनगुनिया का उपचार:
चिकनगुनिया के लक्षण स्पष्ट होते ही योग्य चिकित्सक से तुरन्त सम्पर्क करना चाहिए तथा चिकित्सक के परामर्श से उपचार प्रारम्भ कर देना चाहिए। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित उपाय भी करने चाहिए
- रोगी को अधिक-से-अधिक विश्राम करना चाहिए।
- व्यक्ति को अधिक-से-अधिक पानी पीना चाहिए। गुनगुना पानी पीने का भी सुझाव दिया जाता है।
- रोग की दशा में व्यक्ति को दूध तथा दूध से बने भोज्य पदार्थों, जैसे कि दही आदि का सेवन करना चाहिए।
- रोग को नियन्त्रित करने के लिए नीम के पत्तों का रस दिया जाना चाहिए।
- रोग के निवारण में करेला, पपीता और गिलोय के पत्तों के रस के सेवन से सहायता मिलती
- चिकनगुनिया की दशा में रोगी को नारियल पानी का सेवन करना चाहिए। इससे शरीर में पानी की पूर्ति होती है तथा लिवर को भी आराम मिलता है।
- रोगी के कपड़ों तथा बिस्तर आदि की सफाई का विशेष ध्यान रखना अति आवश्यक होता है।
- चिकनगुनिया के रोगी को जोड़ों का दर्द बहुत अधिक होता है। ऐसे में चिकित्सक के परामर्श से ही दर्द-निवारक दवा लें।
- चिकनगुनिया रोग की दशा में ऐस्प्रिन कदापि न लें। इससे समस्या बढ़ सकती है।
प्रश्न 9:
हाथीपाँव या फाइलेरिया (Elephantiasis or Filaria) नामक रोग का सामान्य परिचय दें। इस रोग के लक्षणों, बचाव के उपायों तथा उपचार का विवरण दीजिए।
उत्तर:
भारत के विभिन्न भागों में पाया जाने वाला एक संक्रामक रोग हाथीपाँव भी है। इस रोग का यह नाम इसके लक्षणों को ध्यान में रखते हुए रखा गया है। वैसे इसे फीलपाँव भी कहा जाता है। इसका चिकित्सीय नाम फाइलेरिया (Filaria) है। इस रोग को हाथीपाँव कहने का मुख्य कारण यह है कि इस , रोग की दशा में व्यक्ति के हाथ या पाँव बहुत अधिक सूज जाते हैं।
फाइलेरिया नामक रोग एक कृमि जनित रोग है। यह कृमि (Worm) व्यक्ति के शरीर के लसिका तन्त्र की नलिकाओं में पहुँचकर उन्हें बन्द कर देते हैं। इस रोग को उत्पन्न करने वाला कृमि फाइलेरिया बैक्रॉफ्टी (Filaria bancrofti) है। इस कृमि को फैलाने का कार्य क्यूलेक्स मच्छर द्वारा किया जाता है। शरीर में ये कृमि स्थायी रूप से लसिका वाहिनियों में रहते हैं, परन्तु ये निश्चित समय पर प्रायः रात के समय रक्त में प्रवेश करके शरीर के अन्य अंगों में भी फैल जाते हैं। ये कृमि शरीर की नसों में सूजन उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार से उत्पन्न सूजन प्रायः घटती-बढ़ती रहती है। परन्तु जब रोग के कृमि लसिका तन्त्र की नलियों के अन्दर मर जाते हैं तब लसिका वाहिनियों का मार्ग सदा के लिए अवरुद्ध हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप शरीर के उस स्थान की त्वचा मोटी तथा कड़ी हो जाती है। इस प्रकार से लसिका वाहिनियों के बन्द हो जाने पर उनके खोलने के लिए कोई औषधि सहायक नहीं होती। ऐसे में शल्य चिकित्सा से ही समस्या को हल किया जा सकता है।
फाइलेरिया रोग का फैलना:
इस रोग को फैलाने का कार्य क्यूलेक्स मच्छर द्वारा किया जाता है। रोग का कारण एक परजीवी माइक्रोफिलारे होता है। सामान्य रूप से जब किसी संक्रमित व्यक्ति को मच्छर काटता है तब मच्छर के शरीर में यह परजीवी प्रवेश कर जाता है तथा वहाँ रहकर बड़ी तेजी से अपनी वृद्धि करता है। इसके उपरान्त जब यह मच्छर किसी स्वस्थ व्यक्ति को काटता है तब वह व्यक्ति भी संक्रमित होकर रोगग्रस्त हो जाता है। माइक्रोफिलारे के अतिरिक्त एक अन्य परजीवी भी फाइलेरिया रोग उत्पन्न करता है। इस परजीवी को बूगिया मलाई कहते हैं। यह मानसोनिया (मानसोनियोजित एबूलीफेरा) द्वारा फैलता है। इस प्रकार का संक्रमण ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक पाया जाता है।
फाइलेरिया के लक्षण:
फाइलेरिया या हाथीपाँव के कुछ मुख्य लक्षण निम्नवर्णित हैं
- ठण्ड या कँपकँपी के साथ ज्वर होना।।
- गले में सूजन आ जाना।
- रोग के बढ़ने पर एक या अधिक हाथ तथा पैरों में सूजन आ जाना। यह सूजन पैरों में प्रायः अधिक होती है। इसीलिए इस रोग को हाथीपाँव कहा जाता है। ।
- इस रोग में गुप्तांग तथा जाँघों के बीच गिल्टी बन जाती है, जिसमें दर्द होता है। पुरुषों में अंडकोष में भी सूजन आ जाती है जिसे हाइड्रोसिल कहते हैं।
- रोगी के पैरों तथा हाथों की लसिका वाहिकाओं का रंग लाल होने लगता है।
बचाव के उपाय:
फाइलेरिया एक गम्भीर रोग है। इस रोग से बचाव के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए
- हाथीपाँव या फाइलेरिया से बचाव का सबसे अधिक कारगर उपाय है–स्वयं को मच्छरों से बचाना। ये मच्छर सुबह एवं शाम के समय अधिक सक्रिय होते हैं; अतः इस समय विशेष सचेत रहना
आवश्यक होता है। - यदि किसी क्षेत्र में फाइलेरिया का प्रकोप हो तो वहाँ विशेष सावधानी की आवश्यकता होती .
- मच्छरों से बचाव के लिए ऐसे वस्त्र धारण करने चाहिए जिनसे हाथ-पाँव अच्छी तरह से ढक जायें।।
- मच्छरों से बचाव के लिए सुझाव दिया जाता है कि व्यक्ति को पेमेथ्रिन-युक्त कपड़ों को धारण करना चाहिए। पेर्मेथ्रिने एक सिंथेटिक रासायनिक कीटनाशक होता है। ऐसे वस्त्र बाजार में उपलब्ध होते हैं।
- मच्छरों के उन्मूलन के सभी उपाय किये जाने चाहिए।
उपचार के उपाय:
फाइलेरिया या हाथीपाँव एक गम्भीर रोग है। इस रोग के कारण जहाँ एक ओर शारीरिक विकलांगता आती है वहीं साथ-ही-साथ मानसिक स्थिति भी बिगड़ जाती है। इससे व्यक्ति आर्थिक संकट का भी शिकार हो जाता है। रोग के व्यवस्थित या चिकित्सीय उपचार के साथ-ही-साथ निम्नलिखित घरेलू उपचार भी किये जा सकते हैं
(1) लौंग का इस्तेमाल:
लौंग में कुछ ऐसे एंजाइम होते हैं जो फाइलेरिया के परजीवी को नष्ट करने की शक्ति रखते हैं। अत: लौंग से तैयार चाय का सेवन करना चाहिए।
(2) काले अखरोट का तेल:
अखरोट के तेल में कुछ ऐसे गुण पाये जाते हैं जो रक्त में पाये जाने वाले कृमियों को नष्ट करने की क्षमता रखते हैं। अत: एक कप गर्म पानी में तीन-चार बूंद काले अखरोट का तेल डालकर पीने से इस रोग के निवारण में सहायता मिलती है।
(3) आँवला का उपयोग:
आँवला विटामिन ‘सी’ का सर्वोत्तम स्रोत है। इसमें एन्थेलमिर्थिक भी होता है जो घाव को शीघ्र भरने में सहायक होता है। अतः आँवले के सेवन से फाइलेरिया को नियन्त्रित करने में सहायता मिलती है।
(4) अदरक:
यदि सूखे अदरक के पाउडर अर्थात् सोंठ को गरम पानी में घोलकर प्रतिदिन सेवन करें तो फाइलेरिया रोग को नियन्त्रित किया जा सकता है। वास्तव में अदरक में फाइलेरिया के पुरजीवी को नष्ट करने की क्षमता होती है।
(5) अश्वगंधा:
अश्वगंधा एक पौधा होता है। इसके इस्तेमाल से भी फाइलेरिया को नियन्त्रित किया जा सकता है।
(6) शंखपुष्पी:
शंखपुष्पी की जड़ को गरम पानी के साथ पीसकर पेस्ट तैयार किया जाता है। इस पेस्ट को शरीर के प्रभावित स्थान पर लगाने से सूजन घट जाती है।
(7) कुल्ठी:
कुल्ठी या हॉर्सग्रास में चींटियों द्वारा निकाली गई मिट्टी तथा अण्डे की सफेदी मिलाकर सूजन वाले अंग पर प्रतिदिन लगाने से सूजन घटती है।
(8) अगर:
अगर को पानी के साथ मिलाकर लेप तैयार किया जाता है। इस लेप को प्रतिदिन प्रभावित स्थान पर लगाने से सूजन कम होती है, रोग के कृमि मर जाते हैं तथा घाव शीघ्र भरने लगते हैं
(9) रॉक साल्ट:
रॉक साल्ट, शंखपुष्पी एवं सोंठ के पाउडर को मिलाकर तैयार किए गए मिश्रण की एक चुटकी को प्रतिदिन गरम पानी के साथ सेवन करने से रोग नियन्त्रित हो जाता है।
(10) ब्राह्मी:
ब्राह्मी को पानी के साथ पीसकर तैयार लेप को प्रतिदिन प्रभावित अंग पर लगाने से सूजन घट जाती है।
प्रश्न 10:
हेपेटाइटिस (Hepatitis) नामक रोग का सामान्य परिचय दें। इस रोग के प्रकारों, कारणों, लक्षणों तथा बचाव के उपायों का विवरण दीजिए।
उत्तर:
यदि आधुनिक संक्रामक रोगों की चर्चा की जाये तो उनमें हेपेटाइटिस नामक रोग को एक गम्भीर रोग के रूप में देखा जाता है। यह रोग जन स्वास्थ्य के लिए एक खतरा बना हुआ है। यह रोग यकृत से सम्बन्धित है। हेपेटाइटिस एक वायरसजनित रोग है। वर्तमान समय में हेपेटाइटिस रोग का प्रकोप निरन्तर बढ़ रहा है।
हेपेटाइटिस : प्रकार एवं कारण:
हेपेटाइटिस रोग के पाँच प्रकार निर्धारित किये गये हैं जिन्हें क्रमशः A, B, C, D तथा E के रूप में जाना जाता है। इनमें से ‘A’ तथा ‘E’ वर्ग के रोग प्रदूषित खाद्य तथा पेय पदार्थों के सेवन से होते हैं। इनसे भिन्न ‘B’ तथा ‘C’ वर्ग के रोगों का संक्रमण रक्त के माध्यम से होता है। इन वर्गों के रोग प्रायः रक्त तथा रक्त के उत्पाद जैसे प्लाज्मा के माध्यम से संक्रमित होते हैं। प्रदूषित सिरिंज के इस्तेमाल से भी इस रोग के संक्रमण की आशंका रहती है। संक्रमित व्यक्ति द्वारा रक्तदान करने की स्थिति में भी रोग का संक्रमण हो सकता है। टैटू गुदवाने, संक्रमित व्यक्ति के टुथब्रश या रेजर को इस्तेमाल करने तथा असुरक्षित यौन सम्बन्ध स्थापित करने की दशाओं में हेपेटाइटिस रोग के संक्रमण की सम्भावना बढ़ जाती है। इन दशाओं में ‘B’ तथा ‘C’ के संक्रमण का, अधिक खतरा होता है। इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति लम्बे समय तक मदिरापान या अन्य नशों का सेवन करते रहते हैं वे भी हेपेटाइटिस रोग का शिकार हो सकते हैं।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि संक्रमित व्यक्ति के शरीर से निकलने वाले पसीने या आँखों के आँसुओं के माध्यम से इस रोग के फैलने की आशंका प्रायः नहीं होती।
अधिक खतरे वाले वर्ग:
वैसे तो हेपेटाइटिस रोग से कोई भी व्यक्ति संक्रमित हो सकता है। परन्तु कुछ वर्ग ऐसे हैं जिन्हें इस रोग के होने का अधिक खतरा होता है। इस प्रकार के मुख्य वर्ग हैं
- डॉक्टर, नर्स तथा अन्य स्वास्थ्य-रक्षक कार्यकर्ता,
- बार-बार रक्त लेने वाले हीमोफीलिया या थेलेसीमिया के रोगी तथा डायलिसिस पर आश्रित रहने वाले रोगी व्यक्ति,
- संक्रमित माताओं से जन्मे नवजात शिशु,
- वेश्यावृत्ति में संलग्न व्यक्ति,
- समलिंगी एवं एक से अधिक व्यक्तियों से यौन सम्बन्ध रखने वाले व्यक्ति तथा
- नशे के आदी तथा इंजेक्शन द्वारा मादक पदार्थ लेने वाले व्यक्ति।।
हेपेटाइटिस के सामान्य लक्षण:
हेपेटाइटिस नामक रोग यकृत के संक्रमित होने पर होता है। इस रोग के कुछ मुख्य सामान्य लक्षण निम्नलिखित हैं
- पीलिया के लक्षण प्रकट होना। इसमें त्वचा तथा आँखों में पीलापन आ जाता है तथा पेशाब का रंग भी पीला होने लगता है।
- रोग के बढ़ने के साथ-साथ भूख कम होने लगती है।
- हेपेटाइटिस रोग में व्यक्ति को उल्टियाँ होने लगती हैं।
- रोगी के पेट में दर्द होता है।
- इस रोग की स्थिति में रोगी के पेट में पानी आ जाता है।
बचाव के उपाय:
हेपेटाइटिस रोग से बचाव के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं
- हेपेटाइटिस ‘A’ तथा ‘B’ से बचाव के लिए टीके उपलब्ध हैं; अतः निर्धारित रूप में ये टीके लगवाने चाहिए।
- पानी की स्वच्छता एवं शुद्धता का विशेष ध्यान रखें। उबालकर अथवा अच्छे फिल्टर से साफ किया गया पानी ही पीयें।
- सभी खाद्य-पदार्थों तथा पेय पदार्थों की स्वच्छता का अधिक-से-अधिक ध्यान रखें।
हेपेटाइटिस ‘A’ तथा ‘E’ का उपचार:
हेपेटाइटिस ‘A’ तथा ‘E’ के उपचार के लिए कोई सुनिश्चित औषधि उपलब्ध नहीं है। इस स्थिति में चिकित्सक लक्षणों को ध्यान में रखते हुए ही रोगी का उपचार करते हैं। उदाहरण के लिए, बुखार की अलग से दवा दी जाती है तथा पेटदर्द को नियन्त्रित करने के लिए अलग से उपयुक्त दवा दी जाती है।
हेपेटाइटिस ‘B’ तथा ‘C’ का उपचार:
हेपेटाइटिस ‘B’ तथा ‘C’ नामक रोगों के विकास की चार स्थितियाँ हो सकती हैं, जिनके उपचार का सामान्य विवरण निम्नलिखित है
प्रथम स्थिति :
यह रोग की प्रारम्भिक स्थिति है। इसमें रोग तो होता है परन्तु वह कुछ समय में स्वतः ही ठीक हो जाता है।
द्वितीय स्थिति:
इस स्थिति में हेपेटाइटिस ‘B’ तथा ‘C’ का वायरस लिवर को लगातार प्रभावित करता है तथा उसमें सूजन पैदा करता रहता है। यदि यह स्थिति लगातार छ: माह तक चलती रहे तो इसे चिकित्सा शास्त्र की भाषा में क्रानिक हेपेटाइटिस कहा जाता है। इस स्थिति में रो नियन्त्रित करने के लिए दवाओं की आवश्यकता होती है अर्थात् दवाओं से उपचार सम्भव होता है।
तृतीय स्थिति:
इस अवस्था में रोग तो होता है परन्तु व्यक्ति तात्कालिक रूप से उस रोग को महसूस नहीं करता। इस दशा में यदि रोग के वायरस यकृत में लगातार रह जाएँ तो आगे चलकर यह वायरस ही लिवर सिरोसिस तथा लिवर कैंसर का कारण बन जाते हैं।
चतुर्थ स्थिति:
इस स्थिति में अचानक ही लिवर काम करना बन्द कर देता है। चिकित्सा शास्त्र की भाषा में इस स्थिति को ऐक्यूट लिवर फेल्यर कहते हैं। इस स्थिति में कोई उपचार सम्भव नहीं हो पाता। यह स्थिति गम्भीर तथा घातक सिद्ध हो सकती है। केवल लिवर ट्रांसप्लांट द्वारा ही रोगी की जान बचायी जा सकती है।
उपर्युक्त विवरण द्वारा हेपेटाइटिस रोग का सामान्य परिचय प्राप्त हो जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि भले ही यह रोग एक संक्रामक रोग है परन्तु यह रोग (‘B’ तथा ‘C’) किसी रोगी व्यक्ति से हाथ मिलाने, खाने के बर्तनों तथा पानी पीने के गिलास का इस्तेमाल करने से नहीं फैलता। यही नहीं इस रोग का संक्रमण छींकने, चूमने तथा गले मिलने से भी नहीं होता।
हेपेटाइटिस रोग में भूख की गम्भीर समस्या होती है। रोगी को भूख नहीं लगती। कुछ भी खाने से पाचन-क्रिया बिगड़ जाती है। इस बात को ध्यान में रखते हुए रोगी को हल्का एवं सुपाच्य आहार ही दिया जाना चाहिए। इससे रोगी की भूख धीरे-धीरे बढ़ती है। रोगी को थोड़े-थोड़े समय बाद हल्का
आहार देते रहने से लाभ होता है।
प्रश्न 11:
रेबीज या हाइड्रोफोबिया नामक रोग के कारणों, लक्षणों तथा बचाव के उपायों का उल्लेख करें। या रेबीज रोग के लक्षण लिखिए। [2018]
उत्तर:
रेबीज या हाइड्रोफोबिया नामक रोग एक अति भयंकर एवं घातक रोग है। इस रोग के हो जाने के बाद इसका अभी तक कोई पूर्णतः सफल उपचार नहीं है। यदि रोगी पशु के काटने के तुरन्त बाद ही एण्टीरेबीज इन्जेक्शन लगवा लिया जाए तो रोग से बचा जा सकता है। एक बार रोग प्रबल हो जाने कैं बाद रोगी को बचा पाना प्रायः असम्भव है।
रोग के कारण:
रेबीज नामक रोग एक विशिष्ट जीवाणु के शरीर में प्रविष्ट होने के परिणामस्वरूप होता है। इस रोग के विषाणु को न्यूरोरिहाइसिटीज हाइड्रोफोबी’ कहते हैं। यह रोग रोगग्रस्त पशु के काटने के परिणामस्वरूप होता है। सामान्य रूप से कुत्ते, गीदड़, लोमड़ी तथा बन्दर आदि पशुओं को यह रोग हुआ करता है। चमगादड़ भी इस रोग के शिकार हुआ करते हैं। रोगग्रस्त पशु की लार में रेबीज के विषाणु रहते हैं, अतः जब कोई रेबीजयुक्त पशु किसी व्यक्ति को काटता है तब उसकी लार में विद्यमान विषाणु व्यक्ति के शरीर में पहुँच जाते हैं। शरीर में प्रवेश करने के उपरान्त ये विषाणु व्यक्ति की स्नायु-तन्त्रिकाओं के माध्यम से शरीर में फैलने लगते हैं। रोग के विषाणु जब मस्तिष्क में पहुँच जाते हैं तब रोग प्रबल रूप धारण कर लेता है तथा रोग के समस्त लक्षण प्रकट होने लगते हैं।
रेबीजयुक्त कुत्ते की पहचान:
हम जानते हैं कि हमारे देश में रेबीज का संक्रमण मुख्य रूप से कुत्तों के ही माध्यम से होता है, अतः रेबीजयुक्त कुत्ते की पहचान करनी अति आवश्यक है। प्रथम प्रकार के रेबीजयुक्त कुत्ते शान्त एवं सुस्त बैठे रहते हैं। रोगी कुत्ते की पूँछ प्रायः सीधी हो जाती है। उसके मुँह से झाग-से निकलते रहते हैं, आँखें लाल हो जाती हैं तथा चेहरा असामान्य रूप से भयानक-सा दिखाई देने लगता है। ये कुत्ते खाना-पीना भी बन्द कर देते हैं। ये कुत्ते अकारण ही किसी भी व्यक्ति को काट सकते हैं। दूसरे प्रकार के रेबीजयुक्त कुत्ते अधिक आक्रामक होते हैं। वे अकारण ही भौंकते रहते हैं तथा जहाँ-तहाँ भागते रहते हैं। ये रोगी कुत्ते अकारण ही किसी भी व्यक्ति अथवा पशु को काट लेते हैं। अन्य समस्त लक्षण प्रथम प्रकार के रोगी कुत्तों के ही समान होते हैं। रेबीज के शिकार कुत्ते का जीवन बहुत कम होता है। सामान्य रूप से रोग के लक्षण उत्पन्न होने के उपरान्त 8-10 दिन के अन्दर ही ये कुत्ते अपने आप ही मर जाते हैं।
रोग की उदभवन अवधि:
रेबीज नामक रोग की उद्भवन अवधि कुछ दिन अर्थात् 4-6 दिन से लेकर कुछ वर्ष अर्थात् 4-6 वर्ष तक भी हो सकती है। कुछ व्यक्तियों के विषय में यह काल 10 वर्ष तक भी देखा जा चुका है। वैसे यह सत्य है कि मस्तिष्क से जितना निकट का अंग कुत्ते के द्वारा काटा गया हो उतना ही शीघ्र यह रोग प्रकट होने की आशंका रहती है, क्योंकि रोग के लक्षण तभी प्रकट होते हैं जब रोग के विषाण व्यक्ति के मस्तिष्क में पहुँचकर सक्रिय होते हैं। |
रोग के लक्षण:
रेबीज नामक रोग को प्रभाव व्यक्ति के मस्तिष्क पर होता है। रोग प्रबल होने से पूर्व अन्य संक्रामक रोगों के ही समान व्यक्ति को ज्वर होने लगता है तथा व्याकुलता बढ़ने लगती है। इसके उपरान्त मुख्य रूप से रोगी के गले पर प्रभाव होता है। प्यास अधिक लगती है, किन्तु रोगी किसी भी तरल अथवा ठोस खाद्य-सामग्री को निगलने में नितान्त असमर्थ हो जाता है तथा पानी से दूर भागता है। वह पानी तक नहीं पी सकता और क्रमश: व्याकुलता बढ़ने लगती है तथा गला सूखने लगता है। इस स्थिति में गले से जो आवाज निकलती है वह कुछ असामान्य-सी होने लगती है । जल न पी सकने के कारण शरीर में जल की कमी हो जाती है तथा रोगी की मृत्यु हो जाती है। कुछ लोगों का कहना है कि रेबीज का शिकार व्यक्ति पागल हो जाता है, आक्रामक हो जाता है तथा कुत्ते के समान भौंकने लगता है। ये सब भ्रामक धारणाएँ हैं। वास्तव में रेबीज का शिकार व्यक्ति अन्त तक चेतन रहता है, वह न तो आक्रामक होता है और न ही पागल, किन्तु वह कुछ असामान्य व्यवहार अवश्य करने लगता है। आवाज में परिवर्तन केवल गले की मांसपेशियों की निष्क्रियता के कारण होता है।
रोग से बचने के उपाय:
यह सत्य है कि रेबीज नामक रोग का कोई उपचार सम्भव नहीं है, परन्तु इस रोग से बचा जा सकता है। इस रोग से बचने के लिए दो प्रकार के उपाय किये जा सकते हैं। प्रथम प्रकार के उपाय के अन्तर्गत इस बात का प्रयास किया जाता है कि रेबीज नामक रोग का संक्रमण ही न हो। इसके लिए कुत्ते को जहाँ तक सम्भव हो एण्टीरेबीज टीके नियमित रूप से लगवाये जाने चाहिए। पालतू कुत्ते के सन्दर्भ में तो यह सम्भव है। द्वितीय प्रकार के उपाय रेबीजयुक्त कुत्ते के काटने के उपरान्त किये जाते हैं। इस प्रकार के मुख्य उपाय निम्नलिखित हैं
- कुत्ते अथवा अन्य रेबीज के जीवाणु से युक्त पशु के काटने की स्थिति में काटे गये स्थान को तुरन्त साफ करना चाहिए। इसके लिए साबुन, पानी तथा पोटेशियम परमैंगनेट भी इस्तेमाल किया जा सकता है। कार्बोलिक अम्ल भी घाव पर लगाया जा सकता है। घाव को खुला रखना चाहिए, उस पर पट्टी नहीं बाँधनी चाहिए।
- यदि चिकित्सक की सुविधाएँ उपलब्ध न हों तो काटे गये स्थान पर सरसों का तेल एवं पिसी हुई लाल मिर्च भी लगायी जा सकती हैं। यह एक पारम्परिक उपचार है। चिकित्सा शास्त्र इसका अनुमोदन नहीं करता।
- काटने वाले कुत्ते के रेबीजयुक्त होने की आशंका की स्थिति में तुरन्त अनिवार्य रूप से रेबीज से बचने के टीके (Anti-rabies vaccine) लगवाने चाहिए। ये टीके अब बाजार में उपलब्ध हैं। सरकारी जिला अस्पताल में ये टीके नि:शुल्क लगाये जाते हैं।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1:
रोग-प्रतिरक्षा क्या है? [2008, 10, 12]
उत्तर:
विभिन्न संक्रामक रोगों के कीटाणु हमारे. वायुमण्डल में सदैव व्याप्त रहते हैं, परन्तु सदैव ही ये रोग अधिक जोर नहीं पकड़ते। इसके अतिरिक्त जब ये रोग फैलते हैं, तब भी सभी व्यक्ति इनके शिकार नहीं होते। इसका क्या कारण है? वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में स्वस्थ रहने की इच्छा एवं क्षमता होती है। इसीलिए प्रत्येक रोग के रोगाणुओं से हमारा शरीर संघर्ष भी करता है। जब हमारा शरीर संघर्ष में हार जाता है तभी हम रोग के शिकार हो जाते हैं। इस प्रकार रोगों से लड़ने की जो क्षमता हमारे शरीर में होती है, उसे ही रोग-प्रतिरक्षा (Immunity power) कहते हैं। इसे रोग-प्रतिरोध क्षमता या रोग-प्रतिबन्धक शक्ति भी कहते हैं। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के शरीर में भिन्न-भिन्न समय पर यह क्षमता भिन्न-भिन्न होती है।
प्रश्न 2:
रोग-प्रतिरोध क्षमता कितने प्रकार की होती है? संक्षेप में परिचय दीजिए।[2014, 16]
या
टीकाकरण क्या है? दो टीकों के नाम लिखिए। [2013, 16]
उत्तर:
रोग-प्रतिरक्षा अथवा रोग-प्रतिरोध क्षमता दो प्रकार की होती है, जिन्हें क्रमशः
(1) प्राकृतिक रोग-प्रतिरोध क्षमता तथा
(2) कृत्रिम या अर्जित रोग-प्रतिरोध क्षमता कहते हैं। इन दोनों प्रकार की रोग-प्रतिरोध क्षमताओं का सामान्य परिचय निम्नलिखित है
(1) प्राकृतिक रोग:
प्रतिरोध क्षमता प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में प्राकृतिक रूप से ही स्वस्थ रहने तथा विभिन्न रोगों का मुकाबला करने की क्षमता होती है। इसे ही प्राकृतिक रोग-प्रतिरोध क्षमता कहते हैं। अच्छे स्वास्थ्य वाले व्यक्तियों व स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने वाले व्यक्तियों तथा सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार ग्रहण करने वाले व्यक्तियों की प्राकृतिक रोग-प्रतिरोध क्षमता : होती है। इसके विपरीत दुर्बल, सामान्य से अधिक परिश्रम करने वाले तथा अनियमित जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्तियों की यह क्षमता घट जाती है।
(2) कृत्रिम अथवा अर्जित रोग-प्रतिरोध क्षमता:
कुछ उपायों एवं परिस्थितियोंवश प्राप्त होने वाली रोग-प्रतिरोध क्षमता को कृत्रिम या अर्जित रोग-प्रतिरोध क्षमता कहा जाता है। यह दो प्रकार की होती है तथा इसे दो रूपों में ही अर्जित किया जाता है। एक प्रकार की अर्जित रोग-प्रतिरोध क्षमता केवल कुछ ही रोगों से बचने के लिए होती है। कुछ रोग ऐसे हैं जो यदि व्यक्ति को एक बार हो जाएँ, तो उन रोगों से बचाव के लिए शरीर में अतिरिक्त क्षमता का विकास हो जाता है तथा वे रोग उस : व्यक्ति को पुन: नहीं हुआ करते। ऐसा अर्जित रोग-प्रतिरोध क्षमता के ही कारण होता है। दूसरे प्रकार की कृत्रिम रोग-प्रतिरोध क्षमता कुछ औषधियों द्वारा प्राप्त की जाती है। इसके लिए सम्बन्धित रोग से बचाव के टीके या इन्जेक्शन लगाए जाते हैं। इस पद्धति के अन्तर्गत जिस भी रोग के प्रति रोग-प्रतिबन्धक क्षमता अर्जित करनी होती है, उसी रोग के विष या प्रतिजीव-विष को रुधिर में उत्पन्न किया जाता है। इससे व्यक्ति के शरीर में कृत्रिम रोग-प्रतिरोध क्षमता अर्जित की जाती है।
इस प्रक्रिया को टीकाकरण कहते हैं। अब प्राय: सभी संक्रामक रोगों से बचाव के टीके खोज लिए गये हैं। जैसे कि क्षय रोग से बचाव का टीका बी०सी०जी० के टीके के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार डी०पी०टी० का टीका डिफ्थीरिया, काली खाँसी तथा टिटनेस से बचाव करता है। इसी प्रकार पोलियो, टायफाइड, चेचक, खसरा आदि से बचाव के टीके लगाये जाते हैं।
प्रश्न 3:
टिप्पणी लिखिए-उदभवन अवधि।
उत्तर:
उदभवन अवधि
सभी संक्रामक रोग रोगाणुओं द्वारा फैलते हैं। रोग के कीटाणु व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करने के बाद निरन्तर बढ़ने लगते हैं। शरीर इन्हें समाप्त करने के लिए संघर्ष भी करता है। यदि रोगाणुओं की विजय होती हैं, तो व्यक्ति रोगी हो जाता है, व्यक्ति में रोग के लक्षण स्पष्ट रूप से दिखायी देने लगते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि शरीर में कीटाणु के प्रवेश तथा रोग के लक्षण प्रकट होने के मध्य कुछ काल होता है। यह काल ही रोग की उदभवन अवधि या सम्प्राप्ति काल (Incubation period) कहलाता है। भिन्न-भिन्न रोगों का यह सम्प्राप्ति काल अथवा उद्भवन अवधि भिन्न-भिन्न होती है। कुछ मुख्य संक्रामक रोगों की उद्भवने अवधि निम्नवर्णित है
प्रश्न 4:
निःसंक्रमण से आप क्या समझती हैं? [2008, 10]
उत्तर:
सभी संक्रामक रोग किसी-न-किसी रोगाणु के कारण ही उत्पन्न होते हैं। रोगाणुओं के एक व्यक्ति से अन्य व्यक्तियों तक पहुँचने की प्रक्रिया को ही रोग का संक्रमण या रोग का फैलना कहा जाता है। जैसे-जैसे रोगाणु बढ़ते हैं वैसे-वैसे रोग का विस्तार होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिए आवश्यक है कि रोगाणुओं को नष्ट करने के यथा-सम्भव उपाय किए जाएँ। रोगाणुओं को समाप्त करने की प्रक्रिया एवं उपायों को लागू करने को ही निःसंक्रमण या विसंक्रमण (Disinfection) कहा जाता है। नि:संक्रमण के लिए भिन्न-भिन्न उपायों को अपनाया जाता है।
प्रश्न 5:
निःसंक्रामक तत्त्व से आप क्या समझते हैं? ये कितने प्रकार के होते हैं? [2008, 10]
या
निःसंक्रामक से क्या तात्पर्य है? किन्हीं चार रासायनिक निःसंक्रामकों का वर्णन कीजिए। [ 12013, 14]
या
निःसंक्रामक पदार्थ किसे कहते हैं? किन्हीं तीन निःसंक्रामक पदार्थों के नाम लिखिए। [2008]
उत्तर:
विभिन्न प्रकार के रोगाणुओं को नष्ट करने के लिए अर्थात् नि:संक्रमण के लिए अपनाए जाने वाले उपायों एवं साधनों को ही नि:संक्रामक तत्त्व एवं कारक कहा जाता है। व्यवहार में अनेक प्रकार के नि:संक्रामक तत्त्वों को अपनाया जाता है। अध्ययन की सुविधा के लिए समस्त नि:संक्रामक तत्त्वों को तीन वर्गों में बाँटा जाता है। ये वर्ग हैं:-क्रमशः भौतिक नि:संक्रामक, प्राकृतिक नि:संक्रामक तथा रासायनिक नि:संक्रामक। भौतिक नि:संक्रामक उपायों में मुख्य हैं—जलाना, उबालना, भाप तथा गर्म वायु। ये सभी उपाय उच्च ताप से सम्बन्धित हैं। उच्च ताप पाकर सभी प्रकार के रोगाणु शीघ्र ही मर जाते हैं। प्राकृतिक नि:संक्रामकों में सूर्य के प्रकाश, ताप, वायु तथा ऑक्सीजन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। धूप से अधिकांश रोगाणु नष्ट हो जाते हैं। वायु के प्रवाह से भी सीलन से उत्पन्न होने वाले रोगाणु नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार वायु की ऑक्सीजन भी एक उत्तम कीटाणुनाशक है। जहाँ तक रासायनिक नि:संक्रामकों का प्रश्न है, इनके अन्तर्गत तीन प्रकार के रासायनिक पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है। ये पदार्थ हैं–तरल, गैसीय तथा ठोस रासायनिक नि:संक्रामक पदार्थ। मुख्य तरल नि:संक्रामक हैं—फिनाइल, कार्बोलिक एसिड, फार्मेलिन, लाइजोल आदि। गैसीय रासायनिक पदार्थ हैं-सल्फर डाइऑक्साइड गैस तथा क्लोरीन गैस। ठोस रासायनिक नि:संक्रामकों में मुख्य हैं—चूना, ब्लीचिंग पाउडर, पोटैशियम परमैंगनेट तथा नीला थोथा
प्रश्न 6:
टिप्पणी लिखिए-इन्फ्लुएन्जा।
उत्तर:
इन्फ्लुएन्जा या फ्लू आमतौर पर एक फैलने वाला संक्रामक रोग है। सामान्य रूप से मौसम के बदलते समय यह रोग अधिक होता है। इस रोग का प्रसार बड़ी तेजी से होता है; अतः इससे बचाव के लिए विशेष सावधानी रखनी पड़ती है।
कारण तथा प्रसार:
फ्लू नामक रोग एक अति सूक्ष्म जीवाणु द्वारा फैलता है। यह रोगाणु इन्फ्लुएन्जा वायरस कहलाता है। जुकाम के बिगड़ जाने पर फ्लू बन जाता है। फ्लू का रोग बहुत ही शीघ्र फैलता है। यह कुछ ही घण्टों में फैल जाता है।
फ्लू नामक रोग रोगी के सम्पर्क द्वारा भी फैल जाता है। फ्लू के रोगी की छींक, खाँसी तथा थूक आदि द्वारा भी फ्लू फैलता है। रोगी द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले रूमाल, बर्तन तथा अन्य वस्तुओं के सम्पर्क द्वारा भी यह रोग लग सकता है।
लक्षण: फ्लू प्रारम्भ में जुकाम के रूप में प्रकट होता है। नाक से पानी बहने लगता है। इस रोग के शुरू होते ही शरीर में दर्द होने लगता है। सारे शरीर में बेचैनी होती है तथा कमजोरी महसूस होती है। इसके साथ-ही-साथ तेज ज्वर 102° से 104° फारेनहाइट तक हो जाता है।
उपचार: फ्लू के रोगी को आराम से लिटा देना चाहिए। रोगी को चिकित्सक को दिखाकर दवा देनी चाहिए। फ्लू के रोगी को विटामिन ‘सी’ युक्त भोजन देना चाहिए।
बचाव के उपाय: फ्लू के रोगी को अन्य व्यक्तियों से दूर ही रहना चाहिए। उसे भीड़ भरे स्थानों पर नहीं जाना चाहिए। रोगी को साफ कमरे में रखना चाहिए। पौष्टिक आहार, उचित विश्राम एवं निद्रा का ध्यान रखना चाहिए।
प्रश्न 7:
मलेरिया रोग फैलने के कारण, लक्षण और बचाव के उपाय लिखिए। मलेरिया के रोगी को क्या भोजन देना चाहिए? [2009, 10, 13, 15, 16]
या
मलेरिया रोग कैसे फैलता है? इस रोग के लक्षण तथा बचाव के उपाय बताइए। [2008]
या
मलेरिया बुखार से बचने के उपाय लिखिए। [2013]
उत्तर:
मलेरिया (Malaria) एक व्यापक रूप से फैलने वाला संक्रामक रोग है। चिकित्सा सम्बन्धी ज्ञान के भरपूर विकास के उपरान्त भी प्रतिवर्ष हमारे देश में लाखों व्यक्ति इस रोग के शिकार होते हैं। जिनमें से अनेक की इस रोग के कारण मृत्यु तक हो जाती है। मलेरिया फैलाने का कार्य मच्छर करते हैं। ऐनोफेलीज जाति के मादा मच्छर मलेरिया के वाहक होते हैं। इस रोग की उत्पत्ति एक परजीवी या पराश्रयी कीटाणु प्लाज्मोडियम (Plasmodium) से होती है। मलेरिया की उद्भवन अवधि 9 से 12 दिन है। व्यक्ति के रक्त में कीटाणु सक्रिय होकर रोग के लक्षण उत्पन्न करते हैं।
लक्षण:
(1) रोग का संक्रमण होने के साथ-ही-साथ व्यक्ति को कंपकपी के साथ जाड़ा लगता है जिससे शरीर का तापमान बढ़ने लगता है। इस स्थिति में व्यक्ति को 103° से 105° फारेनहाईट तक ज्वर हो सकता है।
(2) संक्रमण के साथ-ही-साथ सिर तथा शरीर के अन्य भागों में तेज दर्द होने लगता है।
(3) कभी-कभी तीव्र संक्रमण की दशा में जी मिचलाने लगता है तथा पित्त के बढ़ जाने से उबकाई या उल्टियाँ भी होने लगती हैं।
(4) जब मलेरिया का ज्वर उतरता है उस समय रोगी को पसीना भी आता है।
(5) छोटे बच्चों में मलेरिया के कारण प्लीहा या तिल्ली भी बढ़ जाती है।
बचाव के उपाय:
मलेरिया से बचाव का प्रमुख उपाय शरीर को मच्छरों से बचाना है। मच्छरों से बचाव के लिए दो प्रकार के उपाय किए जा सकते हैं। प्रथम प्रकार के उपायों के अन्तर्गत मच्छरों को समाप्त करने या भगाने के उपाय किए जाते हैं तथा दूसरे प्रकार के उपायों के अन्तर्गत व्यक्ति स्वयं को मच्छरों से सुरक्षित करने के प्रयास करता है।
उपचार:
मलेरिया का सन्देह होने पर रक्त की जाँच करवानी चाहिए। मलेरिया का संक्रमण निश्चित हो जाने पर चिकित्सक से उपचार करवाना चाहिए। मलेरिया के उपचार की अनेक औषधियाँ उपलब्ध हैं। रोगी को पूरी तरह से आराम करना चाहिए। रोग पर शीघ्र नियन्त्रण पाया जा सकता है। रोगी को हल्का तथा सुपाच्य आहार दिया जाना चाहिए।
प्रश्न 8:
काली खाँसी के लक्षण, कारण व बचाव के उपाय लिखिए।
या
कुकुर खाँसी के लक्षण लिखिए। [2015]
उत्तर:
यह रोग साधारणतः 5 वर्ष से कम आयु के शिशुओं को होता है। प्रायः खसरा होने के बाद असावधानी से यह रोग उत्पन्न हो जाता है। इस रोग में बच्चे को रुक-रुककर खाँसी के दौरे पड़ते हैं। जो दिन में पाँच से लेकर बीस बार तक पड़ते हैं। प्रायः खाँसते-खाँसते उल्टी भी हो जाती है। इस रोग का उद्भवन काल 7 से 14 दिन तक होता है।
रोग फैलने के कारण:
काली खाँसी नामक रोग वायु एवं निकट सम्पर्क द्वारा फैलने वाला एक जीवाणु जनित रोग है। इस रोग की उत्पत्ति का कारण होमोकिट्स परटुसिस बेसिनस नामक रोगाणु होता है। रोगी की साँस में इस रोग के जीवाणु रहते हैं जो उसके सम्पर्क में आने से अथवा वायु द्वारा स्वस्थ शिशु को लग जाते हैं तथा उसे भी रोगी बना देते हैं। रोगी बच्चे के खिलौनों तथा वस्त्रों से भी यह छूत फैल जाती है। कुत्तों को यह रोग प्रायः होता रहता है; इसलिए इसे कुकुर खाँसी भी कहते हैं।
उपचार: (1) स्वस्थ बच्चों को रोगी बच्चे के सम्पर्क से बचाकर रखना चाहिए,
(2) रोगी के थूक आदि को जला देना चाहिए तथा नि:संक्रामकों से उसके वस्त्रों, खिलौनों व स्थान को साफ कर देना चाहिए,
(3) रोगी को हवादार कक्ष में रखना चाहिए,
(4) किसी अच्छे चिकित्सक के निर्देशानुसार औषधि लेनी चाहिए।
प्रश्न 9:
व्यक्तिगत स्वच्छता क्यों आवश्यक है? आप बच्चों में इसकी आदत कैसे डालेंगी? [2016]
उत्तर:
व्यक्तिगत स्वच्छता का हमारे जीवन में बहुपक्षीय महत्त्व है। सर्वप्रथम शारीरिक स्वास्थ्य के लिए व्यक्तिगत स्वच्छता अति आवश्यक है। वास्तव में गन्दगी में विभिन्न रोगों के जीवाणु तेजी से पनपते हैं तथा वे हमें रोगग्रस्त बना देते हैं। अधिकांश चर्म रोग तो मुख्य रूप से व्यक्तिगत स्वच्छता के अभाव में ही पनपते हैं। शारीरिक स्वास्थ्य के अतिरिक्त मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी व्यक्तिगत स्वच्छता एक अनिवार्य कारक है। व्यक्तिगत स्वच्छता के अभाव में व्यक्ति को समाज में समुचित स्थान प्राप्त नहीं होता तथा वह अलग-थलग पड़ जाता है। ऐसे में वह हीन भावना का शिकार हो जाता है तथा उसका मानसिक स्वास्थ्य सामान्य नहीं रह पाता। बच्चों को समझा-बुझाकर उनमें इसकी आदत डाली जा सकती है।
प्रश्न 10:
टायफाइड रोग के लक्षण और इससे बचने का उपाय लिखिए। [2016]
उत्तर:
लक्षण:
मियादी बखार के प्रारम्भ होते ही सिर में तेज दर्द होता है तथा व्यक्ति अत्यधिक बेचैनी अनुभव करता है। जैसे-जैसे रोग के कीटाणु व्यक्ति पर अपना असर डालते हैं ज्वर तीव्र होने लगता है। कभी-कभी ज्वर के साथ-ही-साथ सारे शरीर पर छोटे-छोटे सफेद रंग के मोती के समान आकार वाले दाने भी निकल आते हैं। इस लक्षण के ही कारण इस रोग को मोतीझरा भी कहते हैं। मियादी बुखार के कारण आँतों में सूजन तथा अन्य विकार भी आ जाते हैं। रक्त-परीक्षण द्वारा इस रोग की निश्चित रूप से पहचान की जाती है। इस परीक्षण को ही विडाल टेस्ट भी कहते हैं।
रोग से बचाव के उपाय: इस रोग से बचाव के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं।
- सभी व्यक्तियों को चिकित्सक की राय से समय-समय पर टी० ए० बी० का टीका लगवाना चाहिए।
- जिस व्यक्ति को मियादी बुखार हो जाए, उसे अलग रखना चाहिए तथा अन्य व्यक्तियों को उसके सम्पर्क से बचाना चाहिए।
- रोगी के बर्तनों, बिस्तर एवं अन्य वस्तुओं को अलग रखना चाहिए तथा उन्हें उबलते हुए गर्म पानी में धोना चाहिए।
- गाँवों में रोगी के मल-मूत्र को अलग स्थान पर नष्ट करना चाहिए तथा उसमें किसी रोगाणुनाशक तत्त्व को अवश्य डाल देना चाहिए।
- सभी व्यक्तियों को चाहिए कि वे दूध उबालकर पियें; क्योकि इस रोग के रोगाणु दूध के माध्यम से भी संक्रमित हो जाते हैं।
- रोगी व्यक्ति का पूर्ण उपचार करवाना चाहिए।
प्रश्न 11:
खसरा (Measles) नामक रोग के लक्षण, उपचार तथा बचाव के उपाय बताइए। [2009, 10, 11, 12, 13]
या
खसरा से बचने के उपाय लिखिए। [2011]
उत्तर:
खसरा
खसरा भी मुख्य रूप से बच्चों में फैलने वाला रोग है। यह रोग सामान्यतया छोटी आयु के बच्चों को होता है तथा कभी-कभी गम्भीर रूप धारण कर लेता है। खसरा को फैलाने का कार्य पैरामाइक्सोविरिडेयी वर्ग के मॉरबिलि वायरस ही करते हैं। ये जीवाणु व्यक्ति की नाक तथा गले पर आक्रमण करते हैं। रोगी बच्चे की छींक, खाँसी तथा साँस से यह रोग एक-दूसरे को लगता है।
लक्षण: खसरा के जीवाणुओं के प्रभाव से सर्वप्रथम व्यक्ति को जोड़ा लगता है तथा बुखार हो जाता है। इससे काफी बेचैनी होती है। रोगी की आँखें लाल हो जाती हैं तथा आँखों से पानी भी बहने लगता है। खाँसी एवं छींकें भी आने लगती हैं। इसके साथ-ही-साथ खसरा के दाने भी निकलने लगते हैं। पहले ये दाने कानों के पीछे निकलते हैं तथा धीरे-धीरे पूरे शरीर पर निकल आते हैं। पूरे शरीर पर दाने निकलने के साथ-ही-साथ बुखार हो जाता है। 4-5 दिन में ये दाने भी मुरझाने लगते हैं तथा बुखार भी उतर जाता है। लगभग 8-10 दिन में रोगी के सारे दाने समाप्त हो जाते हैं तथा वह स्वस्थ हो जाता है।
उपचार: यदि खसरा बिगड़े नहीं तो किसी खास उपचार की आवश्यकता नहीं होती, परन्तु खसरा के रोगी की उचित देखभाल अवश्य करनी चाहिए, क्योंकि कभी-कभी इस बात का डर रहता है कि कहीं निमोनिया न हो जाए। रोगी को अधिक गर्मी एवं अधिक ठण्ड से बचाना चाहिए।
बचाव के उपाय: खसरा से बचाव के लिए गन्दगी एवं अशुद्ध वातावरण से बचना चाहिए। सन्तुलित एवं पौष्टिक भोजन से बच्चों में रोग से बचने की क्षमता विकसित होती है। अब खसरा से बचने का टीका भी विकसित कर लिया गया है जो छोटे शिशुओं को लगाया जाता है। इसके अतिरिक्त वे सभी उपाय करने चाहिए जो अन्य संक्रामक रोगों को फैलने से रोकने के लिए किए जाते हैं।
प्रश्न 12:
छोटी माता (Chickenpox) नामक रोग का सामान्य परिचय दीजिए। इस रोग के लक्षणों, संक्रमण तथा बचाव एवं उपचार के उपायों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
छोटी माता
छोटी माता भी चेचक के समान एक संक्रामक रोग है, परन्तु यह घातक नहीं है। यह शीत ऋतु का रोग है।
लक्षण: (1) रोग का आरम्भ 99° फारेनहाइट तापमान से होता है। कभी-कभी ज्वर नहीं होता है, चेहरा तथा आँखें लाल हो जाती हैं।
(2) सिर, पीठ में दर्द, बेचैनी व कॅपकपी लगती है। शरीर पर छोटे-छोटे सरसों के बराबर दाने निकलने लगते हैं।
(3) 4-5 दिन में दाने सूखने लगते हैं तथा उन पर पपड़ी बन जाती है।
(4) 6-7 दिन बाद पपड़ी सूखकर गिरने लगती है।
संक्रमण: इस रोग के विषाणु नाक और गले के स्राव में होते हैं। इसके अतिरिक्त फफोले के तरल पदार्थ में भी रहते हैं और यहीं से वायु अथवा सम्पर्क द्वारा स्वस्थ व्यक्तियों तक पहुँचते हैं। अतः दानों की पपड़ी को एकत्र करके जला देना चाहिए।
बचाव एवं उपचार:
- त्वचा को स्वच्छ रखना चाहिए। इससे रोग का और अधिक विस्तार नहीं हो पाता।।
- रोगी को अलग कमरे में रखना चाहिए।
- खुजलाहट दूर करने के लिए मरहम का प्रयोग करना चाहिए।
- पपड़ियाँ सूखकर गिर जाने पर रोगी को किसी हल्के नि:संक्रामक विलयन से स्नान करो देना चाहिए।
- रोगी के कमरे को रोगाणुनाशक पदार्थ से धो डालना चाहिए।
- इस रोग में रोगी को ठण्डी और खट्टी चीजें खाने को नहीं देनी चाहिए। नमक, मिर्च, तेल आदि का परहेज रखना चाहिए।
प्रश्न 13:
डेंगू नामक रोग के घरेलू उपचार बताइये।
उत्तर:
वैसे तो डेंगू का व्यवस्थित उपचार अति आवश्यक होता है परन्तु इससे बचाव तथा रोग नियन्त्रित करने के कुछ घरेलू उपाय भी हैं जिन्हें अपनाया जा सकता है। इस प्रकार के कुछ मुख्य उपाय निम्नवर्णित हैं
- धनियापत्ती: डेंगू बुखार में धनिये की पत्ती के रस को एक टॉनिक के रूप में ग्रहण किया जा सकता है। इससे ज्वर कम हो जाता है।
- आँवला: डेंगू बुखारे में आँवले का उपयोग लाभदायक सिद्ध होता है। इसमें विटामिन ‘सी’ की भरपूर मात्रा होती है जो कि लोह खनिज के शोषण में सहायक होता है।
- तुलसी: तुलसी के पत्तों को पानी में उबालकर उस पानी का सेवन करने से रोगी को विशेष लाभ होता है।
- पपीते के पत्ते: डेंगू रोग के उपचार में पपीते के पत्ते का सेवन विशेष लाभकारी सिद्ध होता है। पपीते के पत्ते के रस के सेवन से प्लेटलेट्स बड़ी तेजी से बढ़ते हैं तथा रोग के नियन्त्रण में सहायता मिलती है।
- बकरी का दूध: बकरी का दूध डेंगू रोग को नियन्त्रित करने में बहुत अधिक सहायक होता है। इसके सेवन से प्लेटलेट्स में बड़ी तेजी से वृद्धि होती है। इसके सेवन से जोड़ों के दर्द में भी
आराम मिलता है। - मेथी के पत्ते: मेथी के पत्तों को उबालकर हर्बल चाय के रूप में सेवन करने से डेंगू बुखार नियन्त्रित हो जाता है।
उपर्युक्त उपायों के अतिरिक्त अनार, काले अंगूर तथा संतरे का जूस भी डेंगू बुखार में लाभकारी सिद्ध होता है।
प्रश्न 14:
टिप्पणी लिखिए-पीत ज्वर (Yellow Fever)
उत्तर:
पीत ज्वर तेजी से फैलने वाला एक संक्रामक रोग है। यह एक वायरसजनित रोग है। इस रोग के विषाणु का संक्रमण एडीस ईजिप्टिआई (Aedes Aegypti) जाति के मच्छरों के माध्यम से होता है।
पीत ज्वर एक गम्भीर रोग है। इसके प्रकोप से रोगी के यकृत तथा गुर्दे की कोशिकाओं को क्षति पहुँचती है। जब रोगी का यकृत प्रभावित होने लगता है तब रोगी में पीलिया के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। ऐसे में त्वचा का रंग पीला दिखाई देने लगता है। यही कारण है कि इस रोग को पीत ज्वर नाम दिया गया है। सामान्य रूप से पीत ज्वर दस दिन तक रहता है तथा घातक न हो तो धीरे-धीरे रोगी ठीक होने लगता है।
रोग के लक्षण:
1. रोग के बढ़ते ही व्यक्ति को तेज बुखार होता है।
2. प्रायः रोगी को ठंड लगती है तथा कँपकँपी होती है।
3. पीठ में काफी दर्द होता है।
4. रोगी का शरीर पीला पड़ने लगता है।
बचाव के उपाय:
1. रोग से बचाव का सर्वोत्तम उपाय है-मच्छरों से बचाव का हर सम्भव उपाय करना।
2. इस रोग से बचाव का टीका भी है। एक बार लगवाये गये टीके का प्रभाव लगभग चार वर्ष तक रहता है।
सामान्य उपचार: पीत ज्वर के लक्षण प्रकट होते ही तुरन्त चिकित्सक के परामर्श के अनुसार उपचार किया जाना चाहिए। रोग का कोई कारगर घरेलू उपचार नहीं है।
प्रश्न 15:
इन्सेफेलाइटिस (Encephalitis) नामक रोग के लक्षण, बचाव के उपाय तथा उपचार बतायें।
उत्तर:
वायरस से संक्रमित होने वाला एक गम्भीर संक्रामक रोग इन्सेफेलाइटिस या जापानी इन्सेफेलाइटिस (Japanese Encephalitis) भी है। इसे दिमागी बुखार या मस्तिष्कीय ज्वर भी कहा जाता है। इस रोग के वायरस का संक्रमण एक विशेष प्रकार के मच्छर या सूअर के माध्यम से होता है। सूअर को ही इस रोग का मुख्य वाहक माना जाता है।
यह रोग मुख्य रूप से छोटे बच्चों (1 से 14 वर्ष) तथा 65 वर्ष से अधिक आयु वाले व्यक्तियों को हुआ करता है। हमारे देश के 19 राज्यों के 171 जिलों में इस रोग का अधिक प्रकोप रहता है। इस रोग से हर वर्ष अनेक बच्चों एवं बड़े व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है। इस रोग का प्रकोप अगस्त, सितम्बर तथा अक्टूबर के महीनों में अधिक होता है।
इन्सेफेलाइटिस रोग के मुख्य लक्षण: इन्सेफेलाइटिस या दिमागी बुखार के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं
- रोगी अतिसंवेदनशील हो जाता है।
- रोगी को दुर्बलता महसूस होती है तथा उल्टियाँ भी होती हैं।
- यदि छोटे बच्चे को यह रोग होता है तो वह निरन्तर रोता है।
- तेज ज्वर होता है तथा सिरदर्द होता है। रोग के बढ़ने के साथ-ही-साथ सिरदर्द में बढ़ोतरी होती है।
- रोगी की गर्दन अकड़ जाती है।
- व्यक्ति को भूख कम लगती है।
- रोगी को लकवा मार जाता है। स्थिति बिगड़ने पर व्यक्ति कोमा में भी जा सकता है।
बचाव के उपाय:
- सही समय पर रोग से बचाव के लिए टीकाकरण कराएँ।
- हर प्रकार की सफाई का विशेष ध्यान रखें।
- गन्दे पानी के सम्पर्क में आने से बचना आवश्यक है।
- मच्छरों से बचाव के हर सम्भव उपाय करने चाहिए।
- घरों के आस-पास पानी न जमा होने दें। वर्षा ऋतु में इसका विशेष ध्यान रखना आवश्यक
- बच्चों को अच्छा पौष्टिक आहार दें।
उपचार: इन्सेफेलाइटिस रोग का कोई भी लक्षण दिखाई देते ही तुरन्त योग्य चिकित्सक से सम्पर्क करें तथा व्यवस्थित उपचार आरम्भ कर दें।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1:
संक्रामक रोग किसे कहते हैं? मुख्य संक्रामक रोगों के नाम लिखिए। [2007, 10, 13, 14, 16, 17]
उत्तर:
वे रोग जो जीवाणुओं के माध्यम से एक व्यक्ति अथवा प्राणी से दूसरे व्यक्ति अथवा प्राणी को लग जाते हैं, उन्हें संक्रामक रोग कहा जाता है। मुख्य संक्रामक रोग हैं-चेचक, तपेदिक, हैजा, मियादी बुखार, डेंगू, चिकनगुनिया, इन्सेफेलाइटिस आदि।
प्रश्न 2:
संक्रामक रोग किन-किन माध्यमों द्वारा फैलते हैं? [2007, 09, 11]
उत्तर:
संक्रामक रोग वायु, जल, भोजन, सम्पर्क तथा रक्त द्वारा या कीड़ों के काटने के द्वारा फैलते हैं।
प्रश्न 3:
वायु द्वारा फैलने वाले रोगों के नाम लिखिए। [2011]
उत्तर:
वायु द्वारा फैलने वाले मुख्य रोग हैं-चेचक, इन्फ्लुएन्जा, खसरा, काली खाँसी, क्षय रोग, डिफ्थीरिया आदि।
प्रश्न 4:
जल एवं भोजन के माध्यम से फैलने वाले मुख्य रोगों के नाम बताइए।
उत्तर:
जल के माध्यम से फैलने वाले मुख्य रोग है हैजा, मोतीझरा या मियादी बुखार, अतिसार, पेचिस तथा पीलिया।
प्रश्न 5:
प्रत्यक्ष सम्पर्क द्वारा फैलने वाले मुख्य रोगों के नाम लिखिए।
उत्तर:
प्रत्यक्ष सम्पर्क द्वारा फैलने वाले मुख्य रोग हैं-दाद, खाज, खुजली, एग्जीमा, एड्स तथा हेपेटाइटिस ‘बी’ आदि ।
प्रश्न 6:
रोग-प्रतिरक्षा से आप क्या समझती हैं? [2008, 09, 10, 12, 14, 16, 17, 18]
उत्तर:
शरीर में पाई जाने वाली उस शक्ति को रोग-प्रतिरक्षा या रोग प्रतिरोधक-क्षमता कहा जाता है जो विभिन्न रोगों के रोगाणुओं से लड़ने के लिए होती है।
प्रश्न 7:
रोग-प्रतिरोध क्षमता कितने प्रकार की होती है? [2014, 16]
उत्तर:
रोग-प्रतिरोध क्षमता मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है। ये प्रकार हैं-प्राकृतिक रोगप्रतिरोध क्षमता तथा कृत्रिम अथवा अर्जित रोग-प्रतिरोध क्षमता।
प्रश्न 8:
कृत्रिम अथवा अजित रोग-प्रतिरोध क्षमता को प्राप्त करने का मुख्य उपाय क्या है?
उत्तर:
कृत्रिम अथवा अर्जित रोग-प्रतिरोध क्षमता को प्राप्त करने के लिए सम्बन्धित रोग के टीके या इन्जेक्शन लगवाने पड़ते हैं।
प्रश्न 9:
रोग के उद्भवन काल से आपका क्या तात्पर्य है? [2016]
उत्तर:
किसी भी संक्रामक रोग के रोगाणुओं के शरीर में प्रवेश करने तथा रोग के लक्षण प्रकट होने के मध्य काल को रोग का उद्भवन काल कहते हैं।
प्रश्न 10:
निःसंक्रमण से आप क्या समझती हैं।
उत्तर:
विभिन्न रोगों के रोगाणुओं को समाप्त करने की प्रक्रिया एवं उपायों को लागू करने को ही नि:संक्रमण कहा जाता है।
प्रश्न 11:
निःसंक्रामक पदार्थ क्या हैं ? [2009]
उत्तर:
वे पदार्थ जो रोगाणुओं को नष्ट करने में इस्तेमाल किए जाते हैं, उन्हें ही नि:संक्रामक पदार्थ कहा जाता है।
प्रश्न 12:
किन्हीं दो रासायनिक निःसंक्रामक तत्वों का उल्लेख कीजिए। [2011]
उत्तर:
ब्लीचिंग पाउडर तथा क्लोरीन गैस रासायनिक नि:संक्रामक हैं।
प्रश्न 13:
सूर्य के प्रकाश का रोगाणुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
सूर्य के प्रकाश से अनेक रोगाणु नष्ट हो जाते हैं।
प्रश्न 14:
चेचक उत्पन्न करने वाले रोगाण का नाम लिखिए।
उत्तर:
चेचक उत्पन्न करने वाले रोगाणु को वरियोला वायरस कहते हैं।
प्रश्न 15:
डिफ्थीरिया उत्पन्न करने वाले रोगाणु का नाम लिखिए।
उत्तर:
डिफ्थीरिया उत्पन्न करने वाले रोगाणु को कोरीनी बैक्टीरियम डिफ्थीरी कहते हैं।
प्रश्न 16:
डिफ्थीरिया नामक रोग किस आयु-वर्ग के बच्चे को होता है?
उत्तर:
डिफ्थीरिया रोग सामान्यतया 2 से 5 वर्ष की आयु के बच्चों को अधिक होता है।
प्रश्न 17:
डी०पी०टी० के तीन टीके लगाने से किन-किन रोगों से प्रतिरक्षा होती है? [2007]
उत्तर:
डी०पी०टी० के टीके लगाने से डिफ्थीरिया, काली खाँसी तथा टिटनेस नामक रोगों से प्रतिरक्षा होती है।
प्रश्न 18:
क्षय रोग के दो लक्षण लिखिए। क्षय रोग से बचाव के लिए कौन-सा टीका लगाया जाता है? [2007]
या
बी०सी०जी० का टीका किस रोग की रोकथाम के लिए लगाया जाता है? [2008, 18]
उत्तर:
क्षय रोग में व्यक्ति का वजन घटने लगता है, दुर्बलता महसूस होती है तथा उसे हल्का ज्वर रहता है। क्षय रोग से बचाव के लिए बी०सी०जी० का टीका लगवाया जाता है।
प्रश्न 19:
टिटनेस नामक रोग किस जीवाणु से फैलता है? [2018]
या
टिटनेस फैलाने वाले सूक्ष्म जीवाणु का नाम क्या है? इस रोग की रोकथाम के दो उपाय लिखिए।
उत्तर:
टिटनेस नामक रोग क्लॉस्ट्रीडियम टिटेनाइ नामक जीवाणु द्वारा फैलता है।
रोकथाम के उपाय
1. प्रसव के समय माँ को तथा 3 से 5 माह के बच्चे को टिटनेस का टीका लगवा देना चाहिए।
2. त्वचा फटने, छिलने व घाव होने पर, तुरन्त टैटवैक का इन्जेक्शन लगवाना चाहि
प्रश्न 20:
विषाक्त भोजन से क्या तात्पर्य है? [2011]
उत्तर:
जिस भोजन में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तत्वों का समावेश हो उसे विषाक्त भोजन कहा जाता है।
प्रश्न 21:
आहार-विषाक्तता के लिए जिम्मेदार जीवाणु समूहों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
आहार-विषाक्तता के लिए जिम्मेदार जीवाणु समूह हैं साल्मोनेला समूह, स्टेफाईलोकोकाई समूह, क्लॉस्ट्रीडियम समूह तथा क्लॉस्ट्रीडियम बौटूलिनम समूह।
प्रश्न 22:
मलेरिया उत्पन्न करने वाले जीवाणु का नाम बताइए। इस रोग को फैलाने में किस जीव का मुख्य योगदान होता है?
उत्तर:
मलेरिया उत्पन्न करने वाले जीवाणु का नाम है-प्लाज्मोडियम। इस रोग को फैलाने में मच्छर का योगदान होता है।
प्रश्न 23:
मलेरिया के लक्षण लिखिए। [2011, 16]
उत्तर:
मलेरिया रोग में तेज ज्वर होता है तथा कैंपकपी होने लगती है। इसके साथ ही साथ सिर में दर्द होना, जी मिचलाना तथा थकान होना भी मलेरिया के लक्षण होते हैं।
प्रथम 24:
मच्छर से बचने के उपाय लिखिए। [2007]
उत्तर:
मच्छर से बचने के उपाय दो प्रकार के हैं। इनमें एक प्रकार के मच्छरों को स्वयं से दूर करने या मारने के लिए किए जाते हैं और दूसरी प्रकार के अन्तर्गत व्यक्ति स्वयं को मच्छरों से बचाने के प्रयास करता है। मच्छरों को मारने के लिए बाजार में मच्छरमार क्वायल या घरों में छिड़कने की दवाएँ उपलब्ध हैं। दूसरे उपाय के तौर पर हमें ऐसे उपाय करने होते हैं जिससे मच्छर हमारे घरों व उसके आसपास जमा न हो सकें।
प्रश्न 25:
क्षय रोग के कारण लिखिए। [2008]
उत्तर:
क्षय रोग फैलने के कारणों में सबसे प्रमुख हैं–इसका जीवाणु ट्यूबरकिल बैसिलस। यह रोग प्रायः वायु या श्वास द्वारा फैलता है। इसके अलावा यह रोग अत्यधिक श्रम व कुपोषण के कारण, लम्बे समय तक दुर्गन्ध व सीलनयुक्त कमरों में रहने से और मादक द्रव्यों का अत्यधिक सेवन करने से फैलता है। क्षय रोग से ग्रस्त गाय का दूध पीने से भी यह रोग फैलता है।
प्रश्न 26:
खसरा के लक्षण लिखिए। [2009, 18]
उत्तर:
खसरा के जीवाणुओं से प्रभावित व्यक्ति को सर्वप्रथम ठण्ड लगती है, बुखार आ जाता है, काफी बेचैनी महसूस होती है, आँखें लाल हो जाती हैं तथा आँखों से पानी आने लगती है। खाँसी एवं छींकें भी आती हैं, साथ-ही-साथ खसरा के दाने भी निकलने लगते हैं।
प्रश्न 27:
डेंगू कैसे फैलता है?
उत्तर:
डेंगू मादा एडीज मच्छर के काटने से फैलता है।
प्रश्न 28:
डेंगू रोग के मुख्य लक्षण बतायें।
उत्तर:
डेंगू रोग में तेज बुखार होता है तथा रोगी को सिरदर्द, कमरदर्द तथा जोड़ों में दर्द होता है।
प्रश्न 29:
डेंगू रोग में गम्भीर स्थिति क्या होती है?
उत्तर:
डेंगू हेमोरेजिक बुखार में रक्त में प्लेटलेट्स की अत्यधिक कमी होने लगती है। यह स्थिति रोग की गम्भीर स्थिति होती है।
प्रश्न 30:
चिकनगुनिया के मुख्य लक्षण बतायें।
उत्तर:
चिकनगुनिया रोग में जोड़ों में दर्द होता है तथा साथ ही ज्वर होता है। त्चचा शुष्क हो जाती है तथा प्रायः त्वचा पर लाल चकत्ते पड़ जाते हैं। बच्चों में रोग के संक्रमण से उल्टियाँ भी होने लगती
हैं।
प्रश्न 31:
पीत ज्वर का संक्रमण कैसे होता है?
उत्तर:
पात ज्वर एक वायरसजनित रोग है। इस रोग के विषाणु का संक्रमण एडीस ईजिप्टिआई जाति के मच्छरों के माध्यम से होता है।
प्रश्न 32:
हाथीपाँव नामक रोग को अन्य किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर:
हाथीपाँव नामक रोग को फाइलेरिया नाम से भी जाना जाता है।
प्रश्न 33:
फाइलेरिया रोग कैसे फैलता है?
उत्तर:
फाइलेरिया एक कृमिजनित रोग है। इस कृमि को फाइलेरिया क्रॉफ्टी कहते हैं। इसे कृमि को फैलाने का कार्य क्यूलेक्स मच्छर द्वारा किया जाता है।
प्रश्न 34:
इन्सेफेलाइटिस रोग का वाहक कौन है?
उत्तर:
इन्सेफेलाइटिस रोग का वाहक सूअर होता है?
प्रश्न 35:
कौन-कौन से हेपेटाइटिस रोग से बचाव के टीके उपलब्ध हैं?
उत्तर:
हेपेटाइटिस ‘A’ तथा ‘B’ से बचाव के लिए टीके उपलब्ध हैं।
प्रश्न 36:
रेबीज या हाइड्रोफोबिया रोग के विषाणु को क्या कहते हैं।
उत्तर:
न्यूरोरिहाइसिटीज हाइड्रोफोबी
प्रश्न 37:
हाइड्रोफोबिया से बचाव का क्या उपाय है?
उत्तर:
संक्रमित कुत्ते आदि के काटने पर ऐण्टीरेबीज इंजेक्शन लगवाकर हाइड्रोफोबिया नामक रोग
से बचा जा सकता है।
बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न:
निम्नलिखित बहुविकल्पीय प्रश्नों के सही विकल्पों का चुनाव कीजिए
1. स्वस्थ मनुष्य किससे मुक्त रहता है? [2013]
(क) रोग
(ख) धन
(ग) चिन्ता
(घ) भय
2. रोगाणुओं के शरीर में प्रवेश करने के कारण उत्पन्न होने वाले रोगों को कहते हैं
(क) साधारण रोग
(ख) घातक रोग
(ग) संक्रामक रोग
(घ) गम्भीर रोग
3. सभी संक्रामक फैलते हैं [2012, 16, 17]
(क) गन्दगी द्वारा
(ख) लापरवाही से
(ग) रोगाणुओं द्वारा
(घ) बिना किसी कारण के
4. शरीर की रोगों से लड़ने की क्षमता को कहते हैं
(क) नि:संक्रमण क्षमता
(ख) सम्प्राप्ति काल
(ग) शारीरिक क्षमता
(घ) रोग-प्रतिरोध क्षमता
5. सभी व्यक्तियों में रोग-प्रतिरोध क्षमता होती है
(क) समान
(ख) भिन्न-भिन्न
(ग) आवश्यकतानुसार
(घ) नहीं होती।
6. संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिए स्वस्थ व्यक्ति को चाहिए कि वह [2010]
(क) टीके लगवाए
(ख) स्वादिष्ट भोजन ग्रहण करे
(ग) धूप में बैठे
(घ) भ्रमण करे
7. वायु द्वारा फैलने वाले रोग हैं
(क) चेचक
(ख) तपेदिक
(ग) काली खाँसी
(घ) ये सभी
8. कौन-सा रोग जल द्वारा फैलता है?
(क) टिटनेस
(ख) कुकुर खाँसी
(ग) खसरा
(घ) हैजा
9. तपेदिक के रोगाणु को कहते हैं
(क) वरियोला वायरस
(ख) विब्रियो कोलेरी
(ग) ट्यूबरकिल बैसिलस
(घ) बैसिलस टाइफोसिस
10. बी०सी०जी० का टीका किस रोग की रोकथाम के लिए लगाया जाता है? [2007, 08, 13, 17, 18]
(क) कर्णफेर
(ख) तपेदिक
(ग) पोलियो
(घ) पीलिया
11. डिफ्थीरिया नामक रोग में होने वाला विकार है
(क) लार ग्रन्थियों में सूजन
(ख) चेहरे पर लाल दाने निकल आना
(ग) गले में झिल्ली का बन जाना
(घ) टॉन्सिल्स में वृद्धि हो जाना
12. टिटनेस में होने वाला मुख्य विकार है
(क) तेज ज्वर
(ख) शरीर का ऐंठ जाना
(ग) टाँगों का जकड़ जाना
(घ) चेतना का लुप्त हो जाना
13. मच्छरों से कौन-सा रोग फैलता है? [2008, 09, 13, 14, 15, 17, 18]
(क) चेचक
(ख) क्षय रोग
(ग) मलेरिया
(घ) टायफाइड
14. मक्खी द्वारा फैलता है [2008, 13]
(क) मलेरिया
(ख) प्लेग
(ग) हैजा
(घ) रेबीज
15. कुकुर खाँसी फैलने का कारण है
(क) जीवाणु
(ख) वायु
(ग) जल
(घ) भोजन
16. रेबीपुर की सूई………. काटने पर लगाई जाती है। [2007]
(क) मच्छर के
(ख) खटमल के
(ग) कुत्ते के
(घ) साँप के
17. रोग के रोगाणु शरीर में प्रवेश करने से रोग उत्पन्न होने तक के काल को कहते हैं [2007]
(क) संक्रमण काल
(ख) सम्प्राप्ति काल
(ग) रोग का प्रकोप
(घ) रोग सुधार की अवधि
18. टेटवैक (ए०टी०एस०) का इन्जेक्शन किस रोग से बचाव के लिए लगाया जाता है? [2008, 12, 15, 16]
(क) टिटनेस
(ख) डिफ्थीरिया
(ग) हैजा
(घ) तपेदिक
19. टिटनेस रोग के जीवाणु पाये जाते हैं। [2014]
(क) मिट्टी में
(ख) गोबर में
(ग) जंग लगे लोहे में
(घ) इन सभी में
20. उत्तम स्वास्थ्य का प्रतीक है [2012, 16]
(क) सुन्दर बाल
(ख) चमकती आँखें
(ग) मजबूत मांसपेशियाँ
(घ) ये सभी
21. क्षय रोग के रोगी को किस प्रकार का भोजन हानि पहुँचाता है? [2015]
(क) मौसमी रस वाले फल
(ख) मिर्च-मसालेदार भोजन
(ग) दूध
(घ) अण्डा
22. डेंगू रोग फैलता है [2018]
(क) दूषित जल से
(ख) दूषित वायु से
(ग) मच्छर के काटने से
(घ) उपरोक्त सभी के द्वारा
23. डेंगू रोग के विषय में सत्य है
(क) यह एक संक्रामक रोग है।
(ख) इसका संक्रमण मादा एडीज मच्छर के काटने से होता है।
(ग) गम्भीर स्थिति में रक्त के प्लेटलेट्स तेजी से घटने लगते हैं।
(घ) उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं।
24. चिकनगुनिया के उपचार के उपाय हैं
(क) रोगी को अधिक से अधिक विश्राम करना चाहिए।
(ख) रोगी को अधिक से अधिक पानी पीना चाहिए
(ग) रोगी को दूध तथा दूध से बने भोज्य-पदार्थों का सेवन करना चाहिए।
(घ) उपर्युक्त सभी उपाय
25. इन्सेफेलाइटिस रोग का लक्षण है
(क) रोगी अतिसंवेदनशील हो जाता है।
(ख) रोगी को दुर्बलता महसूस होती हैं तथा उल्टियाँ भी होती हैं।
(ग) रोगी की गर्दन अकड़ जाती है।
(घ) उपर्युक्त सभी लक्षण
26. हेपेटाइटिस रोग का मुख्य लक्षण है
(क) पीलिया के लक्षण प्रकट होना।
(ख) अधिक भूख लगना
(ग) वजन बढ़ना
(घ) कोई भी लक्षण
27. किस रोग में रोगी के गले की मांसपेशियाँ निष्क्रिय हो जाती है तथा वह कुछ भी निगल नहीं पाता?
(क) मलेरिया
(ख) फाइलेरिया
(ग) हाइड्रोफोबिया
(घ) इन्सेफेलाइटिस
उत्तर:
1. (क) रोग,
2. (ग) संक्रामक रोग,
3. (ग) रोगाणुओं द्वारा,
4. (घ) रोग-प्रतिरोध क्षमता,
5. (ख) भिन्न-भिन्न,
6. (क) टीके लगवाए,
7. (घ) ये सभी,
8. (घ) हैजा,
9. (ग) यूवकिल बैसिलस,
10. (ख) तपेदिक,
11. (ग) गले में झिल्ली को बन जाना,
12. (ख) शरीर का रेट जाना,
13. (ग) मलेरिया,
14. (ग) हैजा,
15. (क) जीवाण,
16. (ग) कुत्ते के,
17. (ख) सम्प्राप्ति काल,
18. (क) टिटनेस,
19. (घ) इन सभी में,
20. (घ) ये सभी,
21. (ख) मिर्च-मसालेदार भोजन,
22. (ग) मच्छर के काटने से,
23. (घ) उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं,
24. (घ) उपर्युक्त सभी उपाय
25. (घ) उपर्युक्त सभी लक्षण,
26. (क) पीलिया के लक्षण प्रकट होना,
27. (ग) हाइड्रोफोबिया।
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