UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 4 भारतीय संस्कृति (गद्य खंड)

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जीवन-परिचय एवं कृतियाँ

प्रश्न 1.
डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के जीवन-परिचय एवं रचनाओं पर प्रकाश डालिए। [2009, 10]
या
डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए। [2009]
या
डॉ० राजेन्द्र प्रसाद का जीवन-परिचय दीजिए तथा उनकी रचनाओं के नाम लिखिए। [2011, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
उत्तर
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद एक सादगीपसन्द कृषक पुत्र थे। जहाँ वे एक देशभक्त राजनेता थे, वहीं कुशल वक्ता एवं श्रेष्ठ लेखक भी थे। सत्यनिष्ठा, ईमानदारी और निर्भीकता इनके रोम-रोम में बसी हुई थी। साहित्य के क्षेत्र में भी इनका योगदान बहुत स्पृहणीय रहा है। अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से इन्होंने हिन्दी-साहित्य को समृद्ध किया है। सांस्कृतिक, शैक्षिक, सामाजिक आदि विषयों पर लिखे गये इनके लेख हिन्दी-साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।

जीवन-परिचय-देशरत्न डॉ० राजेन्द्र प्रसाद का जन्म सन् 1884 ई० में बिहार राज्य के छपरा जिले के जीरादेई नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम महादेव सहाय था। इनका परिवार गाँव के सम्पन्न और प्रतिष्ठित कृषक परिवारों में से धा। इन्होंने कलकत (कोलकाता) विश्वविद्यालय से एम० ए०: t!ल-एल० बी० की परीक्षा उतीर्ण की थी। ये प्रतिभासम्पन्न और मेधावी छात्र थे और परीक्षा में सदैव प्रथम आते थे। कुछ समय तक मुजफ्फरपुर कॉलेज में अध्यापन कार्य करने के पश्चात् ये.पटना और कलकत्ता हाईकोर्ट में वकील भी रहे। इनका झुकाव प्रारम्भ से ही राष्ट्रसेवा की ओर था। सन् 1917 ई० में गाँधी जी के आदर्शों और सिद्धान्तों से प्रभावित होकर इन्होंने चम्पारन के आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया और वकालत छोड़कर पूर्णरूप से राष्ट्रीय स्वतन्त्रता-संग्राम में कूद पड़े। अनेक बार जेल की यातनाएँ भी भोगीं। इन्होंने विदेश जाकर भारत के पक्ष को विश्व के सम्मुख रखा। ये तीन बार अखिल भारतीय कांग्रेस के सभापति तथा भारत के संविधान का निर्माण करने वाली सभा के सभापति चुने गये।।

राजनीतिक जीवन के अतिरिक्त बंगाल और बिहार में बाढ़ और भूकम्प के समय की गयी इनकी सामाजिक सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता। ‘सादा जीवन उच्च-विचार’ इनके जीवन को पूर्ण आदर्श था। इनकी प्रतिभा, कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी और निष्पक्षता से प्रभावित होकर इनको भारत गणराज्य का प्रथम राष्ट्रपति बनाया गया। इस पद को ये संन् 1952 से सन् 1962 ई० तक सुशोभित करते रहे। भारत सरकार ने इनकी महानताओं के सम्मान-स्वरूप देश की सर्वोच्च उपाधि ‘भारतरत्न’ से सन् 1962 ई० में इनको अलंकृत किया। जीवन भर राष्ट्र की नि:स्वार्थ सेवा करते हुए ये 28 फरवरी, 1963 ई० को दिवंगत हो गये।
रचनाएँ-राजेन्द्र बाबू की प्रमुख रचनाओं का विवरण निम्नवत् है

(1) ‘चम्पारन में महात्मा गाँधी’—इसमें किसानों के शोषण और अंग्रेजों के विरुद्ध गाँधीजी के . आन्दोलन का बड़ा मार्मिक वर्णन है। (2) ‘बापू के कदमों में-इसमें महात्मा गाँधी के प्रति श्रद्धा-भावना व्यक्त की गयी है। (3)‘मेरी आत्मकथा’—यह राजेन्द्र बाबू द्वारा सन् 1943 ई० में जेल में लिखी गयी थी। इसमें तत्कालीन भारत की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति का लेखा-जोखा है। (4) ‘मेरे यूरोप के अनुभव’-इसमें इनकी यूरोप की यात्रा का वर्णन है। इनके भाषणों के भी कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त (5) शिक्षा और संस्कृति, (6) भारतीय शिक्षा, (7) गाँधीजी की देन, (8), साहित्य, (9) संस्कृति का अध्ययन, (10) खादी का अर्थशास्त्र आदि इनकी अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं। |

साहित्य में स्थान–डॉ० राजेन्द्र प्रसाद सुलझे हुए राजनेता होने के साथ-साथ उच्चकोटि के विचारक, साहित्य-साधक और कुशल वक्ता थे। ये ‘सादी भाषा और गहन विचारक’ के रूप में सदैव स्मरण किये जाएँगे। हिन्दी की आत्मकथा विधा में इनकी पुस्तक मेरी आत्मकथा’ का उल्लेखनीय स्थान है। ये हिन्दी के अनन्य सेवक और प्रबल प्रचारक थे। राजनेता के रूप में अति-सम्मानित स्थान पर विराजमान होने के साथ-साथ हिन्दी-साहित्य में भी इनका अति विशिष्ट स्थान है।

गुद्यांशों पर आधारित प्रश्न

प्रश्न-पत्र में केवल 3 प्रश्न (अ, ब, स) ही पूछे जाएँगे। अतिरिक्त प्रश्न अभ्यास एवं परीक्षोपयोगी दृष्टि से |महत्त्वपूर्ण होने के कारण दिए गये हैं।
प्रश्न 1.

अगर असम की पहाड़ियों में वर्ष में तीन सौ इंच वर्षा मिलेगी तो जैसलमेर की तप्तभूमि भी मिलेगी, जहाँ साल में दो-चार इंच भी वर्षा नहीं होती। कोई ऐसा अन्न नहीं, जो यहाँ उत्पन्न न किया जाता हो। कोई ऐसा फल नहीं, जो यहाँ पैदा नहीं किया जा सके। कोई ऐसा खनिज पदार्थ नहीं, जो यहाँ के भू-गर्भ : में न पाया जाता हो और न कोई ऐसा वृक्ष अथवा जानवर है, जो यहाँ फैले हुए जंगलों में न मिले। यदि इस सिद्धान्त को देखना हो कि आबहवा का असर इंसान के रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, शरीर और मस्तिष्क पर पड़ता है तो उसका जीता-जागता सबूत भारत में बसने वाले भिन्न-भिन्न प्रान्तों के लोग देते हैं।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों के लोग क्या प्रमाण देते हैं ?
  2. भारत की भूमि की क्या विशेषता है ?

[खनिज पदार्थ = पृथ्वी को खोदकर निकाले गये पदार्थ; जैसे-लोहा, चाँदी, पीतल आदि। भू-गर्भ = पृथ्वी के अन्दर। आबहवा = वातावरण।]
उत्तर
(अ) प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य-खण्ड’ में संकलित डॉ० राजेन्द्र प्रसाद द्वारा लिखित ‘भारतीय संस्कृति’ नामक निध से उद्धृत है। अथवा निम्नवत् लिखेंपाठ का नाम-भारतीय संस्कृति। लेखक का नाम–डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
[विशेष—इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए इस प्रश्न का यही उत्तर इसी रूप में प्रयुक्त होगा।]

(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-भारतीय संस्कृति में निहित विभिन्नता में एकता का चित्रण करते हुए लेखक कहते हैं कि भारतीय वसुन्धरा धन-धान्य से परिपूर्ण है। इसी कारण कोई ऐसा अन्न या फल नहीं है जिसे यहाँ पैदा न किया जा सकता हो। भारतीय वसुन्धरा के गर्भ में अनेक खनिज पदार्थ पाये जाते हैं। हर प्रकार की वनस्पति और हर प्रकार के जानवर यहाँ पाये जाते हैं। लेखक के कहने का आशय यह है कि यहाँ बहुत-सी ऐसी बातें हैं जो भारत की एकता में भी अनेकता के दर्शन कराने में सत्य प्रतीत होती हैं।
द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी का कहना है कि यदि किसी व्यक्ति को इस सिद्धान्त को देखना है कि वातावरण का असर व्यक्ति के रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, शरीर और मस्तिष्क पर कितना अधिक पड़ता है तो उसका जीता-जागता प्रमाण भारत में बसने वाले भिन्नभिन्न प्रान्तों के लोग हैं क्योंकि उन सभी का खान-पान, रहन-सहन और वेश-भूषा भिन्न-भिन्न ही है।
(स)

  1. भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों में रहने वाले लोग यह प्रमाणित करते हैं कि यहाँ के वातावरण का प्रभाव यहाँ के निवासियों, उनके रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, शरीर और मस्तिष्क पर पड़ता है।
  2. भारत की भूमि की विशेषता यह है कि यहाँ सभी प्रकार के अन्न और फल उत्पन्न किये जा सकते हैं। सभी खनिज पदार्थ यहाँ की भूमि में पाये जाते हैं और इसकी भूमि पर उगे जंगलों में सभी प्रकार के वृक्ष और जानवर पाये जाते हैं।
  3. भारत में वर्षा की विशेषता यह है कि एक तरफ तो यहाँ की असम की पहाड़ियों में तीन सौ इंच तक वर्षी होती है और दूसरी तरफ जैसलमेर (राजस्थान) की भूमि पर तीन इंच भी नहीं होती।

प्रश्न 2.
भिन्न-भिन्न धर्मों के मानने वाले भी, जो सारी दुनिया के सभी देशों में बसे हुए हैं, यहाँ भी थोड़ी-बहुत संख्या में पाये जाते हैं और जिस तरह यहाँ की बोलियों की गिनती आसान नहीं, उसी तरह यहाँ भिन्न-भिन्न धर्मों के सम्प्रदायों की भी गिनती आसान नहीं। इन विभिन्नताओं को देखकर अगर अपरिचित आदमी घबड़ाकर कह उठे कि यह एक देश नहीं, अनेक देशों का एक समूह है, यह एक जाति नहीं, अनेक जातियों का समूह है तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं; क्योंकि ऊपर देखने वाले को, जो गहराई में नहीं जाता, विभिन्नता ही देखने में आएगी।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. भारत के सम्बन्ध में कौन-सी बात आश्चर्य की नहीं मानी जाती ?
  2. भिन्न-भिन्न धर्मावलम्बी किस देश में बसे हुए हैं ? भारत के जल और वाणी की विशेषता
    को एक पंक्ति में व्यक्त कीजिए।
  3. सतही दृष्टि से देखने पर किसी व्यक्ति को भारत के सम्बन्ध में क्या दिखाई पड़ता है ?
  4. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?

उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि यह विश्व अनेक देशों में विभक्त है और इन सभी देशों के भिन्न-भिन्न रीति-रिवाज, संस्कृति और धर्म हैं। पूरे विश्व में इन धर्मों को मानने वाले लोग भी अलग-अलग हैं। भारत की एक अपनी विशिष्टता है कि यहाँ पर विश्व के सभी देशों के निवासी अथवा किसी भी धर्म को मानने वाले व्यक्ति कम संख्या में ही सही, लेकिन मिल अवश्य जाएँगे। जिस प्रकार भारत के विभिन्न प्रान्तों, जनपदों और ग्रामों में बोली जाने वाली बोलियों की गणना करना अत्यधिक कठिन है, उसी प्रकार इस भारतभूमि पर निवास करने वाले लोगों के भिन्न-भिन्न धर्म और इन धर्मों के भी कई-कई सम्प्रदायों की गणना करना भी निश्चित ही आसान कार्य नहीं है।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि भारतभूमि की इतनी विभिन्नताओं को देखकर दूसरे देशवासी या ऐसे व्यक्ति जो यहाँ के मौलिक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं, घबरा जाते हैं और कह बैठते हैं कि भारत तो एक देश है ही नहीं, वरना यह तो अनेक देशों का समूह है। यहाँ के निवासी भी किसी एक जाति के नहीं हैं, वरन् अनेकानेक जातियों के हैं। दूसरे देशवासियों की इस प्रकार की बातों में आश्चर्य करने योग्य कुछ भी नहीं है; क्योंकि वे इस देश को ऊपर-ही-ऊपर अर्थात् सतही दृष्टि से देखते हैं, वे इस बात की गहराई में नहीं उतरते। निश्चित ही ऐसे लोगों को भारत में विभिन्नता अर्थात् अनेकता ही नजर आएगी।
(स)

  1. “भारत एक देश नहीं वरन् अनेक देशों का समूह है, यहाँ एक जाति के लोग नहीं रहते वरन् अनेकानेक जातियों के लोग निवास करते हैं,” भारत के सम्बन्ध में यही बात आश्चर्य की नहीं मानी जाती।
  2. भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वाले; भले ही कम संख्या में हों; लेकिन भारत में विश्व के सभी धर्मों को मानने वाले पाये जाते हैं। भारत के जल और वाणी की विशेषता को व्यक्त करते हुए एक पंक्ति कही जा सकती है-“कोस-कोस पर बेदले पानी, चार कोस पर बानी।।
  3. सतही दृष्टि से देखने वालों को भारत में विभिन्नता अर्थात् अनेकता ही नजर आती है।
  4. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक भारतभूमि की विविधता का बहुत ही सार्थक और धनात्मक रूप में वर्णन करता है। इससे लेखक का अपने देश और उसकी संस्कृति के प्रति प्रेम झलकता है।

प्रश्न 3.
पर विचार करके देखा जाए तो इन विभिन्नताओं की तह में एक ऐसी समता और एकता फैली हुई है, जो अन्य विभिन्नताओं को ठीक उसी तरह पिरो लेती है और पिरोकर एक सुन्दर समूह बना देती है—जैसे रेशमी धागा भिन्न-भिन्न प्रकार की और विभिन्न रंग की सुन्दर मणियों अथवा फूलों को पिरोकर एक सुन्दर हार तैयार कर देता है, जिसकी प्रत्येक मणि या फूल दूसरों से न तो अलग है और न हो सकता है और केवल अपनी ही सुन्दरता से लोगों को मोहता नहीं, बल्कि दूसरों की सुन्दरता से वह स्वयं सुशोभित होता है और इसी तरह अपनी सुन्दरता से दूसरों को भी सुशोभित करता है।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में मणि या फूल की क्या विशेषता बतायी गयी है ?
  2. विभिन्नताओं की तह में फैली एकता किस प्रकार की है ?
  3. भारतीय संस्कृति के विषय में कुछ पंक्तियाँ लिखिए।

[ तह में = जड़ में । मोहता = मोहित करता।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि हमारे देश की संस्कृति में अनेक विविधताएँ तो हैं, पर ये सभी विविधताएँ बाहरी दृष्टि से देखने पर ही प्रतीत होती हैं। भीतर से देखने पर सबमें एक अनोखी एकता और समानता व्याप्त है। जिस प्रकार मोतियों और रंग-बिरंगे फूलों को एक रेशमी धागा एक साथ एक हार के रूप में जोड़े रखता है, उसी प्रकार हमारी संस्कृति भी अनेक धर्मों, जातियों, भाषाओं तथा दूसरी भिन्नताओं को एक साथ जोड़े रखती है। एकता के इस धरातल पर हम सब केवल भारतीय रह जाते हैं।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि इस हार की प्रत्येक मणि या पुष्प अन्य मणि या पुष्पों से न तो भिन्न है और न ही हो सकती है। ये हार या पुष्प.अपनी सुन्दरता से ही । दूसरों को नहीं लुभाते, वरन् दूसरों की सुन्दरता से खुद सुशोभित भी होते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार माला के फूल अपने सौन्दर्य से दूसरों को मोहित ही नहीं करते अपितु दूसरों के गले में डाले जाने पर उनको सुशोभित भी करते हैं, इसी प्रकार हमारे देश की धार्मिक, भाषायी और जातिगत विभिन्नता स्वयं तो सुशोभित होती ही है, हमारे देश को भी सुशोभित करती है।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में मणि या फूल की विशेषता के रूप में कहा गया है कि ये केवल अपनी सुन्दरता से ही लोगों को मोहित नहीं करते वरन् दूसरों की सुन्दरता से स्वयं भी सुशोभित होते हैं।
    विभिन्नताओं की तह में फैली एकता उस रेशमी धागे के समान है जो विभिन्न प्रकार की मणिमुक्ताओं और फूलों को अपने में गूंथकर एक होर बना देता है।
  2. भारत और भारतीय संस्कृति के विषय में कहा जा सकता है-“हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, ईसाई आदि सभी इसी देश में रहने वाले हैं। उनके मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे आदि अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु भारतरूपी जो बड़ा मन्दिर है, वह सबका है। सब मजहबों के लोग एक ही ईश्वर की इबादत करते हैं।” कविवर द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी ने भी ऐसे ही भाव व्यक्त किये हैं-‘हम सब सुमन एक उपवन के।’

प्रश्न 4.
यह केवल एक काव्य की भावना नहीं है, बल्कि एक ऐतिहासिक सत्य है, जो हजारों वर्षों से अलग-अलग अस्तित्व रखते हुए अनेकानेक जल-प्रपातों और प्रवाहों का संगमस्थल बनकर एक प्रकाण्ड और प्रगाढ़ समुद्र के रूप में भारत में व्याप्त है, जिसे भारतीय संस्कृति का नाम दे सकते हैं। इन अलग-अलग नदियों के उद्गम भिन्न-भिन्न हो सकते हैं और रहे हैं। इनकी धाराएँ भी अलग-अलग बहती हैं और प्रदेश के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के अन्न और फल-फूल पैदा करती रहती हैं; पर सबमें एक ही शुद्ध, सुन्दर, स्वस्थ और शीतल जल बहता रहा है, जो उद्गम और संगम में एक ही हो जाता है। [2010]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. भारतीय संस्कृति का नाम किसे दिया जा सकता है ? स्पष्ट कीजिए।
  2. भारत की नदियों में कैसी भिन्नता और कैसी एकता है ? स्पष्ट कीजिए।

[ अस्तित्व = सत्ता। प्रपात = झरना। प्रकाण्ड = बहुत बड़ा। प्रगाढ़ = गहरा। उद्गम = निकलने का स्थान।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक का कथन है कि भारतीय संस्कृति की समता फूलों की माला से करना तथा यहाँ की भाषाओं और जातियों को रंग-बिरंगे फूल कहना केवल काव्य की कल्पना नहीं है, वरन् यह एक यथार्थ है, एक ऐतिहासिक सत्य है। जिस प्रकार हजारों वर्षों से प्रवाहित होते आ रहे झरने और नदियों के उद्गम अलग-अलग होने पर भी उनका जल दूर-दूर से आकर सागर में समा जाता है, जो उनका मिलन-स्थल होता है; उसी प्रकार भारत में भी विभिन्न धर्म, विचारधारा और जाति रूपी झरने हजारों वर्षों से आकर मिल रहे हैं, जिससे एक विस्तृत और सागर के समान ही एक गहन गम्भीर भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ है।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि हर एक नदी का उद्गम स्थल अलग-अलग होता है। उसका मार्ग भी दूसरे से भिन्न होता है और हर नदी के किनारे की भूमि में प्रदेश की जलवायु और मिट्टी के अनुसार अलग-अलग प्रकार की फसलें पैदा होती हैं, पर इन सभी नदियों में एक ही पानी है, जो सागर में एक साथ मिलता है और फिर बादल के रूप में एक जैसा बरसता है। जिस प्रकार नदियों का जल अपने उद्गम (बादल) और संगम (सागर) पर एक जैसा हो जाता है, उसी प्रकार विभिन्न स्थानों से आयी हुई संस्कृतियाँ अपने संगम-स्थल भारतीय संस्कृति में एक-सी सुखद और कल्याणकारी हो गयी हैं।
(स)

  1. भारत के विभिन्न धर्म, विचारधारा और जाति रूपी जल-प्रपात और प्रवाह हजारों वर्षों से आकर भारत में व्याप्त हैं। इसे ही विस्तृत और सागर के समान गहन और गम्भीर भारतीय संस्कृति का नाम दिया जा सकता है।
  2. भारत की नदियों के उद्गम स्थल भिन्न-भिन्न हैं। ये अलग-अलग स्थानों से होकर बहती हैं और विभिन्न प्रकार की उपज करती हैं। लेकिन इन सभी नदियों में एक ही शुद्ध, शीतल, स्वच्छ और स्वास्थ्यवर्द्धक जल प्रवाहित होता रहता है, जो अपने उद्गम और संगम में एक हो जाता है।

प्रश्न 5.
आज हम इसी निर्मल, शुद्ध, शीतल और स्वस्थ अमृत की तलाश में हैं और हमारी इच्छा, अभिलाषा और प्रयत्न यह है कि वह इन सभी अलग-अलग बहती हुई नदियों में अभी भी उसी तरह बहता रहे और इनको वह अमर तत्त्व देता रहे, जो जमाने के हजारों थपेड़ों को बरदाश्त करता हुआ भी आज हमारे अस्तित्व को कायम रखे हुए है और रखेगा। [2016]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. कवि इकबाल की उक्ति का अपने शब्दों में अर्थ लिखिए।
  2. लेखक ने प्रस्तुत गद्यांश में किस अमर-तत्त्व की ओर संकेत किया है ?
  3. हमारे अस्तित्व को कौन कायम रखे हुए है? ।

[ निर्मल = स्वच्छ। अभिलाषा = चाह। बरदाश्त करना = सहना। अस्तित्व = विद्यमान होना। ]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या–भारतीय संस्कृतिरूपी विशाल सागर में आकर गिरने वाली इन नदियों में, एक ही भाव से शुद्ध, स्वच्छ, शीतल तथा स्वास्थ्यप्रद जल, अमृत के समान प्रवाहित होता रहता है। इस जल में एक ही उदात्त भाव का समावेश है, जो भारतीय संस्कृति को अमरता और स्थिरता प्रदान करता है। लेखक की हार्दिक इच्छा है कि विभिन्न विचारधाराओं के रूप में प्रवाहित इन नदियों में वह अमृत तत्त्व सदैव बना रहे, जिससे सभी लोगों में प्रेम और राष्ट्रीयता की भावना का संचार हो। इस भावना का विस्तृत रूप ही सनातन धर्म है और यही भारतीय संस्कृति की उदात्त परम्परा भी है। यद्यपि इस देश ने तरह-तरह के संकट झेले हैं, तथापि भारतीय संस्कृति में विद्यमान विभिन्नता में एकता एक ऐसा तत्त्व है, जो आज तक मिटाया नहीं जा सका है।
(स)

  1. प्रसिद्ध शायर इकबाल का कहना है कि “न जाने कितनी बार इस देश पर बाहरी लोगों द्वारा आक्रमण किये गये और अनगिनत बार यह देश आक्रमणकारियों की धर्मान्धता का शिकार हुआ; किन्तु यहाँ एक ऐसा तत्त्व अवश्य विद्यमान रहा, जिसके बल पर भारतीय संस्कृति का अस्तित्व आज तक बना हुआ है।”
  2. लेखक ने प्रस्तुत गद्यांश में ‘अनेकता में एकता’ नामक अमर-तत्त्व की ओर संकेत किया है और यह स्पष्ट किया है कि इस शक्ति के द्वारा भारतीय संस्कृति भविष्य में भी जीवित और स्थायी बनी रहेगी।
  3. हमारे अस्तित्व को जल कायम रखे हुए है।

प्रश्न 6.
यह एक नैतिक और आध्यात्मिक स्रोत है, जो अनन्त काल से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सम्पूर्ण देश में बहता रहा है और कभी-कभी मूर्त रूप होकर हमारे सामने आता रहा है। यह हमारा सौभाग्य रहा है। कि हमने ऐसे ही एक मूर्त रूप को अपने बीच चलते-फिरते, हँसते-रोते भी देखा है और जिसने अमरत्व की याद दिलाकर हमारी सूखी हड्डियों में नयी मज्जा डाल हमारे मृतप्राय शरीर में नये प्राण फेंके और मुरझाये हुए दिलों को फिर खिला दिया। वह अमरत्व सत्य और अहिंसा का है, जो केवल इसी देश के लिए नहीं, आज मानवमात्र के जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक हो गया है। [2013, 15]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. मानव-मात्र के जीवन के लिए क्या आवश्यक है ? इसका मूर्त रूप कौन है, जिसका
    गद्यांश में वर्णन किया गया है ? या लेखक ने गद्यांश में क्या सन्देश देना चाहा है ?
  2. भारतीय संस्कृति में विद्यमान अमर-तत्त्व का स्रोत बताइए। यह हमारे सम्मुख किस रूप | में आता रहा है ?
  3. लेखक ने अमर-तत्त्व का स्रोत किसे बताया है ?

[ नैतिक = नीति और चरित्र सम्बन्धी। आध्यात्मिक = आत्मा से सम्बन्धित। स्रोत = प्रवाह। मूर्त = साकार। मज्जा = चर्बी। मृतप्राय = लगभग मरा हुआ।]
उत्तर
(अ) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने यह बताया है कि हमारी संस्कृति में निहित अमृत-तत्त्व का स्रोत नैतिक और आध्यात्मिक है, जो आदिकाल से ही प्रत्यक्ष (दृष्टिगोचर) तथा अप्रत्यक्ष (अगोचर) रूप में सम्पूर्ण देश में बहता चला आ रहा है। यह कभी-कभी स्थूल रूप में अर्थात् मूर्त रूप में किसी महापुरुष के रूप में भी जन्म लेता रहा है।

(ब)द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्यांश में लेखक यह बता रहे हैं कि हम बड़े ही भाग्यवान् हैं कि इसी प्रकार के एक स्थूल रूप को (महात्मा गाँधी के रूप में) हमने अपने बीच चलतेफिरते और हँसते-रोते हुए देखा है। इसी मूर्त रूप ने परतन्त्रता के परिणामस्वरूप सूख चुकी हमारी हड्डियों को अमृत-तत्त्व की स्मृति दिलाकर नयी मज्जा प्रदान की। मरे हुए से हमारे शरीर में प्राणों का संचार किया, निराश एवं मुरझाये हुए दिलों को प्राणदान देकर पुनः खिला दिया और उनमें नूतन ऊर्जा का संचार किया। उस मूर्त रूप ने जो अमर-तत्त्व प्रदान किया वह सत्य और अहिंसा का है।
(स)

  1. मानव-मात्र के जीवन के लिए सत्य और अहिंसा नामक अमर-तत्त्व की आवश्यकता है। आज की बढ़ती हुई हिंसात्मक वृत्ति में इसकी प्रासंगिकता और भी बढ़ गयी है। सत्य और अहिंसा के मूर्तिमान स्वरूप राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी हैं, जिनका प्रस्तुत गद्यांश में सांकेतिक रूप से वर्णन किया गया है।
  2. भारतीय संस्कृति में विद्यमान अमर-तत्त्व का स्रोत नैतिक और आध्यात्मिक है जो कि अनन्त काल से कभी प्रत्यक्ष, कभी अप्रत्यक्ष और कभी मूर्त रूप में हम सभी के सम्मुख आता रहा है।
  3. लेखक ने अमर-तत्त्व को स्रोत भारतीय संस्कृति को बताया है।

प्रश्न 7.
हम इस देश में प्रजातन्त्र की स्थापना कर चुके हैं, जिसका अर्थ है व्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता, जिसमें वह अपना पूरा विकास कर सके और साथ ही सामूहिक और सामाजिक एकता भी। व्यक्ति और समाज के बीच में विरोध का आभास होता है। व्यक्ति अपनी उन्नति और विकास चाहता है और यदि एक की उन्नति और विकास दूसरे की उन्नति और विकास में बाधक हो तो संघर्ष पैदा होता है और यह संघर्ष तभी दूर हो सकता है, जब सबके विकास के पथ अहिंसा के हों। हमारी सारी संस्कृति का मूलाधार इसी अहिंसा-तत्त्व पर स्थापित रहा है। जहाँ-जहाँ हमारे नैतिक सिद्धान्तों का वर्णन आया है, अहिंसा को ही उनमें मुख्य स्थान दिया गया है।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. प्रजातन्त्र का क्या अर्थ है ? यहाँ किस देश में प्रजातन्त्र की बात की जा रही है ?
  2. नैतिक सिद्धान्तों में किस तत्त्व को प्रमुख स्थान दिया गया है ?
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?

[आभास = प्रतीति। पथ = मार्ग।]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या–विद्वान् लेखक का कहना है कि हमें अपनी स्वतन्त्रता का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। हम कोई भी कार्य करने के लिए स्वतन्त्र हैं, किन्तु हमारा यह नैतिक कर्तव्य भी है कि हम अपने कार्य को इस प्रकार सम्पन्न करें, जिससे किसी दूसरे को उससे किसी प्रकार की असुविधा न हो। यदि हम ऐसा सोचकर कार्य करेंगे तो हमारी सामाजिक एकता बनी रहेगी और सभी को उन्नति करने के एक समान अवसर मिलेंगे। संघर्ष तब होता है, जब एक के स्वार्थ दूसरे के स्वार्थ में बाधा पहुँचाते हैं। इस संघर्ष को टालने का एकमात्र उपाय अहिंसा या त्याग-भावना का अनुसरण करना है। इसी अहिंसा-तत्त्व पर हमारी संस्कृति टिकी हुई है। जब भी हम मानवीय मूल्यों की बात करते हैं, तब अहिंसा को मुख्य स्थान देते हैं।
(स)

  1. प्रजातन्त्र का अर्थ है–व्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता, जिसमें वह स्वयं के साथ-साथ अपने समूह और समाज का भी विकास कर सके। इस गद्यांश में भारत में प्रजातन्त्र की बात की जा रही है।
  2. नैतिक सिद्धान्तों में अहिंसा-तत्त्व को ही प्रमुख स्थान दिया गया है; क्योंकि व्यक्तिगत और सामूहिक उन्नति के विकास में आड़े आने वाला संघर्ष तभी दूर हो सकता है; जब सबके विकास के पथ अहिंसा के हों।
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक के द्वारा अहिंसा-तत्त्व के महत्त्व को उद्घाटित किया गया है। उसका कहना है कि व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य संघर्ष तभी दूर हो सकेगा, जब सभी लोग अहिंसा के मार्ग पर चलें और हिंसा की भावना का त्याग कर दें।

प्रश्न 8.
अहिंसा का दूसरा नाम या दूसरा रूप त्याग है और हिंसा का दूसरा रूप या नाम स्वार्थ है, जो प्राय: भोग के रूप में हमारे सामने आता है। पर हमारी सभ्यता ने तो भोग भी त्याग से ही निकाला है और भोग भी त्याग में ही पाया है। श्रुति कहती है-‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः। इसी के द्वारा हम व्यक्ति-व्यक्ति के बीच का विरोध, व्यक्ति और समाज के बीच का विरोध, समाज और समाज के बीच का विरोध, देश और देश के बीच के विरोध को मिटाना चाहते हैं। हमारी सारी नैतिक चेतना इसी तत्त्व से ओत-प्रोत है। [2015)
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. हिंसा और अहिंसा के लिए प्रस्तुत गद्यांश में क्या कहा गया है ?
  2. श्रुति क्या कहती है ? स्पष्ट कीजिए।
  3. विभिन्न प्रकार के विरोध क्या हैं ? इन्हें किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है ?
  4. हमारे नैतिक सिद्धान्तों में किस चीज को प्रमुख स्थान दिया गया है ? इसका दूसरा रूप
    क्या है?

[ भोग = सांसारिक वस्तुओं का उपयोग। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः = इसलिए त्याग की भावना से भोग करो। श्रुति = वेद, उपनिषद्।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश कीयाख्या–प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बताया है कि भारतीय संस्कृति में अहिंसा की अवधारणा का विशेष महत्त्व है। वास्तव में हमारी संस्कृति अहिंसा के मूल तत्त्व पर ही आधारित है। संस्कृति में नैतिक मान्यताओं का विशेष महत्त्व होता है। भारतीय संस्कृति में स्वीकृत अधिकांश नैतिक मान्यताएँ भी अहिंसा के तत्त्व पर ही आधारित हैं। अहिंसा का दूसरा नाम ही त्याग है। इसी प्रकार हिंसा का दूसरा नाम स्वार्थ है। हिंसा का रूप पदार्थों के भोग के रूप में हमारे सामने आता है। मनुष्य स्वार्थ के कारण जब पदार्थों का अकेले ही उपभोग करता है, तभी हिंसा का जन्म होता है। भारतीय संस्कृति में त्याग और भोग का समन्वय है। जब तक हम किसी वस्तु का त्याग नहीं करेंगे, तब तक दूसरा उसका उपभोग नहीं कर सकता। इस प्रकार त्याग से ही भोग की प्राप्ति होती है।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि वेद और उपनिषदों में भी त्यागपूर्वक भोग को महत्त्व दिया गया है। हम जिन पदार्थों का भोग करें, त्याग (अनासक्ति) की भावना से करें। त्याग की भावना से सभी आपसी संघर्ष समाप्त हो जाते हैं। इसी भावना से व्यक्ति का व्यक्ति से, व्यक्ति का समाज से, समाज का समाज से और देश का देश से संघर्ष समाप्त हो सकता है। सभी संघर्ष स्वार्थ या भोग को लेकर होते हैं। यदि हम सभी विरोधों या संघर्षों को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें अपनी नैतिक चेतना को इसी तत्त्व त्याग से ओत-प्रोत करना होगा।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में कहा गया है कि हिंसा का ही दूसरा रूप ‘स्वार्थ’ है, जो भोग के रूप में व्यक्तियों के सम्मुख आता है और अहिंसा का दूसरा रूप त्याग है। भारतीय संस्कृति में भोग को भी त्याग से ही निकाला गया है।
  2. श्रुति कहती है कि “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः’ अर्थात् त्याग की भावना से ही भोग करना चाहिए; क्योंकि त्यागं की भावना से ही सभी आपसी संघर्ष समाप्त हो जाते हैं।
  3. विभिन्न प्रकार के विरोध हैं—व्यक्ति-व्यक्ति का विरोध, व्यक्ति-समाज का विरोध, समाजसमाज का विरोध, समाज-देश का विरोध, देश-देश का विरोध आदि। इन सभी प्रकार के विरोधों को त्याग की भावना के प्रस्फुटन के द्वारा समाप्त किया जा सकता है।
  4. हमारे नैतिक सिद्धान्तों में अहिंसा को प्रमुख स्थान दिया गया है। इसका दूसरा रूप त्याग है।

प्रश्न 9.
इसलिए हमने भिन्न-भिन्न विचारधाराओं को स्वतन्त्रतापूर्वक पनपने और भिन्न-भिन्न भाषाओं को विकसित और प्रस्फुटित होने दिया। भिन्न-भिन्न देशों के लोगों को अपने में अभिन्न भावे से मिल जाने दिया। भिन्न-भिन्न देशों की संस्कृतियों को अपने में मिलाया और अपने को उनमें मिलने दिया और देश और विदेश में एकसूत्रता तलवार के जोर से नहीं, बल्कि प्रेम और सौहार्द से स्थापित की। दूसरों के हाथों और पैरों पर, घर और सम्पत्ति पर जबरदस्ती कब्जा नहीं किया, उनके हृदयों को जीता और इसी वजह से प्रभुत्व, जो चरित्र और चेतना का प्रभुत्व है, आज भी बहुत अंशों में कायम है, जबकि हम स्वयं उस चेतना को बहुत अंशों में भूल गये हैं और भूलते जा रहे हैं।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. भारतीयों ने विभिन्न धर्मों और विचारधाराओं के लिए क्या किया ?
  2. भारतीय लोगों ने विभिन्न देशों के व्यक्तियों और संस्कृतियों के साथ क्या किया?
  3. भारतीयों ने किस प्रकार एकता स्थापित की ?
  4. भारतीयों का प्रभुत्व अभी भी दूसरों पर क्यों कायम है ?
  5. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?

[ प्रस्फुटित = फलने-फूलने। एकसूत्रता = एकता। सौहार्द = मित्रता का भाव। कब्जा = अधिकार। प्रभुत्व = वैभव।]
उत्तर
(अ) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने यह बताया है कि भारतीय संस्कृति ने कभी-भी उन संस्कृतियों-सभ्यताओं को विकसित होने में बाधा नहीं पहुँचाई, जो उसकी अपनी नहीं थीं। उसका कहना है कि भारतवासियों ने सदैव अलग-अलग विचारधाराओं को; जो कि धर्म, आदि विभिन्न रूपों में होती हैं; सदैव विकसित होने और उनके अपने ही ढंग से उन्हें पल्लवित-पुष्पित होने दिया। विभिन्न देशों के लोगों को इस प्रकार अपने में मिल जाने दिया जैसे कि वे उनके अपने ही हों। भारतवासियों ने विभिन्न देशों की संस्कृतियों को स्वयं में मिला लिया और स्वयं को उनकी संस्कृतियों में मिल जाने दिया।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्यांश में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि भारतीय संस्कृति ने एकता और समरसता का यह कार्य बलपूर्वक नहीं किया, वरन् प्रेम और मित्रता की भावना से किया। उन्होंने कभी-भी विदेशियों के शारीरिक अंगों पर, चल-अचल सम्पत्ति पर बलपूर्वक अधिकार करने का प्रयास नहीं किया, वरन् सदैव उनके हृदय पर अधिकार जमाने का प्रयास किया; क्योंकि किसी के शरीर पर तो बलपूर्वक अधिकार किया जा सकता है, लेकिन हृदय पर नहीं। यही कारण है कि आज भी भारतीयों का जो प्रभाव दूसरों पर बना हुआ है, वह उनके चरित्र और चेतना का है। अन्तिम पंक्ति में लेखक भारतीयों की वर्तमान स्थिति पर अफसोस प्रकट करते हुए कह रहे हैं कि आज भारतीय अपने उस गुण को; जिसके बल पर वे दूसरों पर कायम थे; स्वयं भूल चुके हैं और भूलते ही जा रहे हैं।
(स)

  1. भारतवासियों ने विभिन्न धर्मों को स्वतंन्त्रतापूर्वक पल्लवित-पुष्पित होने और भिन्न-भिन्न वैचारिक धाराओं को बिना किसी रोक-टोक के अपने-अपने मार्ग पर प्रवाहित होने दिया।
  2. भारतीय लोगों ने भिन्न-भिन्न देश के व्यक्तियों को अपने में मिल जाने दिया तथा विभिन्न देशों की संस्कृतियों को अपने में तथा अपने देश की संस्कृति को उनमें मिल जाने दिया।
  3. भारतीयों ने स्वदेश और विदेश में एकता प्रेम और सौहार्द से स्थापित की, बलपूर्वक नहीं।
  4. भारतीयों का प्रभुत्व दूसरों पर अभी भी मात्र इसीलिए कायम है क्योंकि उन्होंने उनके हृदयों को जीत लिया, उनके घर, धन, सम्पत्ति और बाह्य व्यक्तित्व को कभी अपने अधीन नहीं किया।
  5. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने भारतीयों के उच्च आदर्श को स्पष्ट किया है जो दूसरों पर अपना प्रभुत्व प्रेम और सौहार्द से स्थापित करता है तथा यह भी बताया है कि वर्तमान समय में भारतीय स्वयं उससे विमुख होते जा रहे हैं।

प्रश्न 10.
हर प्रकार की प्रकृतिजन्य और मानवकृत विपदाओं के पड़ने पर भी हम लोगों की सृजनात्मक शक्ति कम नहीं हुई। हमारे देश में साम्राज्य बने और मिटे, विभिन्न सम्प्रदायों का उत्थान-पतन हुआ, हम विदेशियों से आक्रान्त और पददलित हुए, हम पर प्रकृति और मानवों ने अनेक बार मुसीबतों के पहाड़ ढा दिये, पर फिर भी हम लोग बने रहे, हमारी संस्कृति बनी रही और हमारा जीवन एवं सृजनात्मक शक्ति बनी [2009]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक क्या कहना चाहता है ? स्पष्ट कीजिए।
  2. किस-किस प्रकार की विपत्तियों के पड़ने पर भी भारतवासियों की सृजनात्मकता कम नहीं हुई ?

[प्रकृतिजन्य = प्रकृति द्वारा उत्पन्न। मानवकृत = मनुष्यों द्वारा उत्पन्न। विपदा = आपदा, आपत्ति, विपत्ति। सृजनात्मक शक्ति = नवीन निर्माण की शक्ति।]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या इतिहास को साक्षी बनाते हुए लेखक कहता है कि : भारतवर्ष में साम्राज्य बने, समाप्त हुए; विभिन्न सम्प्रदाय विकसित हुए और उनका पतन भी हुआ तथा विदेशियों ने हम पर आक्रमण किये और हमें अपमानित भी किया। प्रकृति और मनुष्यों ने एक बार नहीं अनेक बार हमारे ऊपर मुसीबतों के पहाड़ ढाये लेकिन हमारी संस्कृति इतनी महान् है कि उसने सभी को अपने में समाविष्ट कर लिया। इसी कारण हमारी संस्कृति, हमारा जीवन और हमारी सृजनात्मक शक्ति आज तक बनी हुई है। निश्चित रूप से हमारी संस्कृति सभी संस्कृतियों से श्रेष्ठ एवं महान् है।
(स)

  1. प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने भारतीय संस्कृति के महान् आध्यात्मिक-नैतिक आधार तथा । विपरीत परिस्थितियों में भी स्वयं को उच्च बनाये रखने के आधार को स्पष्ट किया है। संक्षेप में, लेखक ने भारतीय संस्कृति की महानता को स्पष्ट किया है।
  2. प्रत्येक प्रकार की प्रकृतिजन्य (यथा-भूकम्प, बाढ़, सूखा आदि) और मानवजन्य विपत्तियों के पड़ने पर भी भारतवासियों की सृजनात्मक शक्ति में कभी कमी नहीं आयी।
    रही।

प्रश्न 11.
हम अपने दुर्दिनों में भी ऐसे मनीषियों और कर्मयोगियों को पैदा कर सके, जो संसार के इतिहास के किसी युग में अत्यन्त उच्च आसन के अधिकारी होते। अपनी दासता के दिनों में हमने गाँधी जैसे कर्मठधर्मनिष्ठ क्रान्तिकारी को, रवीन्द्र जैसे मनीषी कवि को और अरविन्द तथा रमण महर्षि जैसे योगियों को पैदा किया और उन्हीं दिनों में हमने ऐसे अनेक उद्भट विद्वान् और वैज्ञानिक पैदा किये, जिनका सिक्का संसार मानता है। जिन हालातों में पड़कर संसार की प्रसिद्ध जातियाँ मिट गयीं, उनमें हम न केवल जीवित ही रहे, वरन् अपने आध्यात्मिक और बौद्धिक गौरव को बनाये रख सके। उसका कारण यही है कि हमारी सामूहिक चेतना ऐसे नैतिक आधार पर ठहरी हुई है, जो पहाड़ों से भी मजबूत, समुद्रों से भी गहरी और आकाश से भी अधिक व्यापक है।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. कैसे दुर्दिनों में भारत ने किन उच्च आसन के अधिकारी व्यक्तियों को जन्म दिया है ?
  2. किन परिस्थितियों में पड़कर संसार की प्रसिद्ध जातियाँ मिट गयीं ?
  3. भारतवासियों की सामूहिक चेतना कैसे आधार पर स्थित है ?

[दुर्दिन = बुरे दिन। मनीषी = बुद्धिमान। आसन = स्थान। उद्भट = श्रेष्ठ, असाधारण!]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या इतिहास को साक्षी बनाते हुए लेखक राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि भारत देश को भी बुरे दिन देखने पड़े थे, परन्तु यह भी सत्य है कि इन बुरे दिनों में भी भारत ने अनेक विद्वानों एवं कर्मयोगियों को जन्म दिया। ये महान् भारतीय सपूत इतने योग्य थे कि उन्हें संसार के किसी भी भाग में, किसी भी युग में अनिवार्य रूप से सम्मान एवं उच्च पद के योग्य ही समझा जाता। जब हमारा देश परतन्त्र था तब भी हमारे देश में महात्मा गाँधी जैसे कर्मठ और धर्म में रत रहने वाले क्रान्तिकारी, रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे विचारशील कवि, योगिराज अरविन्द घोष तथा रमण महर्षि जैसे महान् योगी व्यक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। इसी काल में हमारे देश में अनेक वैज्ञानिक एवं महान् विद्वान भी उद्भूत हुए जिनकी योग्यता को आज भी सारा संसार स्वीकार करता है।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी का कहना है कि जिस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों में विश्व की अनेक जातियाँ प्रायः समाप्त हो गयीं, उसी प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों में हम भारतीय हर प्रकार से अपने आपको कुशल बनाये रखने में सफल तो रहे ही, हमने अपने आध्यात्मिक एवं बौद्धिक गौरव को भी बनाये रखा। इस विशिष्टता का मुख्य कारण यह है कि हमारी सामूहिक चेतना का आधार सुदृढ़ नैतिकता है। हमारी नैतिक चेतना पहाड़ों के समान मजबूत, समुद्र से भी गहन तथा आकाश से भी अधिक व्यापक है। इन्हीं गुणों के कारण भारतीय संस्कृति महान् है, जिसके कारण हमारे देश ने अपने बुरे दिनों में भी विश्वविख्यात महान् व्यक्तियों को जन्म दिया।
(स)

  1. परतन्त्रता/दासता के दिनों में भारत ने महात्मा गाँधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, महर्षि अरविन्द आदि के साथ-साथ अनेक वैज्ञानिक और विद्वानों को, जो उच्च आसन के अधिकारी थे, जन्म दिया।
  2. दासता अथवा परतन्त्रता की परिस्थितियों में पड़कर संसार की अनेक प्रसिद्ध जातियों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया।
  3. भारतवासियों की सामूहिक चेतना पर्वतों से भी दृढ़, समुद्रों से भी गहरी और आकाश से भी अधिक व्यापक नैतिक आधार पर स्थित है।

प्रश्न 12.
दूसरी बात जो इस सम्बन्ध में विचारणीय है, वह यह है कि संस्कृति अथवा सामूहिक चेतना ही हमारे देश का प्राण है। इसी नैतिक चेतना के सूत्र से हमारे नगर और ग्राम, हमारे प्रदेश और सम्प्रदाय, हमारे विभिन्न वर्ग और जातियाँ आपस में बँधी हुई हैं। जहाँ उनमें और सब तरह की विभिन्नताएँ हैं, वहाँ उन सब में यह एकता है। इसी बात को ठीक तरह से पहचान लेने से बापू ने जनसाधारण को बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में क्रान्ति करने के लिए तत्पर करने के लिए इसी नैतिक चेतना का सहारा लिया था। [2011, 17]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. क्रान्ति के लिए बापू ने किसका सहारा लिया था ?
  2. लेखक ने भारतीय संस्कृति की एकता और उसके बल का क्या महत्त्व बताया है ?

[विचारणीय = विचार करने योग्य बुद्धिजीवी = समाज का प्रबुद्ध वर्ग।]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि हमें सर्वप्रथम वैज्ञानिक और औद्योगिक विकास के अनुचित परिणामों को ध्यान में रखना चाहिए। विचार करने योग्य दूसरी बात यह है कि भारतीय संस्कृति अथवा भारतवासियों की सम्पूर्ण व एकीकृत चेतन शक्ति ही इस देश का जीवन है। बिना इसके देश का जीवन ही सम्भव नहीं है। ऐसी चेतन शक्ति; जो नैतिकता पर आश्रित है; से हमारे देश के सभी शहर, गाँव और सभी प्रदेश, सभी धर्म और उनको मानने वाले विभिन्न सम्प्रदाय, इन सम्प्रदायों के विभिन्न वर्ग और इनसे सम्बद्ध जातियाँ आपस में बँधी हुई हैं। जहाँ इनमें सभी तरह की विभिन्नताएँ और विषमताएँ फैली हुई हैं, वहीं उन सबमें एक एकता है, जिसे ध्यान से देखने, समझने और पहचानने की आवश्यकता है।
(स)

  1. क्रान्ति के लिए बापू ने सामान्य जनता को बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में क्रान्ति करने के लिए तैयार किया था और गद्यांश के रेखांकित अंश में उल्लिखित नैतिक चेतना का सहारा लिया था।
  2. लेखक ने भारतीय संस्कृति की एकता और उसके बल का यह महत्त्व बताया है कि इसी के कारण सम्पूर्ण भारत के सभी शहर, गाँव, प्रदेश, विभिन्न जातियाँ, सम्प्रदाय, वर्ग आदि एक सूत्र में बँधे हुए हैं, जिसके कारण गाँधीजी ने देश की जनता को क्रान्ति के लिए तत्पर किया।

प्रश्न 13.
मैं तो यही समझता हूँ कि यदि हमें अपने समाज और देश में उन सब अन्यायों और अत्याचारों की पुनरावृत्ति नहीं करनी है, जिनके द्वारा आज के सारे संघर्ष उत्पन्न होते हैं तो हमें अपनी ऐतिहासिक, नैतिक चेतना या संस्कृति के आधार पर ही अपनी आर्थिक व्यवस्था बनानी चाहिए अर्थात् उसके पीछे वैयक्तिक लाभ और भोग की भावना प्रधान न होकर वैयक्तिक त्याग और सामाजिक कल्याण की भावना ही प्रधान होनी चाहिए। हमारे प्रत्येक देशवासी को अपने सारे आर्थिक व्यापार उसी भावना से प्रेरित होकर करने चाहिए। वैयक्तिक स्वार्थों और स्वत्वों पर जोर न देकर वैयक्तिक कर्तव्य और सेवा-निष्ठा पर जोर देना चाहिए और हमारी प्रत्येक कार्यवाही इसी तराजू पर तौली जानी चाहिए। [2012, 15]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. भारतवासियों को अपनी आर्थिक व्यवस्था किस प्रकार बनानी चाहिए ?
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?
  3. प्रस्तुत गद्यांश के भाव पर आधारित एक पंक्ति लिखिए।
  4. आर्थिक व्यापार करने में किस भावना की प्रधानता होनी चाहिए ?

[ पुनरावृत्ति = फिर से दोहराना। आर्थिक व्यवस्था = धन का वितरण और उपभोग। स्वत्व = अधिकार। सेवा-निष्ठा = सेवा-भावना में विश्वास।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक कहता है कि हमें समाज और देश में अन्यायों और अत्याचारों को फिर से न दोहराये जाने के लिए अपनी आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन करना चाहिए। आर्थिक व्यवस्था के दूषित होने के कारण ही सारे संघर्ष उत्पन्न होते हैं। हमारी आर्थिक व्यवस्था का आधार नैतिक चेतना या संस्कृति द्वारा निर्धारित होना चाहिए। धन से सम्बन्धित जितने भी कार्य किये जाएँ, उनमें सदैव नैतिकता का ध्यान रखा जाना चाहिए। ऐसा करने से अन्याय, अत्याचार और संघर्ष समाप्त हो जाएँगे।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्यांश में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि किसी भी कार्य को करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कहीं स्वार्थ को बढ़ावा तो नहीं मिल रहा है। प्रत्येक कार्य कर्तव्य और सेवा की भावना से करना चाहिए। हमें अपने स्वार्थों और अधिकारों की पूर्ति का कर्म तथा कर्तव्य और सेवा की भावना का अधिक ध्यान रखना चाहिए, अर्थात् जिस प्रकार तराजू दो पदार्थों के परिमाण में समन्वय बनाकर दोनों के साथ न्याय करती हैं, उसी प्रकार हमें प्रत्येक कार्य में भोग तथा स्वार्थ का कर्तव्य और सेवा-भावना के साथ समन्वय स्थापित करना चाहिए। इससे संघर्ष होने की सम्भावना नहीं रहेगी।
(स)

  1. भारतवासियों को अपनी आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार से बनानी चाहिए कि उसमें व्यक्तिगत स्वार्थ और भोग की भावना की प्रधानता न हो; क्योंकि स्वार्थों के टकराने से संघर्ष उत्पन्न होता है। अतः स्वार्थ की भावना को त्यागकर सामाजिक हित का ध्यान रखते हुए अपनी आर्थिक व्यवस्था बनानी चाहिए।
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बताया है कि मनुष्य को अपने समस्त आर्थिक कार्य वैयक्तिक त्याग, सामाजिक कल्याण, सेवा और कर्तव्य-भावना से प्रेरित होकर करने चाहिए। हमें अपनी नैतिक चेतना या संस्कृति के आधार पर ही अपने कार्य करने चाहिए। लेखक की यह भावना गाँधी जी के ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त के समान है।
  3. प्रस्तुत गद्यांश के भाव पर आधारित एक पंक्ति हो सकती है-“सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।”
  4. आर्थिक व्यापार करने में वैयक्तिक त्याग, सामाजिक कल्याण, सेवा और कर्तव्य-भावना की प्रधानता होनी चाहिए।

प्रश्न 14.
आज विज्ञान मनुष्यों के हाथों में अद्भुत और अतुल शक्ति दे रहा है, उसका उपयोग एक व्यक्ति और समूह के उत्कर्ष और दूसरे व्यक्ति और समूह के गिराने में होता ही रहेगा। इसलिए हमें उस भावना को जाग्रत रखना है और उसे जाग्रत रखने के लिए कुछ ऐसे साधनों को भी हाथ में रखना होगा, जो उस अहिंसात्मक त्याग-भावना को प्रोत्साहित करें और भोग-भावना को दबाये रखें। नैतिक अंकुश के बिना शक्ति मानव के लिए हितकर नहीं होती। वह नैतिक अंकुश यह चेतना या भावना ही दे सकती है। वही उंस शक्ति को परिमित भी कर सकती है और उसके उपयोग को नियन्त्रित भी। [2011, 14, 16, 18]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. विज्ञान द्वारा प्रदत्त शक्ति को प्रयोग किस प्रकार से हो सकता है ? इस शक्ति का प्रयोग किस भावना से किया जाना चाहिए?
  2. किसके बिना प्राप्त शक्ति मानव-मानवता के लिए हितकर नहीं होती ? या उपर्युक्त अवतरण में लेखक ने मानव को क्या सन्देश दिया है ?
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने क्या सुझाव दिया है? क्या आप इससे सहमत हैं?
  4. विज्ञान के सम्बन्ध में लेखक का क्या विचार है? स्पष्ट कीजिए। या आज विज्ञान मनुष्य को क्या दे रहा है?

[अतुल = जिसकी तुलना न हो सके। उत्कर्ष = उत्थान। प्रोत्साहित करना = उत्साहित करना, प्रेरणा देना। अंकुश == नियन्त्रण। परिमित = सीमित।।
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्य-अंश में लेखक कह रहा है कि वर्तमान युग विज्ञान की उन्नति का युग है। विज्ञान की उन्नति से मनुष्य को असीमित शंक्ति प्राप्त हो गयी है, किन्तु विज्ञान से प्राप्त शक्ति का सही उपयोग नहीं हो रहा है। इस शक्ति का उपयोग एक व्यक्ति अथवा समूह के उत्थान के लिए तथा दूसरे व्यक्ति और समूह को गिराने में हो रहा है। लेखक का कहना है कि समाज में या राष्ट्र में ऐसी भावना उत्पन्न होनी चाहिए, जिससे विज्ञान की शक्ति के इस दुरुपयोग को रोकने के लिए अहिंसात्मके त्याग की भावना को बढ़ावा दिया जा सके।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-प्रस्तुत गद्यांश में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि यदि विज्ञान की शक्ति पर प्रेम और अहिंसा जैसे नैतिक मूल्यों का नियन्त्रण नहीं लगाया गया तो यह मानव का हित नहीं कर सकती। नैतिक बन्धन से विज्ञान की असीमित शक्ति सीमित हो सकती है और उसका उपयोग विनाश के लिए न कर निर्माण के लिए किया जा सकता है। आज विज्ञान की शक्ति को कल्याण की दिशा में प्रेरित करना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। |
(स)

  1. विज्ञान के द्वारा प्रदत्त अतुलनीय शक्ति का उपयोग एक समूह और व्यक्ति के उत्थान तथा दूसरे समूह और व्यक्ति का पतन करने के लिए हो सकता है। इस शक्ति का प्रयोग अहिंसात्मक त्याग की भावना से किया जाना चाहिए।
  2. नैतिकता के अंकुश के बिना प्राप्त शक्ति मानव और मानवता के लिए हितकारी नहीं होती। यही उस असीमित शक्ति को सीमित कर सकती है और उसके दुरुपयोग को नियन्त्रित भी कर सकती है।
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने विज्ञान की संहारक नीति को नियन्त्रित करने का सुझाव दिया है तथा इसके नियन्त्रण के लिए अहिंसा से परिपूर्ण त्याग की भावना को आवश्यक बताया है। मैं लेखक के इस कथन से शत-प्रतिशत सहमत हूँ।
  4. विज्ञान के सम्बन्ध में लेखक का विचार है कि उसने मनुष्य के हाथों में अद्भुत और अतुल शक्ति दी है। इस शक्ति का उपयोग व्यक्ति और समूह के उत्कर्ष के लिए किया जाना चाहिए। इसके लिए व्यक्ति को अपने अन्दर अहिंसा-त्याग की भावना को प्रोत्साहित करना चाहिए।

प्रश्न 15.
वर्तमान युग में भारतीय संस्कृति के समन्वय के प्रश्न के अतिरिक्त यह बात भी विचारणीय है। कि भारत की प्रत्येक प्रादेशिक भाषा की सुन्दर और आनन्दप्रद कृतियों का स्वाद भारत के अन्य प्रदेशों के लोगों को कैसे चखाया जाए। मैं समझता हूँ कि इस बारे में दो बातें विचारणीय हैं। क्या इस सम्बन्ध में यह उचित नहीं होगा कि प्रत्येक भाषा की साहित्यिक संस्थाएँ उस भाषा की कृतियों को संघ-लिपि; अर्थात् । देवनागरी में भी छपवाने का आयोजन करें।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) लेखक के अनुसार भारतीय संस्कृति के समन्वय के लिए क्या किया जाना चाहिए ?
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक डॉ० राजेन्द्र प्रसाद कहते हैं कि वर्तमान में हमें अपने पुराने सांस्कृतिक मूल्यों को अपनाकर भारतीय संस्कृति के समन्वयात्मक स्वरूप को अक्षुण्ण बनाये रखना होगा। विभिन्न भाषावाद भी हमारी संस्कृति के समन्वयात्मक स्वरूप को आघात पहुँचा रहे हैं। इसका समाधान सुझाते हुए लेखक कहते हैं कि भारत में अनेकानेक प्रादेशिक भाषाएँ हैं और प्रत्येक भाषा में अनेक सुन्दर और आनन्द प्रदान करने वाली साहित्यिक कृतियाँ हैं। यदि हम इन कृतियों के सारतत्त्व से अन्य भाषा-भाषियों को परिचित करा सकें तो हमारी समस्या का बहुत कुछ समाधान हो सकता है।

(स) लेखक के अनुसार भारतीय संस्कृति के समन्वय के लिए प्रत्येक प्रादेशिक भाषा की साहित्यिक कृतियों का अनुवाद कराके उसे भारत की संघलिपि; अर्थात् हिन्दी; में छपवाना चाहिए।

प्रश्न 16.
दूसरी बात यह है, ऐसी संस्था की स्थापना की जाए, जो इन सब भाषाओं में आदान-प्रदान का सिलसिला अनुवाद द्वारा आरम्भ करे। यदि सब भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला सांस्कृतिक संगम स्थापित हो जाता है तो इस बारे में बड़ी सहूलियत होगी। साथ ही, वह संगम साहित्यिकों को प्रोत्साहन भी प्रदान कर सकेगा और अच्छे साहित्य के स्तर के निर्धारण और सृजन करने में भी पर्याप्त अच्छा कार्य कर सकेगा। साहित्य संस्कृति का एक व्यक्त रूप है। उसके दूसरे रूप-गान, नृत्य, चित्रकला, वास्तुकला, मूर्तिकला इत्यादि में देखे जाते हैं। भारत अपनी एकसूत्रता इन सब कलाओं द्वारा प्रदर्शित करता आया है। [2013] |,
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक को नाम (सन्दर्भ) लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) भारत अपनी एकसूत्रता किन-किन कलाओं द्वारा प्रदर्शित करता आया है ?
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी का कहना है कि भारतवर्ष में विद्यमान विभिन्न संस्कृतियों के समन्वय के लिए यह आवश्यक है कि हम सब मिलकर एक ऐसी संस्था की स्थापना करें जो सभी भारतीय भाषाओं की कृतियों में पारस्परिक आदान-प्रदान का सिलसिला अनुवाद द्वारा प्रारम्भ करे। लेखक के कहने का आशय है कि संस्था ऐसी होनी चाहिए जो किसी एक भारतीय भाषा की कृति का अन्य सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद कर सके।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी का कहना है कि भारतवर्ष में विद्यमान विभिन्न संस्कृतियों में समन्वय के लिए आवश्यक है कि विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों का समन्वय हो जाये। यदि कोई इस प्रकार का संगम स्थापित हो जाता है तो यह विभिन्न भाषा के साहित्यकारों को साहित्य-सृजन के लिए प्रोत्साहित कर सकेगा। इसके साथ ही यह संगम साहित्य के स्तर के उत्थान तथा उत्तमोत्तम साहित्य की रचना करने में भी पर्याप्त रूप से सहायक सिद्ध होगा।
(स) भारत अपनी एकसूत्रता को गान, नृत्य, चित्रकला, वास्तुकला, मूर्तिकला इत्यादि कलाओं के द्वारा प्रदर्शित करता आया है।

प्रश्न 17.
यदि पृथ्वी पर स्वर्ग कहीं है तो यहाँ ही है, यहाँ ही है, यहाँ ही है। यह स्वप्न तभी सत्य होगा और पृथ्वी पर स्वर्ग तो तभी स्थापित होगा, जब अहिंसा, सत्य और सेवा का आदर्श सारे भूमण्डल में मानवजीवन का मुख्य आधार और प्रधान प्रेरकशक्ति हो गया होगा। |
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. “यदि पृथ्वी पर स्वर्ग कहीं है तो यहाँ ही है, यहाँ ही है, यहाँ ही है’ के लिए पाठ में आयी काव्य-पंक्ति लिखिए।
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस बात पर बल दिया है ?

उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि भारत की सुन्दर धरती को पृथ्वी का स्वर्ग कहा जाता है। परन्तु आज समाज में जैसा वातावरण व्याप्त है, उसे देखते हुए इसे पृथ्वी को स्वर्ग नहीं कहा जा सकता। स्वर्ग की स्थापना तो सत्य, अहिंसा और नि:स्वार्थ सेवा की भावना से होती है। यदि हम वास्तव में इस धरती पर स्वर्ग उतारना चाहते हैं तो हमें इस बात का प्रयास करना चाहिए कि मनुष्य के जीवन की प्रत्येक गतिविधि सत्य, अहिंसा और सेवाभाव से प्रेरित हो। ऐसा होने पर संघर्ष, द्वेष, घृणा और युद्ध की समस्या स्वत: ही समाप्त हो जाएगी तथा मानव-जीवन सुखमय और आनन्दमय हो जाएगा।
(स)

  1. प्रश्न में उल्लिखित अंश के लिए पाठ में आयी काव्य-पंक्ति है
    गर फिरदौस बर रुए जमींनस्त,
    हमींअस्तो, हमींअस्तो, हमींअस्त।
  2.  प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने पृथ्वी पर स्वर्ग की कल्पना को साकार करने के लिए सत्य, अहिंसा, कर्तव्य-पालन और सेवा-भाव की भावना पर बल दिया है।

व्याकरण एवं रचा-बोध ।

प्रश्न 1
निम्नलिखित शब्दों में एक ही प्रत्यय लगा है। प्रत्यय को मूल शब्दों से अलग कीजिए और उन्हें देखकर प्रत्यय लगने के बाद शब्द में होने वाले परिवर्तन के विषय में एक नियम का प्रतिपादन कीजिए नैतिक, वैज्ञानिक, औद्योगिक, बौद्धिक, ऐतिहासिक, सामूहिक, प्रादेशिक, साहित्यिक
उत्तर

प्रश्न 2
निम्नलिखित शब्दों में उपसर्ग को मूल शब्दों से अलग कीजिए अत्याचार, उपार्जन, उपयोग, प्रत्येक, परिश्रम, आदान।
उत्तर

प्रश्न 3
निम्नलिखित शब्द उपसर्ग और प्रत्यय दोनों के योग से बने हैं। उपसर्ग और प्रत्यय दोनों को मूल शब्दों से पृथक् कीजिए विभिन्नता, सुशोभित, प्रस्फुटित, प्रोत्साहित, अहिंसात्मक, प्रतिनिधित्व, प्रदर्शित।
उत्तर


प्रश्न 4
निम्नलिखित प्रत्ययों से पाँच-पाँच शब्दों की रचना कीजिए- पूर्वक, त्व, प्रद, ईय, आत्मक, जन्य।
उत्तर

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