UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 3 मेवाड़-मुकुट (खण्डकाव्य)

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प्रश्न 1
‘मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य की कथावस्तु (कथानक) संक्षेप में लिखिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 17, 18]
या
‘मेवाइ-मुकुट खण्डकाव्य का सारांश लिखिए। [2009]
या
‘मेवाड़-मुकुट’ खण्डकाव्य की विषय-वस्तु स्पष्ट कीजिए। ‘मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य की घटनाओं पर प्रकाश डालिए। [2012, 16]
या
‘मेवाड़-मुकुट’ खण्डकाव्य के प्रथम और द्वितीय सर्ग की कथा लिखिए। [2017]
उत्तर
गंगारत्न पाण्डेय द्वारा रचित ‘मेवाड़ मुकुट’ खण्डकाव्य में महाराणा प्रताप के त्याग, शौर्य, साहस एवं बलिदानपूर्ण जीवन के एक मार्मिक कालखण्ड का चित्रण है। स्वतन्त्रता-प्रेमी प्रताप दिल्लीश्वर अकबर से युद्ध में पराजित होकर अरावली के जंगल में भटकते फिरते हैं। यहीं से काव्य का प्रारम्भ होता है। प्रस्तुत काव्य की कथावस्तु सात सर्गों में विभाजित है।

अरावली सर्ग की रचना पूर्व-पीठिका के रूप में की गयी है। हल्दीघाटी के मैदान में बड़ी वीरता से युद्ध करने के बाद भी महाराणा प्रताप की सेना पराजित हो जाती है। उस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप साधनहीन होकर अरावली के जंगलों में भटकते हैं।

अरावली एक पर्वत-श्रृंखला है, जो राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी अंचल में गौरव से सिर उठाये खड़ी है। महाराणा प्रताप शत्रु की कन्या ‘दौलत’ को अपनी शरण में रख उससे पुत्रीवत् व्यवहार करता है। उनकी पत्नी लक्ष्मी अपने पुत्र को गोद में लिये वनवासिनी सीता के समान एक वृक्ष के नीचे बैठी है। अरावली स्वयं स्वतन्त्रता के उपासक इस प्रताप की रक्षा में सन्नद्ध है।

द्वितीय सर्ग का नामकरण महाराणा प्रताप की पत्नी लक्ष्मी के नाम पर हुआ है। इस सर्ग में उसी का चरित्र अंकित हुआ है। रानी लक्ष्मी ने वैभव के दिन देखे हैं और अब उसे निर्धनता का जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है। लेकिन सच्ची भारतीय पत्नी और वीर क्षत्राणी के रूप में उसे अपने कष्टों की चिन्ता नहीं है। वह कन्द-मूल-फल खाकर व पृथ्वी पर सोकर धैर्यपूर्वक अपने दिन गुजार देती है। उसके हृदय में उथल-पुथल मची हुई है। अपने बच्चे की दयनीय दशा देखकर वह कभी-कभी धीरज खो बैठती है। वह सोचती है कि राणा ने स्वतन्त्रता नहीं बेची, इसीलिए दु:ख मिल रहा है। वह उत्साहित होकर कह उठती है-”हमको नहीं डुबा पाएगा यह कष्टों का सागर।”

तभी राणा कुटी के बाहर आकर रानी के जागते रहने का कारण पूछते हैं। रानी की मनोदशा समझकर राणा प्रताप सजल नेत्र हो जाते हैं।

तृतीय सर्ग का नामकरण काव्य के नाम पर हुआ है। इसमें प्रताप के अन्तर्द्वन्द्व का चित्रण है। राणा प्रताप के सामने मेवाड़ की मुक्ति की विकराल समस्या है। वे अपने भाई शक्तिसिंह के विश्वासघात से आहत हैं और उसके अकबर से मिल जाने का उन्हें दुःख भी है। यह सोचकर भी उनका उत्साह कम नहीं होता। वे जानते हैं कि जब उसकी आत्मा धिक्कारेगी, तो वह अवश्य ही लौटकर वापस आएगा। वे मन-ही-मन प्रतिज्ञा करते हैं कि वे मेवाड़ को स्वतन्त्र कराने के लिए अपने प्राण तक दे देंगे। वे चेतक की स्वामिभक्ति तथा शत्रु-पक्ष की कन्या दौलत के विषय में भी विचार करते हैं तथा अनायास ‘दौलत’ से मिलने के लिए चल देते हैं।

चतुर्थ सर्ग का नामकरण बालिका दौलत के नाम पर हुआ है। दौलत अकबर के मामा की बेटी है। वह पर्णकुटी के पीछे एक वृक्ष की छाया में बैठी अपने विगत जीवन के बारे में विचार करती हुई कहती है कि उस भोग-विलास भरे जीवन में कटुता ही थी, प्रीति नहीं।” अकबर के साम्राज्यवाद की लिप्सा उसके कोमल हृदय में घृणा के बीज बो देती है, किन्तु राणा प्रताप के प्रति उसके विचार पिता जैसी श्रद्धा से युक्त

राणा के भाई शक्तिसिंह पर ‘दौलत’ का मन आकृष्ट है, किन्तु वह राणा के सम्मुख अपनी कहानी कहकर उनके दुःख को और नहीं बढ़ाना चाहती। वह शक्तिसिंह और प्रताप की तुलना करती हुई कहती है। कि “ये सूर्य हैं, वह दीपक है।” दौलत को उसी समय वृक्षों के पीछे से किसी की पदचाप सुनाई पड़ती है। यहीं पर इस सर्ग का समापन हो जाता है।

पञ्चम सर्ग का शीर्षक ‘चिन्ता’ है। ‘दौलत’ के पास पहुँचकर राणा उसके एकान्त चिन्तन का कारण पूछते हैं। दौलत अपने को परम सुखी और निश्चिन्त बताती हुई स्वयं राणा के रात-दिन चिन्तित रहने को ही अपनी चिन्ता का कारण बताती है। इसी प्रसंग में राणा प्रताप कहते हैं कि वे रानी लक्ष्मी की आँखों में आँसू देखकर कुछ विचलित हैं। अत: दौलत राणा के साथ लक्ष्मी के पास जाकर उसके मन की पीड़ा को जानने और यथाशक्ति उसे दूर करने के लिए तत्पर हो जाती है।

अपने पुत्र को गोद में लिटाये हुए रानी लक्ष्मी सोच रही है कि उसके कारण ही राणा अपने देश को त्यागकर जंगल में भटक रहे हैं। उसी समय दौलत का मीठा स्वर उसके कानों में गूंज उठता है। रानी और दौलत के वार्तालाप के इसी अवसर पर महाराणा प्रताप रानी को सूचना देते हैं कि मेवाड़-भूमि की मुक्ति के लिए, वे मेवाड़ से दूर सिन्धु-प्रदेश में जाकर सैन्य-संग्रह करेंगे। राणा के इस निश्चय को सुनकर लक्ष्मी में चेतना दौड़ पड़ती है। वह भी मेवाड़ की स्वाधीनता हेतु अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तत्पर हो जाती है।

छठे सर्ग का शीर्षक ‘पृथ्वीराज’ सर्ग है। क्षितिज में अरुणाभा फैल जाने पर राणा सभी को यात्रा के लिए तैयार कर देते हैं। उसी समय एक अनुचर अकबर के दरबारी कवि पृथ्वीराज का पत्र लाकर राणा को देता है। वे पत्र पढ़कर पृथ्वीराज से मिलने जाते हैं। पृथ्वीराज अपने और अपने जैसे अन्य राजपूत नरेशों के स्वार्थपूर्ण व्यवहार पर दुःख प्रकट करते हुए कहते हैं कि उन्होंने अपनी राजपूती मर्यादा को भूलकर अकबर का साथ दिया था। अब हम अकबर से प्रतिशोध लेकर मेवाड़ को पुन: प्राप्त करेंगे। पृथ्वीराज यह भी बताता है कि भामाशाह सेना का प्रबन्ध करने के लिए साधन प्रस्तुत करेंगे।

सप्तम सर्ग का शीर्षक ‘भामाशाह’ के नाम पर है। राणा प्रताप एकान्त में बैठकर बदली हुई परिस्थिति पर विचार करते हैं। उसी समय भामाशाह पृथ्वीराज के साथ आकर जय-जयकार करते हुए नतमस्तक हो जाते हैं। भामाशाह अपने पूर्वजों द्वारा संचित अपार-निधि राणा के चरणों में अर्पित करना चाहते हैं, परन्तु राणा प्रताप दी हुई वस्तु को वापस लेना मर्यादा के अनुकूल नहीं मानते।।

प्रताप का यह वचन सुनकर भामाशाह कहता है कि क्या यह प्रत्येक नागरिक का पावन कर्तव्य नहीं है। कि वह देश के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दे? भामाशाह के इस विनयपूर्ण अकाट्य तर्क को राणा प्रताप अस्वीकार नहीं कर पाते और भामाशाह को गले से लगा लेते हैं। यहीं ‘मेवाड़-मुकुट’ खण्डकाव्य की समाप्ति हो जाती है।

प्रश्न 2
‘मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग (अरावली) का सारांश (कथा) संक्षेप में लिखिए। [2014, 17]
या
‘मेवाड़-मुकुट’ के अरावली सर्ग की कथा प्रस्तुत कीजिए। [2018]
उत्तर
अरावली सर्ग की रचना पूर्व-पीठिका के रूप में की गयी है। हल्दीघाटी के मैदान में बड़ी वीरता से युद्ध करने के बाद भी महाराणा प्रताप की सेना पराजित हो जाती है। उस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप साधनहीन होकर अरावली के जंगलों में भटकते हैं।

अरावली एक पर्वत-श्रृंखला है, जो राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी अंचल में गौरव से सिर उठाये खड़ी है। कवि ने अरावली और वनस्थली का मानवीकरण किया है। अरावली पर्वत महाराणा प्रताप को अपने अंचल में पाकर गर्व का अनुभव कर अपने को धन्य मानता है। उसे विश्वास है कि यह महापुरुष, मेवाड़ के स्वाभिमान की रक्षा करेगा और उसके गये हुए गौरव को वापस लाएगा। स्वतन्त्रता का दीवाना प्रताप अपनी पत्नी लक्ष्मी और पुत्र अमर के साथ इस वीराने में भ्रमण कर रहा है। महाराणा प्रताप शत्रु की कन्या ‘दौलत को अपनी शरण में रख उससे पुत्रीवत् व्यवहार करता है। वन के पशु एवं कोल-किरात आदि वन्य जातियाँ ही अब मानो उसके प्रजाजन हैं। उनकी पत्नी लक्ष्मी अपने पुत्र को गोद में लिये वनवासिनी सीता के समान एक वृक्ष के नीचे बैठी हैं। अरावली स्वयं स्वतन्त्रता के उपासक इस प्रताप की रक्षा में सन्नद्ध है।

प्रश्न 3
‘मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य के लक्ष्मी सर्ग (द्वितीय सर्ग) की कथा संक्षेप में लिखिए। [2015, 18]
या
‘मेवाड़-मुकुट’ खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का सारांश (कथानक) लिखिए। [2017]
उत्तर
द्वितीय सर्ग का नामकरण महाराणा प्रताप की पत्नी लक्ष्मी के नाम पर हुआ है। इस सर्ग में उसी का चरित्र अंकित हुआ है। रानी लक्ष्मी ने वैभव के दिन देखे हैं और अब उसे निर्धनता का जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है। लेकिन सच्ची भारतीय पत्नी और वीर क्षत्राणी के रूप में उसे अपने कष्टों की चिन्ता नहीं है। वह कन्द-मूल-फल खाकर व पृथ्वी पर सोकर धैर्यपूर्वक अपने दिन गुजार देती है। उसे केवल बच्चों की, प्रताप की एवं ‘दौलत’ की भूख सहन नहीं है। वह अपनी कुटी के बाहर मौन बैठी है। उसके हृदय में उथल-पुथल मची हुई है। अपने बच्चे की दयनीय दशा देखकर वह कभी-कभी धीरज खो बैठती है। इस सुन्दर राजपुत्र का कैसा भाग्य, जो राणा का पुत्र होकर भी दूध के लिए तरसता है। वह भाग्य की इस विडम्बना को अत्याचार और अन्याय का समर्थक मानती हुई उद्विग्न हो जाती है। वह सोचती है कि राणा ने : केवल यही तो किया कि अपने शत्रु के सम्मुख शीश नहीं झुकाया, इसी अपराध के कारण उन्हें वन-वन भटकना पड़ रहा है। हमने स्वतन्त्रता नहीं बेची, इसीलिए दु:ख मिल रहा है। वह उत्साहित होकर कह उठती है-“हमको नहीं डुबा पाएगा यह कष्टों का सागर।”

तभी राणा कुटी के बाहर आकर रानी के जागते रहने का कारण पूछते हैं। रानी ‘कुछ नहीं, कुछ नहीं कहती हुई कुटी के भीतर चली जाती है। रानी की मनोदशा समझकर राणा प्रताप सजल नेत्र हो जाते हैं।

प्रश्न 4
‘मेवाड़-मुकुट के ‘प्रताप’ सर्ग की कथा संक्षेप में लिखिए। [2012, 13, 14]
या
‘मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का सारांश लिखिए। [2010, 13, 16]
या
‘मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग ‘प्रताप सर्ग पर प्रकाश डालिए। [2017]
उत्तर
तृतीय सर्ग का नामकरण काव्य के नाम पर हुआ है। इसमें प्रताप के अन्तर्द्वन्द्व का चित्रण है। राणा प्रताप के सामने मेवाड़ की मुक्ति की विकराल समस्या है। वे विचारमग्न होकर एक पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगते हैं कि उनकी पत्नी लक्ष्मी ने उनके साथ क्या-क्या कष्ट नहीं सहे हैं, वह वन-वन मारी फिर रही है। फिर भी वह अपने कर्तव्यपालन से विचलित नहीं हुई। मुझे भी अपना कर्तव्यपालन करना चाहिए। वे अपने भाई शक्तिसिंह के विश्वासघात से आहत हैं और उसके अकबर से मिल जाने का उन्हें दु:ख भी है। वे कहते हैं

शक्तिसिंह, जिसको मैंने था बन्धु बनाकर पाला।
वह भी मुझसे द्रोह कर गया निकला विषधर काला॥

यह सोचकर भी उनका उत्साह कम नहीं होता। वे जानते हैं कि जब उसकी आत्मा धिक्कारेगी, तो वह, अवश्य ही लौटकर वापस आएगा। वे मन-ही-मन प्रतिज्ञा करते हैं कि वे मेवाड़ को स्वतन्त्र कराने के लिए अपने प्राण तक दे देंगे। वे सोचते हैं कि मानसिंह जैसा वीर भी अकबर के इशारे पर नाच रहा है, परन्तु मेरा मस्तक अकबर के सामने नहीं झुक सकता। वे अपने स्वामिभक्त घोड़े चेतक का स्मरण कर करुणा से द्रवित हो जाते हैं।

वे फिर सोचने लगते हैं कि अरावली में रहते हुए स्वतन्त्रता संग्राम के लिए पर्याप्त साधन जुटाना कठिन है। वे देश की मुक्ति के लिए अरावली को छोड़कर सिन्धु-प्रदेश में जाकर सैन्य-संग्रह करके शत्रु से लोहा लेकर मेवाड़ को मुक्त कराने की सोचते हैं। वे अपने सिसोदिया वंश की आन रखने का संकल्प लेते हैं, किन्तु साधनहीन हुए यह विचार करते हैं कि वह शत्रुपक्ष का सामना कैसे करें। वे चेतक की स्वामिभक्ति तथा शत्रु-पक्ष की कन्या दौलत के विषय में भी विचार करते हैं। ‘‘पर दौलत का क्या होगा, क्या वह भी साथ चलेगी?” प्रश्न मन में उठते ही वे अनायास ‘दौलत’ से मिलने के लिए चल देते हैं।

प्रश्न 5
‘मेवाड़-मुकुट’ खण्डकाव्य के ‘दौलत’ सर्ग (चतुर्थ सर्ग) की कथावस्तु लिखिए। [2015, 17]
उत्तर
चतुर्थ सर्ग का नामकरण बालिका दौलत के नाम पर हुआ है। दौलत अकबर के मामा की बेटी है। वह पर्णकुटी के पीछे एक वृक्ष की छाया में बैठी अपने विगत जीवन को याद कर रही है। वह अकबर के दरबार की और अपने विगत जीवन के बारे में विचार करती हुई कहती है कि “उस भोग-विलास भरे जीवन में कटुता ही थी प्रीति नहीं।” उसे बीते जीवन की तुलना में अपना वर्तमान जीवन अधिक सुखद मालूम होता है। अकबर के साम्राज्यवाद की लिप्सा उसके कोमल हृदय में घृणा के बीज बो देती है, किन्तु राणा प्रताप के प्रति उसके विचार पिता जैसी श्रद्धा से युक्त हैं

सचमुच ये कितने महान् कितने गौरवशाली।
इनको पिता बनाकर मैंने बहुत बड़ी निधि पा ली।।

दौलत विचार करती हुई स्वयमेव कह उठती है कि “अकबर यह क्यों नहीं समझते कि ईश्वर ने सबको समान बनाया है।’ राणा के भाई शक्तिसिंह पर ‘दौलत’ का मन आकृष्ट है, किन्तु वह राणा के सम्मुख अपनी कहानी कहकर उनके दु:ख को और नहीं बढ़ाना चाहती। वह शक्तिसिंह और प्रताप की तुलना करती हुई कहती है कि “ये सूर्य हैं, वह दीपक है।” वह राणा प्रताप के लिए कुछ करना चाहती है। विचारों में निमग्न दौलत को उसी समय वृक्षों के पीछे से किसी की पदचाप सुनाई पड़ती है। यहीं पर इस सर्ग का समापन हो जाता है।

प्रश्न 6
‘मेवाड़-मुकुट के ‘चिन्ता’ सर्ग (पञ्चम सर्ग) में दिये रानी लक्ष्मी के मनोभावों को स्पष्ट कीजिए।
या
‘मेवाड़-मुकुट’ खण्डकाव्य के आधार पर ‘चिन्ता’ (पञ्चम) सर्ग का सारांश (कथावस्तु या कथानक) लिखिए। [2009, 14, 18]
उत्तर
‘दौलत के पास पहुँचकर राणा उसके एकान्त चिन्तन का कारण पूछते हैं। दौलत अपने को परम सुखी और निश्चिन्त बताती हुई स्वयं राणा के रात-दिन चिन्तित रहने को ही अपनी चिन्ता का कारण बताती है। राणा उसे प्यार से कहते हैं-“तूने तो आकर किये मुखर, सोये थे जो स्वर मौन यहाँ।”

इसी प्रसंग में राणा प्रताप कहते हैं कि वे रानी लक्ष्मी की आँखों में आँसू देखकर कुछ विचलित हैं। रानी लक्ष्मी के धीर-गम्भीर स्वभाव की बात कहते हुए दौलत कहती है कि वे अपने मन की गहराई में सारे दु:खों को इस प्रकार समाहित रखती हैं कि किसी को उनके दु:खी होने का पता नहीं लग पाता। उनकी आँखों में आँसू होने का अर्थ निश्चित ही कोई असामान्य घटना है। अत: दौलत राणा के साथ लक्ष्मी के पास जाकर उसके मन की पीड़ा को जानने और यथाशक्ति उसे दूर करने के लिए तत्पर हो जाती है।

अपने पुत्र को गोद में लिटाये हुए रानी लक्ष्मी सोच रही है कि उसके कारण ही राणा अपने देश को त्यागकर जंगल में भटक रहे हैं। उसके मानस में हल्दीघाटी के युद्ध-स्थल में चेतक पर सवार होकर वीरों का आह्वान करते हुए राणा प्रताप का चित्र अंकित हो जाता है। उसी समय दौलत का मीठा स्वर-हँ, किस चिन्ता में एकाकी बैठी हो चुपचाप इधर” कानों में गूंज उठता है। रानी और दौलत के वार्तालाप के इसी अवसर पर महाराणा प्रताप रानी को अपने निश्चय की सूचना देते हैं कि मेवाड़-भूमि की मुक्ति के लिए, कुछ समय के लिए वे मेवाड़ से दूर सिन्धु-प्रदेश में जाकर सैन्य-संग्रह करेंगे और या तो वे सफल होंगे अथवा मिट जाएँगे। राणा के इस निश्चय को सुनकर लक्ष्मी में चेतना दौड़ पड़ती है। क्षत्राणी होने के कारण वह भी मेवाड़ की स्वाधीनता हेतु अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तत्पर हो जाती है। तत्पश्चात् अगले दिन प्रात: ही प्रस्थान करने का निश्चय हो जाता है।

प्रश्न 7
‘मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य के आधार पर कवि पृथ्वीराज और राणा प्रताप के बीच हुए वार्तालाप का सारांश लिखिए।
या
खण्डकाव्य के ‘पृथ्वीराज’ सर्ग (षष्ठ सर्ग) का कथानक संक्षेप में लिखिए। [2009, 15]
या
‘मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य के ‘पृथ्वीराज’ सर्ग का सारांश लिखिए। [2011, 13]
या
‘मेवाड़-मुकुट’ खण्डकाव्य के छठवें सर्ग का कथानक लिखिए। [2016]
उत्तर
क्षितिज में अरुणाभा फैल जाने पर राणा सभी को यात्रा के लिए तैयार कर देते हैं। उसी समय एक अनुचर अकबर के दरबारी कवि पृथ्वीराज का पत्र लाकरे राणा को देता है। वे पत्र पढ़कर पृथ्वीराज से मिलने जाते हैं। पृथ्वीराज अपने और अपने जैसे अन्य राजपूत नरेशों के स्वार्थपूर्ण व्यवहार पर दु:ख प्रकट करते हुए कहते हैं कि उन्होंने अपनी राजपूती मर्यादा को भूलकर अकबर का साथ दिया था। वहाँ क्षुद्र स्वार्थ के कारण उनका स्वाभिमान, स्वातन्त्र्य-प्रेम और जातीय गौरव सभी कुछ नष्ट हो गया है। अब हमने कपटरहित मन से यह स्वीकार किया है कि हम आपको साधनहीन वन-वन भटकने नहीं देंगे। हमें आपके भुजबल पर भरोसा है। अब हम अकबर से प्रतिशोध लेकर मेवाड़ को पुनः प्राप्त करेंगे। जब राणा प्रताप अपने साधनहीन होने की बात करते हैं, तब पृथ्वीराज बताता है कि भामाशाह सेना का प्रबन्ध करने के लिए साधनों को प्रस्तुत करेंगे। यह सूचना देकर और राणा प्रताप की आज्ञा लेकर वे भामाशाह को बुलाने चले जाते हैं।

प्रश्न 8
‘मेवाइ-मुकुट’ के सातवें सर्ग ‘भामाशाह का सारांश लिखिए। [2010, 12, 13]
या
‘मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य के आधार पर राणा प्रताप और भामाशाह के मध्य हुए वार्तालाप का वर्णन कीजिए।
या
‘मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य में वर्णित किस घटना ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया है ? उदाहरण देकर समझाइट। [2009]
या
‘मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य मेवाड़ की स्वाधीनता का संग्राम था।’ इस उक्ति पर प्रकाश डालिए। [2009]
उत्तर
राणा प्रताप एकान्त में बैठकर बदली हुई परिस्थिति पर विचार करते हैं। उन्हें लगता है कि उनके जीवन-पथ में नियति अब नया मोड़ लाना चाहती है, तभी तो अकबर के मित्र कवि उनकी खोज करते हुए भामाशाह के साथ अरावली में आ पहुँचे हैं। उसी समय भामाशाह पृथ्वीराज के साथ आकर जयजयकार करते हुए नत-मस्तक हो जाते हैं। भामाशाह अपने पूर्वजों द्वारा संचित अपार-निधि राणा के चरणों में अर्पित करना चाहते हैं, परन्तु राणा प्रताप क्षत्रिय होकर पराया धन स्वीकार करना; अपने कुल की मर्यादा के विपरीत मानते हुए उसे लेने से इनकार कर देते हैं। भामाशाह निवेदन करता है कि वह राजवंश की दी हुई सम्पत्ति ही राजवंश की सेवा में अर्पित कर रहा है, परन्तु राणा प्रताप दी हुई वस्तु को वापस लेना मर्यादा के अनुकूल नहीं मानते–

राजवंश ने जिनको जो कुछ दिया, न वापस लूंगा।
शेष प्राण हैं अभी, देश-हित हँस-हँस होम कसँगा।

प्रताप का यह वचन सुनकर भामाशाह कहता है कि क्या देश-हित में त्याग और बलिदान का अधिकार केवल राजवंश को ही है ? क्या यह प्रत्येक नागरिक का पावन कर्तव्य नहीं है कि वह देश के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दे? भामाशाह के इस विनयपूर्ण अकाट्य तर्क को राणा प्रताप अस्वीकार नहीं कर पाते और एक क्षण को मौन रह जाते हैं, फिर भामाशाह को गले से लगा लेते हैं। भामाशाह के समर्पण को स्वीकार कर राणा प्रताप तुरन्त सैन्य-संग्रह के लिए तत्पर हो जाते हैं। अब मेवाड़ की मुक्ति का स्वप्न उन्हें साकार होता दिखाई देने लगता है। यहीं ‘मेवाड़-मुकुट’ खण्डकाव्य की समाप्ति हो जाती है।

प्रश्न 9
‘मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य के आधार पर महाराणा प्रताप (खंण्डकाव्य के नायक) का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
या
मेवाइ-मुकुट खण्डकाव्य के नायक कौन हैं ? उनके चरित्र की तीन विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2009, 10, 15, 17]
या
‘मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य के जिस पात्र ने आपको सर्वाधिक प्रभावित किया हो, उसका चरित्रांकन कीजिए। [2012, 16]
या
“महाराणा प्रताप भारतीय इतिहास के एक ऐसे महापुरुष हैं, जिनसे जातीय स्वाभिमान, देशप्रेम व स्वाधीनता के लिए सर्वस्व बलिदान की सीख राष्ट्र की पीढ़ियाँ निरन्तर ग्रहण करती रहेंगी।” मेवाड़-मुकुट के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
या
‘मेवाड़-मुकुट के आधार पर राणा प्रताप के चरित्र की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। [2012, 13]
या
‘मेवाड़-मुकुट के नायक के त्याग और पराक्रम का वर्णन कीजिए। [2012]
या
‘मेवाड़-मुकुट’ खण्डकाव्य के आधार पर राणा प्रताप के योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
महाराणा प्रताप ‘मेवाड़-मुकुट’ खण्डकाव्य के नायक हैं। कवि ने इस काव्य में भारतीय इतिहास के विख्यात महापुरुष महाराणा प्रताप के त्याग, संघर्ष, देशभक्ति, उदारता और बलिदान का चित्रण किया है। वे हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर से पराजित होकर अरावली के सघन वनों में भटकते हुए भी अपनी प्यारी मातृभूमि मेवाड़ की स्वतन्त्रता के लिए साधन की खोज करते रहते हैं। राणा प्रताप के इन गुणों को अपनाने हेतु प्रेरित करना ही कवि का उद्देश्य रहा है। महाराणा प्रताप के चरित्र में निम्नवत् विशेषताएँ हैं—

(1) स्वतन्त्रता-प्रेमी–स्वतन्त्रता के प्रति प्रेम प्रताप के रोम-रोम में व्याप्त है। भारत के सभी शासक अकबर की शक्ति के कारण उसकी अधीनता स्वीकार कर लेते हैं, परन्तु वह जब तक साँस है स्वतन्त्र रहूँगा, दास नहीं हो सकता” कहते हुए पराधीनता स्वीकार नहीं करते और पराजित होकर अरावली की पहाड़ियों में भटकते रहते हैं और मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए युक्ति सोचते रहते हैं

मैं मातृभूमि को अपनी पुनः स्वतन्त्र करूंगा।
या स्वतन्त्रता की वेदी पर लड़ता हुआ मरूसँगा॥

(2) देशभक्त-प्रताप में देशप्रेम कूट-कूटकर भरा हुआ है। वे मेवाड़ की मुक्ति के लिए अरावली की घाटियों में भटकते हुए भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होते। वे अपना सर्वस्व गॅवाकर भी मातृभूमि की रक्षा के लिए कृतसंकल्प हैं। उन्हें मेवाड़ से, वहाँ की धरती से, नदी-पर्वतों से और वनों-मैदानों से भी असीम प्यार है। वे देश की स्वतन्त्रता व सेवा का आमरण व्रत लिये हुए हैं-

मैं स्वदेश के हित जीवित हूँ, उसके लिए मरूंगा।

(3) उदार और भावुक हृदय-प्रताप का हृदय अत्यधिक उदार है। वे शत्रु की कन्या ‘दौलत’ को भी पुत्रीवत् पालते हैं। अपने भाई शक्तिसिंह के अकबर से मिल जाने पर भी वे उसे उसकी मूर्खता ही मानते हैं। और उसे क्षमा कर देते हैं। उनके शब्दों से भाई के प्रति उनकी सहृदयता झलकती है—मेरा ही है मुझसे दूर कहाँ जाएगा। इसी प्रकार घोड़े चेतक की मृत्यु पर वे बहुत शोक-विह्वल हो उठते हैं। वे अकबर के मित्र पृथ्वीराज और भामाशाह से भी आत्मीयता से मिलते हैं।

(4) स्वाभिमानी–राणा प्रताप में क्षत्रियोचित स्वाभिमान विद्यमान है, इसलिए भामाशाह के द्वारा सैन्य-संग़ठन के लिए दिये जाने वाले अपरिमित धन को स्वीकार करना वे अपने स्वाभिमान के विरुद्ध मानते हैं। राजवंश के द्वारा दिये गये धन को भी स्वीकार करना वे उचित नहीं मानते–

राजवंश ने जिसको जो कुछ दिया, न वापस लँगा।
शेष प्राण हैं अभी, देश-हित हँस-हँस होम करूंगा।

महाराणा प्रताप की नस-नस में स्वाभिमान समस्या हुआ है। उन्हें अपनी जाति, कुल और देश पर अभिमान है। वे जाति और देश पर मर-मिटना भी जानते थे। स्वाभिमान के कारण वह मेवाड़ की मुक्ति के लिए जीवनभर संघर्ष करते रहे, परन्तु अकबर के सामने सिर झुकाने को किसी भी मूल्य पर तैयार न हुए।

(5) दृढ़-प्रतिज्ञ-राणा प्रताप दृढ़-प्रतिज्ञ हैं। वह अपने संकल्प को बार-बार दुहराते हैं। वे प्रतिज्ञा करते हैं कि जब तक शरीर में श्वास है, मेवाड़ की भूमि को स्वतन्त्र करने का प्रयास करता रहूंगा- .

जब तक तन में प्राण, लड़ेगा, पलभर चैन न लेगा।
सूर्य चन्द्रटल जाये, किन्तु व्रत उसका नहीं टलेगा।

राणा प्रताप अपने संकल्प को पूरा करने के लिए सिन्धु-देश में जाकर धन और सैन्य-संग्रह करना । चाहते हैं और अपनी प्रतिज्ञा को कार्यरूप देने के लिए सदैव चिन्तित रहते हैं।

(6) धैर्यवान् महाराणा निर्भीक, साहसी और धैर्यशाली हैं। वे दुःखमय जीवन व्यतीत करते हैं, फिर भी शत्रु के सामने नहीं झुकते। वे कन्द-मूल-फल खाकर और भूमि पर सोकर भी धैर्य नहीं छोड़ते । स्वयं अरावली पर्वत भी उनकी धीरता के विषय में कहता है–

वह मति-धीरवीर, विपदा से किंचित् नहीं डरेगा।
फिर मेरे अतीत गौरव का, जीर्णोद्धार करेगा।

(7) शरणागतवत्सल और वात्सल्यपूर्ण पिता-राणा प्रताप का हृदय अत्यन्त उदार एवं विशाल है। वे शत्रुपक्ष की कन्या दौलत को शरण देते हैं और उसे अपनी पुत्री के समान ही पालते हैं। इस सम्बन्ध में कवि के उद्गार हैं-

अरि की कन्या को भी उसने रख पुत्रीवत वन में।
एक नया आदर्श प्रतिष्ठित किया वीर जीवन में।

दौलत के मुख से निकले हुए शब्द राणा प्रताप के उसके प्रति वात्सल्य भाव को प्रकट करते हैं

सचमुच ये कितने महान् हैं कितने गौरवशाली।
इनको पिता बनाकर मैंने बहुत बड़ी निधि पा ली।

(8) पराक्रमी–महाराणा प्रताप के व्यक्तित्व की ओजस्विता दर्शनीय है। वे युद्धस्थल में शत्रुओं को धराशायी करने में पूर्ण सक्षम हैं। वे अपरिमित सैन्य-शक्तिसम्पन्न अकबर से युद्ध करते हैं तथा उसकी सेना के दाँत खट्टे कर देते हैं। उनके पराक्रम का लोहा स्वयं अकबर भी मानता है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि महाराणा प्रताप स्वतन्त्रता-प्रेमी, देशभक्त, उदारहृदय, त्यागी, दृढ़-प्रतिज्ञ, निर्भीक और स्वाभिमानी लौह-पुरुष हैं। वे भारतीय इतिहास में सदैव वन्दनीय रहेंगे।

प्रश्न 10
‘मेवाड़-मुकुट’ खण्डकाव्य के आधार पर भामाशाह का चरित्र-चित्रण कीजिए। | [2010, 11, 12, 13, 14, 17]
या
भामाशाह का चरित्र आज के अर्थप्रधान युग में प्रासंगिक और अनुकरणीय होने के कारण अपना एक विशिष्ट महत्त्व रखता है। ‘मेवाड़-मुकुट के आधार पर स्पष्ट कीजिए। [2009]
या
‘मेवाड़-मुकुट के आधार पर भामाशाह की देशभक्ति तथा त्याग-भावना पर प्रकाश डालिए। [2009, 10]
या
भामाशाह के चरित्र की तीन विशेषताओं का उल्लेख कीजिए और बताइए कि उनसे आपको क्या प्रेरणा मिलती है ?
या
‘मेवाड़-मुकुट के आधार पर भामाशाह के चारित्रिक गुणों (विशेषताओं) पर प्रकाश डालिए। [2014]
उत्तर
भामाशाह ‘मेवाड़-मुकुट’ खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र हैं। वे मेवाड़-केसरी महाराणा प्रताप की ऐसे समय में सहायता करते हैं, जब वे बिल्कुल असहाय और निराश हो चुके थे। उनका चरित्र त्याग का आदर्श चरित्र है; अत: कवि ने उनके नाम पर एक पृथक् सर्ग की रचना करके उन्हें गौरव प्रदान किया है। उनके चरित्र में मुख्य रूप से निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं|

(1) देशप्रेमी—भामाशाह को अपनी मातृभूमि मेवाड़ से अटल अनुराग है। स्वदेश-प्रेम की भावना से प्रेरित होकर ही वे महाराणा प्रताप को सैन्य-संगठन के लिए अपनी अतुल सम्पत्ति समर्पित कर देते हैं। वे कहते हैं-

यदि स्वदेश के मुक्ति यज्ञ में, यह आहुति दे पाऊँ।
पितरों सहित देव निश्चय ही, मैं कृतार्थ हो जाऊँ॥

(2) महान् त्यागी–भामाशाह का त्याग अनुपम और आदर्श है। अपने पिता-पितामहों के द्वारा संचित लक्ष-लक्ष मुद्राओं को राणा के चरणों में समर्पित करते हुए वे अपने को धन्य समझते हैं-

पिता-पितामहों के द्वारा यह निधि वर्षों की संचित है।
साधन-संग्रह हेतु देव के चरणों में अर्पित है॥

भामाशाह का त्याग प्रताप को कर्तव्य-पथ की ओर प्रेरित करता है। महाराणा प्रताप स्वयं कहते हैं
“जिस मेवाड़ भूमि पर भामाशाह जैसे त्यागी, बलिदानी पुरुषों ने जन्म लिया, वह भला किस तरह परतन्त्र रह सकती है।”

(3) राजवंश में निष्ठा-भामाशाह की राजवंश में निष्ठा है। वे राणा प्रताप से कहते हैं कि हमने सारी सम्पदा राजवंश से ही प्राप्त की है—राजवंश के ही प्रसाद से श्रीसम्पन्न बने हम। वे अपने को राज्य का सेवक और सारी सम्पदा को राज्य की ही मानते हुए इस सम्पदा को उपयोग राज्य की रक्षा के लिए किये जाने को उचित ठहराते हैं।

(4) तर्कशील-भामाशाह उत्कृष्ट तार्किक व्यक्ति हैं। उनमें बुद्धि और तर्क का मणिकांचन योग है। प्रताप द्वारा धन अस्वीकार करने पर वे स्पष्ट तर्क देते हुए कहते हैं-“देशहित में त्याग और बलिदान का अधिकार केवल राजवंश को ही नहीं है, वरन् यह प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दे।” यहाँ जो कुछ जिस किसी के पास है, वह स्वदेश का है-

उसके ऋण से उऋण करे जो, वह धन देव कहाँ है।
तन-मन-धन-जीवन सब उसका, अपना कुछ न यहाँ है ॥

(5) विनयशील–भामाशाह अत्यन्त विनम्र हैं। वे अपने पूर्वजों के द्वारा संचित निधि को बड़े विनय भाव से राणा के चरणों में अर्पित करते हुए कहते हैं-

वह अधिकार देव सबका है, यह कर्त्तव्य सभी का।
सबको आज चुकाना है, ऋण मेवाड़ी माटी का ॥

भामाशाह राणा प्रताप को ‘देव’ और अपने को उनका ‘सेवक’ बताते हुए उस सम्पदा को स्वीकार करने के लिए विनयपूर्वक याचना करते हैं।

(6) उत्साही एवं प्रेरक— भामाशाह एक उत्साही व्यक्ति हैं। प्रथम मिलन में ही वे राणा प्रताप का उत्साह बढ़ाते हैं तथा उनको मेवाड़ की रक्षा हेतु प्रेरित करते हैं। भामाशाह के प्रेरणात्मक शब्द ही राणा प्रताप के निराश मन में आशा का संचार करते हैं

अविजित हैं, विजयी भी होंगे, देव शीघ्र निःसंशय।
मातृभूमि होगी स्वतन्त्र फिर, हम होंगे फिर निर्भय ॥

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भामाशाह को देशप्रेम और त्याग अनुपम है। वह तर्कशील, विनयशील और राजवंश में निष्ठा रखने वाले धनी पुरुष हैं। भामाशाह जैसा त्याग का आदर्श विश्व-इतिहास में दुर्लभ है।।

प्रश्न 11
“मेवाड़-मुकुट’ खण्डकाव्य के आधार पर पृथ्वीराज का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2014]
उत्तर
पृथ्वीराज अकबर के दरबारी कवि हैं और अकबर के मित्र भी। पहले वे राणा प्रताप के विरुद्ध राजा मानसिंह के पक्ष में रहते हैं किन्तु जब अकबर उनके भी कुल की लाज लूटने लगता है, तब उनका रक्त खौलता है और वे आकर महाराणा प्रताप से मिलते हैं तथा उनसे प्रार्थना करते हैं कि वे राजपूतों की लाज बचाएँ। मेवाड़-मुकुट’ खण्डकाव्य में उनके चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ प्रकट होती हैं

(1) महाराणा प्रताप के प्रति श्रद्धा-पृथ्वीराज राणा प्रताप के प्रति अत्यधिक श्रद्धा-भाव रखते हैं। जैसे ही महाराणा प्रताप को देखते हैं, वे दोनों हाथ उठाकर उनकी जय-जयकार करते हैं और कहते हैं कि वे सिसौदिया कुल-भूषण हैं। मेवाड़ का कण-कण उनका यशोगान कर रहा है।”

(2) पश्चात्ताप की भावना—पृथ्वीराज पश्चात्ताप की भावना से युक्त हैं। जब राणा प्रताप उनसे क्रोध, घृणा और व्यंग्य की भाषा में बोलते हैं, तब पृथ्वीराज सब कुछ शान्तिपूर्वक सुनते हैं और फिर सच्चे हृदय से अपनी पिछली गलतियों के लिए पश्चात्ताप करते हैं तथा अपने आपको ‘अकबर का चारण’ कहकर सम्बोधित करते हैं-

यह अकबर का चारण अपने, जीवन की निधि खोकर।
आया, चरण शरण राणा की, आज पाप निज धोकर ॥

पृथ्वीराज का दु:ख देखकर महाराणा प्रताप को हृदय पिघल जाता है। वे कहते हैं कि पृथ्वीराज का पश्चात्ताप राजपूतों की जागृति का शुभ लक्षण है।

(3) प्रतिशोध की भावना से दग्ध-पृथ्वीराज के मन में अकबर के प्रति प्रतिशोध की भावना प्रज्ज्वलित है। जब राणा प्रताप पृथ्वीराज से पूछते हैं कि अब वे हाथ-पर-हाथ रखकर बैठना चाहते हैं। अथवा अकबर से प्रतिशोध लेना चाहते हैं, तब पृथ्वीराज प्रतिशोध की भयंकर भावना से भरकर कह उठते हैं-

बोले हाँ प्रतिशोध मात्र, प्रतिशोध लक्ष्य अब मेरा ।
उसके हित ही लगा रहा हूँ, अरावली का फेरा ॥

(4) सच्चे-सहयोगी–कवि पृथ्वीराज में एक सच्चे सहयोगी की भावना भी पायी जाती है। वे महाराणा प्रताप की उचित वक्त पर सहायता करते हैं। वे अपने साथ भामाशाह को लाते हैं, जो लाखों स्वर्ण मुद्राएँ महाराणा को अर्पित कर देता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि पृथ्वीराज के चरित्र में एक सच्चे देशभक्त की सभी भावनाएँ विद्यमान हैं, जो उचित अवसर पाकर अभिव्यक्त हुई हैं।

प्रश्न 12
“मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य के आधार पर लक्ष्मी का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य के आधार पर किसी नारी पात्र की चारित्रिक विशेषताओं को लिखिए। [2018]
उत्तर
लक्ष्मी महाराणा प्रताप की सच्चे अर्थों में उनकी अद्धगिनी हैं। वे भी महाराणा प्रताप के साथ वन-वन भटक रहीं हैं और उनके समान ही कष्ट सह रही हैं। प्रस्तुत खण्डकाव्य में उनके चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ प्रकट होती हैं

(1) मानसिक-संघर्ष-लक्ष्मी इतने कष्ट झेलती हैं कि मानसिक संघर्ष के कारण उन्हें अनेक प्रकार की शंकाएँ होने लगती हैं। वे सोचती हैं कि कर्म-योग की बातें करना कोरा आदर्श है। वास्तव में भोग ही सच्चा जीवन-दर्शन है। संसार में दयावान् तथा सविचार वाले व्यक्ति दु:ख भोगते हैं और कुमार्ग पर चलने वाले सफलता प्राप्त करते हैं।

(2) महाराणा प्रताप के लिए अपार श्रद्धा-लक्ष्मी के हृदय में महाराणा के लिए अपार श्रद्धा है। वे कहती हैं कि उनका एकमात्र अपराध यही है कि उन्होंने कभी अत्याचारी के आगे सिर नहीं झुकाया, अपने धर्म और स्वाभिमान को नहीं बेचा और दासता का जीवन स्वीकार नहीं किया। इसके कारण ही उन्हें इतने कष्ट झेलने पड़ रहे हैं किन्तु उनकी आत्मा महान् है और इससे उन्हें सन्तोष प्राप्त होता है। वास्तव में लक्ष्मी को यही खेद है कि निर्दोष होते हुए भी महाराणा इतना कष्ट भोग रहे हैं।

(3) परदुःख-कातरता लक्ष्मी स्वयं कष्ट सह सकती हैं, पर दूसरों के कष्ट उनसे नहीं देखे जाते। वे कहती हैं कि यदि वे अकेली होतीं तो उन्हें भूखे रहने की कोई चिन्ता न थी किन्तु उनसे अमर, दौलत और राणा जी का भूखों रहना नहीं देखा जाता।

(4) उदारहृदया–लक्ष्मी का हृदय विशील और संकीर्ण साम्प्रदायिक विचारों से परे है। अकबर की ममेरी बहन दौलत उनके साथ आकर रहने लगती है। वे उसको उतना ही स्नेह करती हैं, जितना अपने पुत्र अमर को। वे यह नहीं सोचतीं कि यह बालिका एक यवन पुत्री है और शत्रु की बहन है। यही कारण है कि दौलत भी लक्ष्मी को सच्चे हृदय से अपनी माँ मानती है और उनका उसी प्रकार सम्मान करती है।

(5) स्वतन्त्रता-प्रेमी-पर्याप्त मानसिक संघर्ष झेलते हुए भी अन्त में उनकी स्वतन्त्रता की भावना की विजय होती है। वे कहती हैं कि वे कष्ट सहती रहेंगी। कष्टे उन्हें विचलित नहीं कर पाएँगे। वे कभी अत्याचारों के आगे शीश नहीं झुकाएँगी।

(6) दृढ़ता एवं वीरता-वे वीरांगना हैं। जब महाराणा प्रताप कहते हैं कि उन्होंने मेवाड़ छोड़ने का निश्चय कर लिया है, तो उनका मन पुनः उत्साह से भर जाता है। वे राणा से कहती हैं कि वे उनकी चिन्ता न करें। वे क्षत्राणी हैं और वे जौहर करना जानती हैं।

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि रानी लक्ष्मी उदारहृदया, साहसी एवं सहनशील हैं। वे एक आदर्श पत्नी तथा स्नेही माँ हैं। संकटों के झंझावात कभी-कभी उन्हें विचलित कर देते हैं, किन्तु अन्त में उनकी दृढ़ता और उनके स्वतन्त्रता-प्रेम की ही विजय होती है। वे कष्टों के समक्ष नतमस्तक होने से इन्कार कर देती हैं।

प्रश्न 13
“मेवाड़-मुकुट’ खण्डकाव्य के आधार पर दौलत का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर
दौलत अकबर के मामा की लड़की है, जो राज-प्रासादों के वैभव को त्यागकर वन में महाराणा प्रताप के साथ रहने लगती हैं। महाराणा प्रताप भी उसे अपनी पुत्री की तरह ही स्नेह करते हैं। दौलत को पाकर राणा प्रताप यह भूल जाते हैं कि उनके कोई पुत्री नहीं है।

दौलत के चरित्र का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है, वह काल्पनिक पात्र है। इसका वर्णन स्वर्गीय श्री द्विजेन्द्रलाल राय के नाटक ‘राणा प्रताप सिंह’ में मिला है। कवि ने प्रस्तुत काव्य में उसे वहीं से ग्रहण किया है। उसके चरित्र में हमें निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं

(1) दरबारी जीवन से घृणा–दौलत अकबर के दरबारी जीवन से घृणों करती है। उसका कहना है कि आगरा में वैभव है, ऐश्वर्य है, रंगरेलियाँ हैं किन्तु वहाँ छल-कपट है, दम्भ और द्वेष है। यथार्थ में वहाँ का वातावरण बड़ा ही दूषित है। वहाँ सहृदयता का अभाव है और आपस में स्नेह नहीं है। इसलिए वह उस जीवन को त्याग देती है और राणा की कुटिया में आकर शान्ति प्राप्त करती है।

(2) वन-जीवन के प्रति अनुराग-दौलत राजकुमारी है किन्तु उसे वन-जीवन से अपार अनुराग है। वह प्रकृति में अनुपम सौन्दर्य के दर्शन करती है और वन के जीवन में सुख-शान्ति का अनुभव करती है।

(3) महाराणा के प्रति श्रद्धा-दौलत के हृदय में महाराणा के प्रति असीम श्रद्धा और आदर-भाव है। वह देखती है कि उसके पिता महाराणा से शत्रुता रखते हैं फिर भी महाराणा के हृदय में उसके प्रति महान् स्नेह-भाव है। वे पहले उसे खिलाते हैं, फिर स्वयं भोजन करते हैं। उसमें और अमर में कोई भेद नहीं करते तथा इस बात को कभी मन में नहीं आने देते हैं कि वह एक यवन और शत्रु-सुता है।।

(4) अकबर से घृणा-दौलत को इस बात का दु:ख है कि ऐसे महान् व्यक्ति को भी अकबर इतना कष्ट दे रहा है। राणा का एकमात्र अपराध यही है कि उन्होंने महाबली की दासता स्वीकार नहीं की। अत: वह अवबर से घृणा करती है।

(5) रानी लक्ष्मी के प्रति श्रद्धा-दौलत को रानी लक्ष्मी के लिए भी उतनी ही श्रद्धा है, जितनी महाराणा प्रताप के लिए। वह उनकी प्रकृति से भली-भाँति परिचित है और मुक्त-कण्ठ से उनकी प्रशंसा करती है।

(6) त्याग और सेवा-भावना–दौलत चाहती है वह महाराणा प्रताप की कुछ सेवा कर सके–

केवल एक पुकार यही, उठती है अन्तरतम से।
राणाकी अनुगता बनें, जीवन सँवार लें क्रम से॥

(7) शक्तिसिंह के लिए प्रेम-दौलत के वन में आने का वास्तविक कारण यह है कि वह शक्तिसिंह से प्रेम करती है। वह शक्तिसिंह के गुणों पर नहीं अपितु उसके रूप पर मुग्ध है। वह जानती है कि शक्तिसिंह क्षुद्र-हृदय और कायर है, फिर भी वह उसके रूप को निहारना चाहती है।

संक्षेप में दौलत एक नवयुवती है, उसमें नवयुवती के सदृश सुलभ कामनाएँ हैं। शक्तिसिंह पर मुग्ध होकर वह अकबर का दरबार छोड़ देती है और वन में आकर रहने लगती है, किन्तु यहाँ आकर वह वन-जीवन की भक्त हो जाती है और राणा की सेवा में ही अपने जीवन को सफल मानने लगती है।

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