NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 14 (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 14 (Hindi Medium)

These Solutions are part of NCERT Solutions for Class 12 History in Hindi Medium. Here we have given NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 14 Understanding Partition Politics, Memories, Experiences.

अभ्यास-प्रश्न
(NCERT Textbook Questions Solved)

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)।

प्रश्न 1.
1940 के प्रस्ताव के जरिए मुस्लिम लीग ने क्या माँग की?
उत्तर:
मुस्लिम लीग की स्थापना 30 दिसम्बर, 1906 ई० को ढाका में की गई। यह भारतीय मुसलमानों की प्रथम राजनैतिक संस्था थी। भारतीय मुसलमानों की ब्रिटिश सरकार के प्रति राजभक्ति की भावनाओं में वृद्धि करना तथा उनके प्रति सरकार के संदेहों को दूर करना, इसका एक प्रमुख उद्देश्य था। शीघ्र ही लीग उत्तर प्रदेश के, विशेष रूप से अलीगढ़ के, संभ्रांत मुस्लिम वर्ग के प्रभाव में आ गई। ब्रिटिश प्रशासकों ने लीग का प्रयोग राष्ट्रीय आंदोलन को दुर्बल बनाने तथा शिक्षित मुस्लिम समुदाय को राष्ट्रीय आंदोलन की ओर आकर्षित होने से रोकने के साधन के रूप में किया।

1937 ई० में कांग्रेस द्वारा संयुक्त प्रान्त में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर मंत्रिमण्डल बनाने से इनकार कर दिए जाने पर कांग्रेस और लीग के संबंध बहुत अधिक बिगड़ गए थे। लीग ने ‘इस्लाम खतरे में है’ का नारा लगाया और कांग्रेस को हिन्दुओं की संस्था बताया। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सभी कांग्रेसी मंत्रिमंडलों द्वारा नवम्बर 1939 ई० में त्यागपत्र दे दिए जाने पर मुस्लिम लीग अत्यधिक प्रसन्न हुई। लीग ने ‘द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत’ का प्रचार किया तथा मुस्लिम जनसामान्य एवं ब्रिटिश प्रशासकों को यह विश्वास दिलाने का भरसक प्रयास किया कि मुसलमानों के हित हिन्दू हितों से भिन्न है और अल्पसंख्यक मुसलमानों को बहुसंख्यक हिन्दुओं से भारी खतरा है।

मार्च 1940 ई० में लाहौर अधिवेशन में लीग ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसमें उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में सीमित स्वायत्तता की माँग की गई। प्रस्ताव में कहा गया कि “ भौगोलिक दृष्टि से सटी हुई इकाइयों को क्षेत्रों के रूप में चिह्नित किया जाए, जिन्हें बनाने में आवश्यकतानुसार क्षेत्रों का फिर से ऐसा समायोजन किया जाए कि हिन्दुस्तान के उत्तर-पश्चिम और पूर्वी क्षेत्रों जैसे जिन भागों में मुसलमानों की संख्या अधिक है, उन्हें इकट्ठा करके ‘स्वतंत्र राज्य’ बना दिया जाए, जिनमें सम्मिलित इकाइयाँ स्वाधीन और स्वायत्त होंगी।”

प्रश्न 2.
कुछ लोगों को ऐसा क्यों लगता था कि बँटवारा बहुत अचानक हुआ?
उत्तर:
कुछ विद्वानों के विचारानुसार देश का विभाजन बहुत अचानक हुआ। हमें याद रखना चाहिए कि भारत विभाजन की आधार-भूमि में प्रारंभ से ही ब्रिटिश कूटनीति कार्य कर रही थी। ब्रिटिश प्रशासकों ने प्रारंभ में ही ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति का अनुसरण किया। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को दुर्बल बनाने के लिए वे मुसलमानों की सांप्रदायिक भावनाओं को उत्तेजित करते रहे। 1942 ई० के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की व्यापकता से यह स्पष्ट हो गया था कि अंग्रेज़ अधिक समय तक भारत को अपने अधीन नहीं रख सकेंगे। और उन्हें भारत को स्वतंत्र करना ही होगा। इस आंदोलन के कारण इंग्लैंड के विभिन्न राजनैतिक दल भारतीय समस्या पर गंभीरतापूर्वक विचार करने लगे और अंग्रेजों का भारत छोड़ना निश्चित हो गया। किन्तु कूटनीति के कुशल खिलाड़ी अंग्रेज़ भारत को एक शक्तिशाली नहीं अपितु दुर्बल और विखंडित देश के रूप में छोड़ना चाहते थे।

अतः वे अचानक विभाजन के लिए तैयार हो गए। हमें याद रखना चाहिए कि उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुलता वाले क्षेत्रों के लिए सीमित स्वायत्तता की माँग से विभाजन होने के बीच का काल केवल 7 वर्ष का था। सम्भवतः किसी को भी यह ठीक से पता नहीं था कि पाकिस्तान के निर्माण का क्या अभिप्राय होगा और उसका भविष्य में जनसामान्य के जीवन पर क्या प्रभाव होगा? । उल्लेखनीय है कि 1947 ई० में अपने मूल स्थान को छोड़कर नए स्थान पर जाने वाले अधिकांश लोगों को विश्वास था कि शान्ति स्थापित होते ही वे अपने मूल स्थान में लौट आएँगे। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि प्रारंभ में मुस्लिम नेता भी एक सम्प्रभु राज्य के रूप में पाकिस्तान की माँग के प्रति गंभीर नहीं थे। सम्भवतः स्वयं जिन्नाह भी सौदेबाजी में पाकिस्तान की सोच का प्रयोग एक पैंतरे के रूप में करना चाहते थे। इसके द्वारा वे एक ओर, सरकार द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को दी जाने वाली रियायतों पर रोक लगा सकते थे और दूसरी ओर, मुसलमानों के लिए अधिकाधिक रियायतें प्राप्त कर सकते थे।

उल्लेखनीय है कि मार्च 1940 ई० में लाहौर अधिवेशन में लीग ने जो प्रस्ताव प्रस्तुत किया, उसमें उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में केवल सीमित स्वायतत्ता की माँग की गई थी। इस अस्पष्ट से प्रस्ताव में विभाजन अथवा पाकिस्तान का उल्लेख कहीं भी नहीं किया गया था। इस प्रस्ताव के लेखक पंजाब के प्रीमियर (Premier) और यूनियनिस्ट पार्टी के नेता सिंकदर हयात खान ने 1 मार्च, 1941 ई० को पंजाब असेम्बली में यह स्पष्ट किया था कि वह ऐसे पाकिस्तान की अवधारणा के विरोधी हैं, जिसमें “यहाँ मुस्लिम राज और शेष स्थानों पर हिन्दू राज होगा…..” इस प्रस्ताव के केवल सात वर्ष बाद ही देश का विभाजन हो गयी। इसलिए कुछ लोगों को लगा कि देश का विभाजन बहुत अचानक हुआ।

प्रश्न 3.
आम लोग विभाजन को किस तरह देखते थे?
उत्तर:
सामान्य लोग प्रारंभ में देश के विभाजन को केवल थोड़े समय के एक जुनून के रूप में देखते थे। उनका विचार था कि विभाजन स्थायी नहीं होगा। कुछ समय बाद जैसे ही शान्ति और कानून व्यवस्था स्थापित हो जाएगी, वे अपने घरों को वापस लौट जाएँगे। उन्हें विश्वास था कि शताब्दियों से एक समाज में एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी बनकर रहने वाले लोग एक-दूसरे का खून बहाने पर उतारू नहीं होंगे। देश का विभाजन उनके दिलों के विभाजन का कारण नहीं बनेगा। स्थिति सामान्य होते ही वे फिर मिल-जुलकर एक ही समाज में रहेंगे। वास्तव में सामान्य लोग चाहे वे हिन्दू थे अथवा मुसमलान धर्म के नाम पर एक-दूसरे का सिर काटने को इच्छुक नहीं थे। अनेक नेता और स्वयं गाँधी जी भी अंत तक विभाजन की सोच का विरोध करते रहे। थे।

7 सितम्बर, 1946 ई० को प्रार्थना सभा में अपने भाषण में गाँधी जी ने कहा था, “मैं फिर वह दिन देखना चाहता हूँ जब हिन्दू और मुसलमान आपसी सलाह के बिना कोई काम नहीं करेंगे। मैं दिन-रात इसी आग में जल जा रहा हूँ कि उस दिन को जल्दी-से-जल्दी साकार करने के लिए क्या करूं। लीग से मेरी गुजारिश है कि वे किसी भी भारतीय को अपना शत्रु न मानें…।” इसी प्रकार 26 सितम्बर, 1946 ई० को महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ में लिखा था, “जो तत्त्व भारत को एक-दूसरे के खून के प्यासे टुकड़ों में बाँट देना चाहते हैं, वे भारत और इस्लाम दोनों के शत्रु हैं। भले ही वे मेरी देह के टुकड़े-टुकड़े कर दें, किन्तु मुझसे ऐसी बात नहीं मनवा सकते, जिसे मैं गलत मानता हूँ।” जनसामान्य का गाँधी जी में अटूट विश्वास था। उन्हें लगता था कि गांधी जी किसी भी कीमत पर देश का विभाजन नहीं होने देंगे। इसलिए वे आसानी से अपने घरों को छोड़ने और अपने रिश्ते-नातों को तोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। देश के विभाजन और उसके परिणामस्वरूप होने वाली हिंसा ने उन्हें झकझोर डाला था, किन्तु फिर भी अनेक हिन्दू-मुसलमान अपने जान खतरे में डालकर एक-दूसरे की जान बचाने की कोशिश करते रहे। इससे सिद्ध होता है कि सामान्य हिन्दू-मुसलमानों का विभाजन से कोई लेना-देना नहीं था।

प्रश्न 4.
विभाजन के खिलाफ़ महात्मा गाँधी की दलील क्या थी?
उत्तर:
गाँधी जी प्रारंभ से ही देश के विभाजन के विरुद्ध थे। वह किसी भी कीमत पर विभाजन को रोकना चाहते थे। अतः वह अंत
तक विभाजन का विरोध करते रहे। देश के विभाजन का विरोध करते हुए उन्होंने कहा था कि विभाजन उनकी लाश पर होगा। 7 सितम्बर, 1946 ई० को प्रार्थना सभा में अपने भाषण में गाँधी जी ने कहा था, “मैं फिर वह दिन देखना चाहता हूँ जब हिन्दू और मुसमलान आपसी सलाह के बिना कोई काम नहीं करेंगे। मैं दिन-रात इसी आग में जला जा रहा हूँ कि उस दिन को जल्दी-से-जल्दी साकार करने के लिए क्या करूं। लीग से मेरी गुजारिश है कि वे किसी भी भारतीय को अपना शत्रु न मानें…। हिन्दू और मुसलमान, दोनों एक ही मिट्टी से उपजे हैं; उनका खून एक है, वे एक जैसा भोजन करते हैं, एक ही पानी पीते हैं, और एक ही जबान बोलते हैं।” इसी प्रकार 26 सितम्बर, 1946 ई० को महात्मा गाँधी ने ‘हरिजन’ में लिखा था, “किन्तु मुझे विश्वास है कि मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की जो माँग उठायी है, वह पूरी तरह गैर-इस्लामिक है और मुझे इसको पापपूर्ण कृत्य कहने में कोई संकोच नहीं है। इस्लाम मानवता की एकता और भाईचारे का समर्थक है न कि मानव परिवार की एकजुटता को तोड़ने का।

जो तत्व भारत को एक-दूसरे के खून के प्यासे टुकड़ों में बाँट देना चाहते हैं, वे भारत और इस्लाम दोनों के शत्रु हैं। भले ही वे मेरी देह के टुकड़े-टुकड़े कर दें, किन्तु मुझसे ऐसी बात नहीं मनवा सकते, जिसे मैं गलत मानता हूँ।” किन्तु गाँधी जी का विरोध ‘नक्कार खाने में तूती’ के समान था। गाँधी जी सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों और भावनाओं से जूझते रहे, किन्तु बेकार। अंततः देश का विभाजन हो गया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को उसे स्वीकार करना पड़ा। सत्य और अहिंसा के पुजारी भग्नहृदय महात्मा गाँधी असहाय थे तथापि वे निरंतर सांप्रदायिक सद्भाव स्थापित करने के प्रयासों में लगे रहे। उन्हें विश्वास था कि वे अपने प्रयासों में सफल होंगे। लोग हिंसा और घृणा का रास्ता छोड़ देंगे और भाइयों के समान मिलकर सभी समस्याओं का समाधान कर लेंगे। गाँधी जी ने निडर होकर सांप्रदायिक दंगों से ग्रस्त विभिन्न स्थानों का दौरा किया और सांप्रदायिता के शिकार लोगों को राहत पहुँचाने के प्रयास किए। उन्होंने प्रत्येक स्थान पर अल्पसंख्यक समुदाय को (वह हिन्दू हो या मुसलमान) सांत्वना प्रदान की। उन्होंने भरसक प्रयास किया कि हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे का खून न बहाएँ अपितु परस्पर मिल-जुलकर रहें।

प्रश्न 5.
विभाजन को दक्षिणी एशिया के इतिहास में एक ऐतिहासिक मोड़ क्यों माना जाता है?
उत्तर:
भारत के विभाजन को दक्षिणी एशिया के इतिहास में एक ऐतिहासिक मोड़ माना जाता है। नि:संदेह, यह विभाजन स्वयं में अतुलनीय था, क्योंकि इससे पूर्व किसी अन्य विभाजन में न तो सांप्रदायिक हिंसा का इतना तांडव नृत्य हुआ और न ही इतनी विशाल संख्या में निर्दोष लोगों को अपने घरों से बेघर होना पड़ा। विद्वानों के अनुसार विभाजन के परिणामस्वरूप एक करोड़ से भी अधिक लोग अपने-अपने वतन से उजड़कर अन्य स्थानों पर जाने के लिए विवश हो गए। वे भारत और पाकिस्तान के बीच रातों-रात खड़ी कर दी गई सीमा के इस पार या उस पार जाने को विवश हो गए और जैसे ही उन्होंने इस ‘छाया सीमा’ के उस ओर पैर रखा, वे घर से बेघर हो गए। पलक झपकते ही उनकी सम्पत्ति, घर, दुकानें, जमीनें, रोजी-रोटी के साधन सब उनके हाथों से निकल गए। जिस जमीन में उनकी जड़े थीं, वही उनके लिए पराई हो गई।

लाखों अपने प्रियजनों से बिछड़ गए। किसी ने अपने पिता को खोया, किसी ने भाई को, तो किसी का सुहाग उसकी आँखों के सामने ही उजाड़ दिया गया। उनके दोस्त, उनकी बचपन की यादें उनसे छीन लिए गए। अपनी स्थानीय एवं क्षेत्रीय संस्कृतियों से वंचित होकर वे तिनका-तिनका जोड़कर अपने नए घोंसलों को बनाने में जुट गए। विद्वानों के अनुसार विभाजन के परिणामस्वरूप होने वाली हिंसा इतनी भीषण थी कि इसके लिए विभाजन’, ‘बँटवारे’ अथवा ‘तक़सीम’ जैसे शब्दों का प्रयोग करना सार्थक प्रतीत नहीं होता। इसमें कोई संदेह नहीं कि विभाजन के परिणामस्वरूप जो स्मृतियाँ, घृणाएँ, छवियाँ और पहचानें अस्तित्व में आईं उनका आज भी सीमा के इस ओर तथा उस ओर के इतिहास का निर्धारण करने में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
ब्रिटिश भारत का बँटवारा क्यों किया गया?
उत्तर:
निम्नलिखित कारणों ने ब्रिटिश भारत के विभाजन में योगदान दिया

1. ब्रिटिश कूटनीति-
अधिकांश विद्वान इतिहासकारों के विचारानुसार भारत विभाजन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण था- ब्रिटिश कूटनीति। ब्रिटिश प्रशासकों ने प्रारंभ से ही ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति का अनुसरण किया। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने के लिए वे मुसलमानों की सांप्रदायिक भावनाओं को उत्तेजित करते रहे। 1905 ई० में बंगाल का विभाजन, 1906 ई० में मुस्लिम लीग की स्थापना और 1909 ई० में सांप्रदायिक चुनाव प्रणाली का प्रारंभ और विस्तार अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के ज्वलंत उदाहरण थे। ब्रिटिश प्रशासकों की इस नीति से मुसलमानों में सांप्रदायिक भावनाओं का विकास होने लगा। वे अपने हितों की रक्षा के लिए अपने लिए एक पृथक् राष्ट्र की माँग करने लगे, जिसकी चरम परिणति पाकिस्तान के निर्माण में हुई।

2. मुस्लिम लीग का सांप्रदायिक दृष्टिकोण-
मुस्लिम लीग के संकीर्ण सांप्रदायिक दृष्टिकोण ने हिन्दू-मुसलमानों में मतभेद उत्पन्न करने और अन्ततः पाकिस्तान के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। लीग ने ‘द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत’ का प्रचार किया और मुस्लिम जनसामान्य को यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि अल्पसंख्यक मुसलमानों को बहुसंख्यक हिन्दुओं से भारी खतरा है। 1937 ई० में कांग्रेस द्वारा संयुक्त प्रांत में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर मंत्रिमण्डल बनाने से इनकार कर दिए जाने पर लीग ने इस्लाम खतरे में है’ का नारा लगाया और कांग्रेस को हिन्दुओं की संस्था बताया। 1937 ई० में लीग के लखनऊ अधिवेशन में सांप्रदायिकता की अग्नि को और अधिक हवा देते हुए जिन्नाह ने कहा था-“अब हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा होगी और वन्दे मातरम् राष्ट्रगीत होगा। कांग्रेस के झंडे को प्रत्येक व्यक्ति को स्वीकार करना पड़ेगा और उसका आदर करना पड़ेगा।”

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान कांग्रेसी मंत्रिमण्डल द्वारा नवम्बर, 1939 ई० में त्यागपत्र दे दिए जाने पर मुस्लिम लीग अत्यधिक प्रसन्न हुई। 22 दिसम्बर, 1939 ई० को लीग ने संपूर्ण भारत में ‘मुक्ति दिवस’ मनाया। मार्च 1940 ई० में लाहौर अधिवेशन में लीग ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसमें उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में सीमित स्वायत्तता की माँग की गई। लीग ने कांग्रेस के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का विरोध किया और 1946 ई० के चुनावों के पश्चात् ‘पाकिस्तान की स्थापना के लिए जोरदार आंदोलन प्रारंभ कर दिया। 16 अगस्त, 1946 ई० को लीग ने ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ मनाया जिसके परिणामस्वरूप देश के विभिन्न भागों में भयंकर सांप्रदायिक दंगे हो गए। अतः देश को अनावश्यक रक्तपात से बचाने के लिए विभाजन अनिवार्य हो गया।

3. कांग्रेस की लीग के प्रति तुष्टिकरण की नीति-
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने लीग के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाई जो देश की अखंडता के लिए घातक सिद्ध हुई। कांग्रेस ने बार-बार लीग को संतुष्ट करने का प्रयत्न किया जिसके परिणामस्वरूप लीग की अनुचित माँगें दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगीं। मुस्लिम लीग के प्रति कांग्रेस की शिथिल एवं त्रुटिपूर्ण नीति से जिन्नाह को विश्वास हो गया था कि परिस्थितियों से विवश होकर कांग्रेस विभाजन के लिए तैयार हो जाएगी और अन्ततः ऐसा ही हुआ भी।
4. सांप्रदायिक दंगे-1946 ई० के चुनावों के पश्चात् लीग ने पाकिस्तान की स्थापना के लिए प्रबल आंदोलन प्रारंभ कर दिया था। 16 अगस्त, 1946 ई० को लीग ने प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ मनाया जिसके परिणामस्वरूप बंगाल, बिहार और पंजाब में भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो गए। संपूर्ण देश गृहयुद्ध की आग में जलने लगा। जैसे-जैसे सांप्रदायिक तनाव बढ़ता गया, भारतीय सिपाही और पुलिस वाले भी अपने पेशेवर प्रतिबद्धता को भूलकर हिन्दू, मुसलमान अथवा सिक्ख के रूप में आचरण करने लगे। अतः देश को भयंकर विनाश से बचाने के लिए कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर समझा।

5. कांग्रेस की भारत को शक्तिशाली बनाने की इच्छा-
मुस्लिम लीग की गतिविधियों से यह स्पष्ट हो चुका था कि लीग कांग्रेस से किसी भी रूप में समझौता अथवा सहयोग करने के लिए तैयार नहीं थी। कांग्रेस के प्रमुख नेता यह भली-भाँति समझ चुके थे कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी लीग कांग्रेस के प्रत्येक कार्य में रुकावट डालेगी तथा तोड़-फोड़ की नीति अपनाएगी, जिसके परिणामस्वरूप देश निरन्तर दुर्बल होता जाएगा। अतः देश को विनाश से बचाने के लिए उन्होंने विभाजन को स्वीकार कर लेना अधिक उचित समझा।

6. लॉड माउंटबेटन के प्रयास-
मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान के निर्माण के लिए प्रत्यक्ष कार्यवाही प्रारंभ कर दिए जाने के कारण सम्पूर्ण देश में हिंसा की ज्वाला धधकने लगी थी। अत: लॉर्ड माउंटबेटन ने पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल को विश्वास दिला दिया कि मुस्लिम लीग के बिना शेष भारत को शक्तिशाली और संगठित बनाना अधिक उचित होगा। कांग्रेसी नेताओं को गृहयुद्ध अथवा पाकिस्तान इन दोनों में से किसी एक का चुनाव करना था। उन्होंने गृहयुद्ध से बचने के लिए पाकिस्तान के निर्माण को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार, अनेक कारणों के संयोजन ने देश के विभाजन को अपरिहार्य बना दिया था।

प्रश्न 7.
बँटवारे के समय औरतों के क्या अनुभव रहे?
उत्तर:
विभाजन के सर्वाधिक दूषित प्रभाव संभवतः महिलाओं पर हुए। विभाजन के दौरान उन्हें दर्दनाक अनुभवों से गुजरना पड़ा। उन्हें बलात्कार की निर्मम पीड़ा को सहन करना पड़ा। उन्हें अगवा किया गया, बार-बार बेचा और खरीदा गया तथा अंजान हालात में अजनबियों के साथ एक नई ज़िदगी जीने के लिए विवश किया गया। महिलाएँ मूक, निरीह प्राणियों के समान इन सभी प्रक्रियाओं से गुजरती रहीं। गहरे सदमे से गुजरने के बावजूद कुछ महिलाएँ बदले हुए हालात में नए पारिवारिक बंधनों में बँध गईं। किन्तु भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने ऐसे मानवीय संबंधों की जटिलता के विषय में किसी संवेदनशील दृष्टिकोण को नहीं अपनाया। यह मानते हुए कि इस प्रकार की अनेक महिलाओं को बलपूर्वक घर बैठा लिया गया था, उन्हें उनके नए परिवारों से छीनकर पुराने परिवारों के पास अथवा पुराने स्थानों पर भेज दिया गया। इस संबंध में सम्बद्ध महिलाओं की इच्छा जानने का प्रयास ही नहीं किया गया।

इस प्रकार, विभाजन की मार झेल वाली उन महिलाओं को अपनी जिदगी के विषय में फैसला लेने के अधिकार से एक बार फिर वंचित कर दिया गया। एक अनुमान के अनुसार महिलाओं की बरामदगी’ के अभियान में कुल मिलाकर लगभग 30,000 महिलाओं को बरामद किया गया। इनमें से 8,000 हिन्दू व सिक्ख महिलाओं को पाकिस्तान से और 22,000 मुस्लिम महिलाओं को भारत से निकाला गया। बरामदगी की यह प्रक्रिया 1954 ई० तक चलती रही। उल्लेखनीय है कि विभाजन की प्रक्रिया के दौरान अनेक ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं, जब परिवार के पुरुषों ने इस भय से कि शत्रु द्वारा उनकी औरतों -माँ, बहन, बीवी, बेटी को नापाक किया जा सकता था, परिवार की इज्ज़त अर्थात मान-मर्यादा की रक्षा के लिए स्वयं ही उनको मार डाला। उर्वशी बुटालिया की पुस्तक ‘दि अदर साइड ऑफ साइलेंस’ में रावलपिंडी जिले के थुआ खालसा गाँव की एक ऐसी ही दिल दहला देने वाली घटना का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि विभाजन के समय सिक्खों के इस गाँव की 90 महिलाओं ने ‘शत्रुओं के हाथों पड़ने की अपेक्षा स्वेच्छापूर्वक कुएँ में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए थे। इस प्रकार विभाजन के दौरान महिलाओं को अनेक दर्दनाक अनुभवों से गुजरना पड़ा।

प्रश्न 8.
बँटवारे के सवाल पर कांग्रेस की सोच कैसे बदली?
उत्तर:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस प्रारंभ से ही विभाजन का विरोध करती रही थी। किन्तु अंत में परिस्थितियों से विवश होकर उसे अपनी सोच बदलनी पड़ी और विभाजन के लिए तैयार होना पड़ा। अंग्रेजों के प्रयासों के परिणामस्वरूप मुस्लिम लीग अपने जन्म के प्रारंभ से ही सांप्रदायिक नीतियों का अनुसरण करने लगी थी। लीग ने बंगाल विभाजन का समर्थन किया था और स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन में कोई भाग नहीं लिया था। यद्यपि 1916 ई० में कांग्रेस और लीग में समझौता हो गया था, किन्तु 1920 और 1937 ई० में कांग्रेस द्वारा संयुक्त प्रांत में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर मंत्रिमंडल बनाने से इनकार कर दिए जाने पर कांग्रेस और लीग के संबंध और अधिक बिगड़ गए थे। कांग्रेस ने बार-बार लीग को संतुष्ट करने का प्रयत्न किया, जिसके परिणामस्वरूप लीग की अनुचित माँगें तीव्र गति से बढ़ने लगीं। लीग ने कांग्रेसी मंत्रिमंडलों पर जनमत की अवहेलना करने, मुस्लिम संस्कृति को नष्ट करने और मुसलमानों के धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक अधिकारों में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया।

जिन्नाह ने 1937 ई० में लीग के लखनऊ अधिवेशन में स्पष्ट शब्दों में घोषणा की “अब हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा होगी और वन्दे मातरम् राष्ट्रगीत होगा। कांग्रेस के झंडे को प्रत्येक व्यक्ति को स्वीकार करना पड़ेगा और उसका आदर करना पड़ेगा।” राष्ट्रवादी नेताओं ने लीग के नेताओं को समझाने का बार-बार प्रयास किया, किन्तु संप्रदायवाद से समझौता कर सकना या उसे संतुष्ट कर सकना संभव नहीं था। 1937 से 39 की अवधि में कांग्रेस के नेताओं ने बार-बार जिन्नाह से मुलाकात करके उसे मनाने का प्रयास किया, किन्तु जिन्नाह ने कभी कोई ठोस माँग सामने नहीं रखी। इसके विपरीत वह इस बात पर अड़े रहे कि वह कांग्रेस से तभी बात करेंगे जब कांग्रेस यह मान लेगी कि वह केवल हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करती है। इस प्रकार सम्प्रदायवाद को जितना संतुष्ट करने का प्रयास किया गया उतना ही वह और उग्र होता गया। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सभी कांग्रेसी मंत्रिमंडलों द्वारा नवम्बर 1939 ई० में त्यागपत्र दे दिए जाने पर मुस्लिम लीग अत्यधिक प्रसन्न हुई।

22 दिसम्बर, 1939 ई० को लीग ने संपूर्ण भारत में ‘मुक्ति दिवस’ मनाया। मार्च 1940 ई० में लाहौर अधिवेशन में लीग ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत करके माँग की कि हिन्दुस्तान के उत्तर-पश्चिम और पूर्वी क्षेत्रों जैसे जिन भागों में मुसलमानों की संख्या अधिक है, उन्हें इकट्ठा करके स्वतंत्र राज्य बना दिया जाए। लीग ने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया और अंतरिम सरकार में कांग्रेस द्वारा मुसलमानों को नामजद करने के अधिकार को स्वीकार नहीं किया। लीग ने कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकार कर दिया और पाकिस्तान की प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष संघर्ष का रास्ता अपनाने का निश्चय कर लिया। 16 अगस्त, 1946 ई० को लीग ने ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ मनाया जिसके परिणामस्वरूप बंगाल, बिहार, पंजाब, उत्तर प्रदेश, सिंध व उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो गए। सारे देश का वातावरण दूषित हो गया और मुस्लिम सांप्रदायिकता अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँच गई।

लीग का नारा था, ‘लड़कर लेंगे पाकिस्तान!’ किन्तु इस नारे ने ब्रिटिश साम्राजियों के विरुद्ध संघर्ष का रूप धारण न करके सांप्रदायिक दंगे का रूप धारण कर लिया। कुछ प्रारंभिक विरोध के बाद वायसराय लार्ड वेवल के प्रयत्नों से मुस्लिम लीग अंतरिम सरकार में, सम्मिलित हो तो गई किन्तु उसने कांग्रेस के प्रति असहयोग का दृष्टिकोण अपनाया। लीग ने नेहरू के नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया और प्रायः मंत्रीमंडल की नीतियों का विरोध करती रही। इस समय तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी यह भली-भाँति समझ चुकी थी की लीग के कट्टर सांप्रदायिक दृष्टिकोण को बदलना संभव नहीं है। लीग के कार्यकलापों से सांप्रदायिक दंगे फैलने लगे थे जिनसे पूरे देश में गृहयुद्ध का वातावरण बन गया था। ब्रिटिश सरकार जून, 1948 ई० तक सत्ता भारतीयों को सौंप देने की घोषणा कर चुकी थी। वायसराय लार्ड माउंटबेटन का विचार था कि लीग तथा कांग्रेस के मध्य समझौता असंभव था और देश का विभाजन ही समस्या का एकमात्र हल था।

अतः उसने महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू जैसे महत्त्वपूर्ण कांग्रेसी नेताओं को भारत विभाजन के लिए मनाने के प्रयत्न प्रारंभ कर दिए। यद्यपि कांग्रेस ने विभाजन का सदैव विरोध किया था और गाँधी जी स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा कर चुके थे कि देश का विभाजन उनके मृत शरीर पर होगा, किन्तु अब ऐसा आभास होने लगा कि देश को भयंकर विनाश और रक्तपात से बचाने के लिए विभाजन को स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था। अंग्रेजों ने भारत छोड़ने की तिथि जून, 1948 ई० के स्थान पर 15 अगस्त, 1947 ई० निश्चित कर दी थी। अतः अब कांग्रेस को अनिवार्य रूप से ‘गृहयुद्ध या पाकिस्तान’ इन दोनों में से एक का चुनाव करना था।

अन्ततः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अपनी सोच बदलनी पड़ी और प्रमुख राष्ट्रवादी नेता इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारत विभाजन को स्वीकार करना और लीग के बिना शेष भारत को अधिक शक्तिशाली एवं संगठित बनाना ही भारत की रक्षा का श्रेयस्कर उपाय था। 3 जून, 1947 ई० को वायसराय ने भारत विभाजन की योजना की घोषणा कर दी, जिसे भारत के सभी राजनैतिक दलों ने स्वीकार कर लिया। स्थिति की विवेचना करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि, “हालात की मजबूरी थी। और यह महसूस किया गया कि जिस मार्ग का हम अनुसरण कर रहे थे उससे गतिरोध को हल नहीं किया जा सकता था। जब दूसरे हमारे साथ रहना ही नहीं चाहते थे, तो हम उन्हें क्यों और कैसे मजबूर कर सकते थे। इसलिए हमने देश का बँटवारा स्वीकार कर लिया ताकि हम भारत को शक्तिशाली बना सकें।”

प्रश्न 9.
मौखिक इतिहास के फ़ायदे/नुकसानों की पड़ताल कीजिए। मौखिक इतिहास की पद्धतियों से विभाजन के बारे में। हमारी समझ को किस तरह विस्तार मिलता है?

अथवा

मौखिक इतिहास के लाभों और हानियों का वर्णन कीजिए। ऐसे किन्हीं चार स्रोतों का उल्लेख कीजिए जिनसे विभाजन का इतिहास स्रोतों में पिरोया गया है। (All India 2014)
उत्तर:
इतिहास के पुनर्निर्माण में हमें अनेक स्रोतों से सहायता मिलती है, जिनमें मौखिक स्रोतों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि मौखिक इतिहास के अपने लाभ और हानियाँ हैं तथापि यह सत्य है कि मौखिक इतिहास की पद्धतियाँ विभाजन के विषय में हमारी समझ को विस्तार प्रदान करती हैं।
मौखिक इतिहास के लाभ

1. मौखिक इतिहास हमें विभाजन से संबंधित अनुभवों एवं स्मृतियों को और अधिक सूक्ष्मता से समझने का अवसर प्रदान करता है।

2. मौखिक इतिहास के आधार पर इतिहासकार उन भावनात्मक समस्याओं एवं कष्टों का, जिनसे जनसामान्य को विभाजन के दौर में गुजरना पड़ा, का सजीव वर्णन करने में समर्थ हुए हैं। हमें याद रखना चाहिए कि सरकारी दस्तावेजों का संबंध नीतिगत एवं दलगत विषयों तथा विभिन्न सरकारी योजनाओं से होता है। अतः उनसे इस प्रकार की जानकारियों को प्राप्त करना संभव नहीं हो पाता।

3. विभाजन के परिणामस्वरूप सामान्य लोगों को किन हालातों से गुजरना पड़ा अथवा विभाजन को लेकर जनसामान्य के क्या अनुभव रहे, इसका पता हमें मौखिक इतिहास से ही लगता है। सरकारी रिपोर्टों एवं फाइलें तथा महत्त्वपूर्ण सरकारी अधिकारियों के व्यक्तिगत लेख इस पर पर्याप्त प्रकाश नहीं डालते।

4. सामान्यतः हम जिस इतिहास का अध्ययन करते हैं, वह सामान्य लोगों से संबंधित विषयों पर कोई महत्त्वपूर्ण प्रकाश नहीं डालता, क्योंकि उनके जीवन एवं कार्यों को प्रायः पहुँच के बाहर अथवा महत्त्वहीन मानकर नज़रअंदाज कर दिया जाता है। किन्तु मौखिक इतिहास इन विषयों पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है। उदाहरण के लिए, मौखिक स्रोतों से हमें पता लगता है कि विभाजन के परिणामस्वरूप सम्पन्न लोगों को विपन्नता के दौर से गुजरना पड़ा। घर की। चारदीवारी में सुख का जीवन जीने वाली महिलाओं को पेट भरने के लिए मज़दूरों के रूप में काम करना पड़ा। बड़े-बड़े व्यापारियों को अपना और परिवार का पेट भरने के लिए छोटी-मोटी नौकरियाँ करनी पड़ीं और शरणार्थियों का जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ा।

5. मौखिक इतिहास विभाजन के दौरान जनसामान्य और विशेष रूप से महिलाओं द्वारा झेली जाने वाली पीड़ा को | समझने में हमें महत्त्वपूर्ण सहायता प्रदान करता है।

मौखिक इतिहास की हानियाँ

  1. अनेक इतिहासकारों के विचारानुसार मौखिक जानकारियाँ सटीक नहीं होतीं। अतः उनसे घटनाओं के जिस क्रम का निर्माण किया जाता है, उसकी यथार्थता संदिग्ध होती है।
  2. इतिहासकारों के मतानुसार मौखिक विवरणों का संबंध केवल सतही विषयों से होता है। यादों में संचित किए जाने वाले छोटे-छोटे अनुभवों से इतिहास की विशाल प्रक्रियाओं के कारणों का पता लगाने में कोई महत्त्वपूर्ण सहायता | नहीं मिलती।
  3. व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर किसी सामान्य निष्कर्ष पर पहुँचना सरल नहीं होता।
  4. मौखिक इतिहास में वास्तविक अनुभवों के साथ निर्मित स्मृतियाँ भी जुड़ जाती हैं। प्रायः कुछ दशक बाद लोग किसी घटना के विषय में काफी कुछ भूल जाते हैं।
  5. सामान्यतः विभाजन के दौरान कड़वे अनुभवों से गुज़रने वाले लोग आपबीती के विषय में बात करने को तैयार नहीं होते। उदाहरण के लिए, बलात्कार की पीड़ा को झेलने वाली एक महिला को किसी अज़नबी के सामने अपने उन दर्दनाक अनुभवों को व्यक्त करने के लिए तैयार करना कोई सरल कार्य नहीं है।
  6. मौखिक जनकारियों से घटनाओं का तिथिबद्ध विवरण प्राप्त करना कठिन है।

विभाजन विषयक समझ को विस्तार प्रदान करना

उल्लेखनीय है कि मौखिक इतिहास की पद्धतियाँ विभाजन के विषय में हमारी समझ को विस्तार प्रदान करती हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि विभाजन के मौखिक इतिहास को संबंध केवल सतही विषयों से नहीं है। विभाजन से। संबंधित मौखिक बयानों को न तो अविश्सनीय कहा जा सकता है और न ही महत्त्वहीन। मौखिक विवरणों अथवा बयानों से निकलेवाले निष्कर्षों की तुलना अन्य साक्ष्यों से निकलनेवाले निष्कर्षों से करके एक सामान्य एवं विश्वसनीय निष्कर्ष पर सरलतापूर्वक पहुँचा जा सकता है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि विभाजन के दौरान जनसामान्य को और विशेष रूप से महिलाओं को जिस पीड़ा से गुजरना पड़ा उसे समझने के लिए हमें अनेक रूपों में मौखिक स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। उदाहरण के लिए, सरकारी रिपोर्टों से यह तो सरलतापूर्वक पता लगाया जा सकता है कि भारतीय और दला-बदली की गई।

किन्तु सरकारी रिपोर्टों से यह पता नहीं लगता कि ‘बरामद की जाने वाली महिलाओं को किन-किन मानसिक व्यथाओं से गुजरना पड़ा अथवा किन-किन पीड़ाओं को झेलना पड़ा। उन मानसिक व्यथाओं और पीड़ाओं का पता तो उन महिलाओं की जुबानी’ ही लग सकता है, जिन्होंने उन्हें झेला। इस प्रकार मौखिक इतिहास की पद्धतियाँ विभाजन के विषय में हमारी समझ को विस्तृत बनाती हैं। मौखिक इतिहास की पद्धतियों से इतिहासकारों को विभाजन जैसी घटनाओं के दौरान जनसामान्य को किन-किन मानसिक एवं शारीरिक पीड़ाओं को झेलना पड़ा, का बहुरंगी एवं सजीव वृत्तांत लिखने में महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। मौखिक विवरणों अथवा बयानों से निकलनेवाले निष्कर्षों की तुलना अन्य साक्ष्यों से निकलनेवाले निष्कर्षों से करके एक सामान्य एवं विश्वसनीय निष्कर्ष पर सरलतापूर्वक पहुँचा जा सकता है। यदि साक्षात्कार लेने वाला किसी की व्यक्तिगत पीड़ा और सदमें को आंकने का प्रयास न करके सूझ-बूझ से लोगों के दर्द के अहसास को समझने का प्रयास करे तो मौखिक इतिहास उसकी विभाजन विषयक समझ को विस्तार प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण सहायता प्रदान कर सकता है।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
दक्षिणी एशिया के नक्शे पर कैबिनेट मिशन प्रस्तावों में उल्लिखित भाग क, ख, और ग को चिह्नत कीजिए। यह नक्शा मौजूदा दक्षिण एशिया के राजनैतिक नक्शे से किस तरह अलग है?
उत्तर:
स्वयं करें।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
यूगोस्लाविया के विभाजन को जन्म देने वाली नृजातीय हिंसा के बारे में पता लगाइए। उसमें आप जिन नतीजों पर | पहुँचते हैं, उनकी तुलना इस अध्याय में भारत विभाजन के बारे में बताई गई बातों से कीजिए।
उत्तर:
स्वयं करें।

प्रश्न 12.
पता लगाइए कि क्या आपके शहर, कस्बे, गाँव या आस-पास के किसी स्थान पर दूर से कोई समुदाय आकर बसा है? ( हो सकता है, आपके इलाके में बँटवारे के समय आए लोग भी रहते हों।) ऐसे समुदायों के लोगों से बात कीजिए और अपने निष्कर्षों को एक रिपोर्ट में संकलित कीजिए। लोगों से पूछिए कि वे कहाँ से आए हैं? उन्हें अपनी जगह क्यों छोड़नी पड़ी और उससे पहले व बाद में उनके कैसे अनुभव रहे। यह भी पता लगाइए कि उनके आने से क्या बदलाव पैदा हुए।
उत्तर:
स्वयं करें।