UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सूक्तिपरक निबन्ध

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सूक्तिपरक निबन्ध

सूक्तिपरक निबन्य

जहाँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना (सुमति से आशय),
  2. कुमति से तात्पर्य,
  3. विपत्ति एवं सम्पत्ति का अर्थ,
  4. सम्पत्ति का साधन : सुमति,
  5. सुमति एवं नैतिकता,
  6. सुमति और एकता,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना ( सुमति से आशय)-बुद्धि के कारण मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। बुद्धि के साथ विवेक केवल मनुष्य में पाया जाता है। विवेक और बुद्धि के समुचित समन्वय को ही सुमति के नाम से जाना जाता है। विवेक के बिना बुद्धि का कोई महत्त्व नहीं है; क्योंकि विवेक ही मनुष्य को उचित-अनुचित को ज्ञान कराता है। मनुष्य को किस परिस्थिति में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, यही विवेक कहलाता है। विवेकपूर्वक किया गया कार्य न केवल व्यक्ति विशेष अपितु प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारी होता है। बुद्धि विवेकपूर्वक किए जाने वाले कार्य की दशा और दिशा का निर्धारण करके उसे और अधिक कल्याणकारी बनाने में उत्प्रेरक का कार्य करता है। आशय यही है कि सुमति संसार में सुख-समृद्धि लाने का एक अकेला उपाय है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास ने ‘श्रीरामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में कहा है-

जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना।
जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना॥

कुमति से तात्पर्य–विवेक के अभाव में अर्थात् अविवेक से समन्वित बुद्धि बिगडैल हाथी के समान होती है जो केवल तोड़-फोड़, विध्वंस एवं संहार कर सकती है। इसी संहारक बुद्धि को कुमति कहा जाता है। जब मनुष्य अपनी बुद्धि को श्रेष्ठ कार्यों में लगाता है तो उसे बुद्धिमान कहते हैं और कहते हैं कि वह बड़ा सुबुद्धिवाला है। सुबुद्धि या सुमति की बड़ी महिमा है। जब तक मनुष्य में सुमति रहती है, वह अच्छे कार्यों में लगा होता है। कुमति का प्रभाव व्यक्ति पर शीघ्र पड़ता है और उससे उसकी सुमति कुमति में परिवर्तित हो जाती है; अतः मनुष्य निकृष्ट कार्यों को करता है और ये निकृष्ट कार्य ही उसके लिए दु:ख का कारण बन जाते हैं। इसीलिए कहा गया है-

कुमति कुंज तिन जेहि घर व्यापै सुमति सुहागिन जाय विलापै।

विपत्ति एवं सम्पत्ति का अर्थ-किसी कार्य को बिना सोचे-समझे नहीं करना चाहिए, क्योंकि अविवेक के कारण मनुष्य बड़ी विपत्ति (मुसीबत) में फँस जाता है। इसके विपरीत सोच-समझकर अर्थात् विवेक या सुमति से कार्य करने पर व्यक्ति के सभी कार्य सिद्ध होते हैं जिससे उसके जीवन में सुख-समृद्धि आती है। इन्हीं सुख-समृद्धियों को सम्पत्ति कहा जाता है। सम्पत्ति से आशय केवल धन-दौलत से नहीं होता आपति मन का चैन, शान्ति और सन्तोष भी सम्पत्ति के अभिन्न अंग हैं। कबीरदास जी ने तो सन्तोष को सबसे बड़ा धन (सम्पत्ति) कहा है–

गोधन, गजधन, बाजिधन, और रतन-धन खान।
जौ आवै सन्तोष-धन, सब धन धूरि समान॥

सम्पत्ति का साधन: सुमति–संसार में जो व्यक्ति सोच-समझकर अर्थात् विवेक अथवा सुमति से कार्य करता है, उसके पास विभिन्न प्रकार की सम्पत्तियाँ अपने आप आती हैं। स्पष्ट है कि जहाँ सुमति का साम्राज्य होता है, वहाँ सम्पत्ति स्वयं घर बनाकर रहती है। सुमति के अभाव में मनुष्य सोच-विचारकर कार्य नहीं करता; परिणामस्वरूप उसे अनेक कष्टों को भोगना पड़ता है–

बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय।

गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में कहा है-

जाको विधि दारुन दुख देई, ताकी मति पहलेहि हर लेई।

अर्थात् जिसे ईश्वर घोर कष्ट देना चाहता है, उसकी बुद्धि को वह पहले ही छीन लेता है। जब किसी व्यक्ति की बुद्धि उससे छिन जाती है तो वह कुबुद्धि के प्रभावस्वरूप अनैतिक आचरण करता है, जो उसके लिए महान् दु:ख का कारण बन जाता है। इसलिए इस बात में कोई संशय नहीं रह जाता है कि सुखों की प्राप्ति सुमति से ही सम्भव है।

सुमति हमें मानव-मूल्यों के पालन और संरक्षण की प्रेरणा देती है। प्रेम, मेल-मिलाप, भाईचारा, एकता, परोपकार, दया, करुणा आदि ऐसे ही जीवन-मूल्य हैं, जिन्हें सुमति पोषित करती है। जिस देश में लोग मिल-जुलकर कार्य करते हैं, उस देश में सर्वत्र सुख-समृद्धि फैली होती है। इसलिए हम सुमतिरूपी तलवार से दरिद्रता के बन्धनों को काट सकते हैं। सुमति हमारे कुविचारों पर नियन्त्रण रखती है, जिससे हम कोई अनुचित कार्य नहीं कर पाते। निकृष्ट कार्यों की जड़ कुमति होती है, इसलिए हमें सदैव सुमति से काम करना चाहिए।

सुमति से ही हमें विद्यारूपी धन की प्राप्ति होती है। सुमति हमें ज्ञानार्जन की ओर प्रेरित करती है, इसी की कृपा से हमें ज्ञान प्राप्त होता है। सुमति से रहित मनुष्य अँधेरे कुएँ में पड़े हुए मेंढक के समान होता है, जिसको कुएँ के बाहर के संसार का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं होता है। उसका संसार कुएँ की परिधि तक ही सीमित रहता है।
संसार के सभी सुख सुमति से ही प्राप्त होते हैं। परिवार हो या समाज, सुमति के बिना उनमें सुख का संचार हो ही नहीं सकता।
जिस देश और समाज में लोग सुमति से काम करते हैं, वह धन-धान्य एवं अनेक सुख से परिपूर्ण हो जाता है। जिस परिवार में पति और पत्नी सुमति से काम करते हैं, वह परिवार स्वर्ग के तुल्य हो जाता है, किन्तु जिन परिवारों में सुमति का अभाव होता है, उन परिवारों को वातावरण अत्यधिक तनाव एवं क्लेश के कारण नरकतुल्य हो जाता है।

सुमति एवं नैतिकता-यदि हम यह कहें कि सुमति ही शक्ति है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी। जिस देश या जाति में सुमति होती है, वही उन्नति की ओर अग्रसर होते हैं और उनका यश चारों दिशाओं में फैलता है। सुमति सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है। जो व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी सुमति का आश्रय नहीं छोड़ते हैं, वे ही जीवन में उन्नति के शिखर पर पहुँचते हैं। सत्य बोलना, मीठा बोलना, बड़ों का आदर करना आदि मानवोचित गुण हमें सुमति द्वारा ही प्राप्त होते हैं। जिस व्यक्ति में सुमति का अ गव होता है, उसमें अभिमान, ईष्र्या, द्वेष आदि दोष प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। मनुष्य में सुमति का न होना उस, लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। जहाँ सुमति नहीं होती, वहाँ काम, क्रोध, मद, लोभ आदि का साम्राज्य होता है. सुमति के अभाव में मनुष्य ऐसे-ऐसे कार्य कर डालता है जो उसके एवं समाज दोनों के लिए हानिकार होते हैं। कुमति के कारण लोग परस्पर संघर्ष करते हैं एवं अपने आचरण से दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं। ‘सरों को कष्ट पहुँचाकर कोई भी व्यक्ति सुखी नहीं रह सकता; अतः कुमति के कारण दूसरों को पीड़ पहुंकर व्यक्ति स्वयं भी अपार पीड़ा को भोगता है।

सुमति और एकता-सुमति समाज को एकता के सूत्र में बाँधती है। एकता सुख एवं समृद्धि की जननी है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि एकता से समाज में शक्ति का संचार होता है और आपसी फूट तथा भेदभाव उसे छिन्न-भिन्नकर डालते हैं। इसीलिए हमारे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है ।

घटे न हेल-मेल हा! बढ़े न भिन्नता कभी,
अतयं एक पन्थ के सतर्क पान्थ हों सभी।

उपसंहार-आज कुमति एवं अविवेक के कारण ही सम्पूर्ण संसार विनाश के ज्वालामुखी पर बैठा है। परमाणु अस्त्रों की होड़ ने उसके अस्तित्व पर ही प्रश्न-चिह्न खड़ा कर दिया है। उसकी कुमति अथवा अविवेक ने ही संसार में आतंकवाद को फैलाकर उसके मन का सुख-चैन एवं शान्ति भंग कर दी है। भ्रष्टाचार जैसे अनैतिक कार्य भी उसकी कुमति का ही परिणाम हैं। सुमति द्वारा ही मनुष्य का कल्याण सम्भव है। हम आज के समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, द्वेष एवं घृणा पर विजय केवल सुमति द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं। सुमति ही हमें अनीति, अन्याय एवं अत्याचार से निपटने का उपाय सुझाती है। इसी के द्वारा हम समाज में न्याय एवं नैतिकता की पुनस्र्थापना कर सकते हैं। यदि मनुष्य सुमति का आश्रय ले तो समाज में सत्यम्, शिवम् एवं सुन्दरम् के साम्राज्य की स्थापना होगी, इसमें किसी भी प्रकार को कोई संशय नहीं है।

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत [2014]

सम्बद्ध शीर्षक

  • इच्छा-शक्ति के चमत्कार
  • साहस जहाँ सिद्धि वहाँ [2016]
  • मन ही सफलता की कुंजी है।
  • मन की शक्ति का महत्त्व
  • नर हो न निराश करो मन को [2013]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. मन महाशक्तिवान् है,
  3. मन-विजयी अपने मार्ग पर अडिग रहता है,
  4. सफलता की कुंजी : मन की स्थिरता, धैर्य और सतत कर्म,
  5. मानसिक दुर्बलता का उपचार,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना--मनु महाराज ने कहा है-‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः’ अर्थात् मनुष्य का मन ही उसके बन्धन और मोक्ष का कारण है। आशय यह है कि यदि मानव अपने मन को सांसारिक विषय-भोगों में आसक्त रखे तो वह बन्धन में पड़ा रहेगा और आवागमन के चक्र में घूमता रहेगा, किन्तु यदि वह संसार से मुंह फेरकर ईश्वर की ओर उन्मुख हो जाए तो दुर्लभ मोक्ष प्राप्त कर लेगा। इस प्रकार मनुष्य की वास्तविक शक्ति उसके मन में निहित है, शरीर या बाह्य साधनों में नहीं। बाह्य साधन रखते हुए भी यदि आदमी का मन दुर्बल हो जाए तो वह हार जाता है और यदि मन सबल हो तो अल्प साधनों के बल पर भी वह दिग्विजय प्राप्त कर सकता है। वैदिक मन्त्रों में मन की प्रकृति को स्पष्ट किया गया है

यज्जागृतो दूरमुपैति दैवं यत्सुप्तस्य तथैवेति ।
दूरङ्गमं ज्योतिष ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिव संङ्कल्पमस्तु ।।

अर्थात् जो मन हमारे जागने पर दूर चला जाता है, सोने पर भी कहीं अन्य चला जाता है, जो बहुत दूर जाने की शक्ति रखता है, जो प्रकाशों का भी प्रकाश है, वह मन मेरे लिए कल्याणकारी चिन्तन करें।

शास्त्रकारों ने इन्द्रियों का स्वामी मन को माना है। गीता में मन को चंचल माना गया है। वेद भी कहते हैं कि मन सबसे अधिक शक्तिशाली है, इसकी शक्ति अपरिमित है। मनुष्य शारीरिक दृष्टि से चाहे कितना भी बलशाली क्यों न हो, यदि वह मानसिक रूप से क्षीण है तो वह अपने जीवन में प्रगति नहीं कर सकता। कबीर ने कहा है

सुख-दुःख सब कहँ परत हैं, पौरुष तजहुँ न मीत।
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत ॥

तात्पर्य यह है कि सुख और दुःख सभी पर आते हैं। मनुष्य को कभी भी दुःख से घबराकर पौरुष का त्याग नहीं करना चाहिए, क्योंकि मन के द्वारा हार स्वीकार किये जाने पर व्यक्ति की हार सुनिश्चित है। इसके विपरीत यदि मनुष्य का मन हार स्वीकार नहीं करता, तो विपरीत परिस्थितियों में भी विजयश्री उसके चरण चूमती है।

मन महाशक्तिवान् है—इतिहास के अनुसार मुहम्मद गोरी के एक सेनापति मुहम्मद-बिनबख्तियार ने सन् 1197 ई० में केवल 2000 सिपाहियों को लेकर बिहार को जीत लिया था और इससे भी कम सिपाहियों को लेकर बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन की राजधानी नदिया (नवद्वीप) पर आक्रमण किया था। बिना लड़े ही लक्ष्मणसेन भाग गया और बंगाल पराजित हो गया। स्पष्ट है कि बिहार और बंगाल के शासक लड़ाई के मैदान में हारने से पहले ही मन से हार चुके थे, इसलिए वे थोड़े-से आक्रमणकारियों का भी सामना न कर सके। इसी प्रकार जब भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कुरुक्षेत्र में कहते हैं

मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् !

अर्थात् हे अर्जुन! मैं इन कौरव-वीरों को पहले ही मार चुका हूँ, तू तो इन्हें मारने का बस निमित्तमात्र हो जा, तो उनका आशय यही है कि कुरुक्षेत्र के युद्ध में उतरने से पहले ही कौरव मन से हार चुके थे, मर चुके थे। उन्हें विश्वास हो गया था कि वे इस धर्मयुद्ध में पाण्डवों से नहीं जीत सकेंगे। बस, वे तो केवल दुर्योधन के हेठ के कारण लड़ रहे थे। इस प्रकार वास्तविक जय-पराजय, सफलता-असफलता तो मन की दृढ़ता या दुर्बलताओं पर निर्भर है, साधनों पर नहीं। यही बात लंका पर श्रीराम की विजय के दृष्टान्त से भी पुष्ट होती है। श्रीराम के पास वैसी सशस्त्र सेना भी न थी, फिर भी लंका जैसे दुर्जेय साम्राज्य को जीतना, रावण जैसे त्रैलोक्यविजयी अपराजेय शत्रु से मोर्चा लेना, दुर्लंघ्य सागर को केवल पैदल चलकर ही पार करना मन में अडिग विश्वास का ही परिणाम था और इसी से सम्पूर्ण राक्षस कुल का विनाश सम्भव हुआ। इससे स्पष्ट है कि महापुरुषों को सफलता साधनों के बल पर नहीं, अपने आत्मबल, अपनी दृढ़चित्तता, अपने अडिग निश्चय के बल पर मिलती है।

मन-विजयी अपने मार्ग पर अडिग रहता है--सर्वोच्च तथा गूढ़ तत्त्व के रूप में मन मनुष्य की उच्चतम श्रेष्ठ शक्तियों पर नियन्त्रण करने वाला होता है और उन शक्तियों को सबसे प्रखर रूप में वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जिसका मन पूर्णतया नियन्त्रित है। औरंगजेब ने महाराजा जयसिंह को काबुल-विजय के लिए भेजा। बीच में अटक का विकराल महानद रास्ता रोके अड़ा था। सेनापति बोला–“महाराज, अटक अटक रहा है।” जयसिंह ने कहा–

सबै भूमि गोपाल की, या में अटक कहाँ ।
जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा ॥

और अपनी घोड़ा उफनते महानद में डाल दिया। उनके साथ ही सारी सेना भी अटक पार कर गयी। दृढ़चित्त महापुरुषों का व्यवहार ऐसा ही असाधारण होती है। उनके सामने कोई भय, कोई विपत्ति, कोई बाधा टिकती ही नहीं। अपने अपराजेय मन के बूते पर वे सब कुछ जीतते चले जाते हैं।

छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास ने उनकी परीक्षा लेने के लिए कहा-“शिवा, मैं उदरशूल (पेट के दर्द) से व्याकुल हूँ। यदि शेरनी का दूध मिले तो इसका उपचार हो।” गुरुभक्त शिवा ने एक क्षण की भी हिचकिचाहट दिखाये बिना तत्काल वन को प्रस्थान कर दिया और सिंहनी उनके सामने गाय बनकर चुपचाप खड़ी दूध दुहवाती रही। ऐसी दृढ़चित्तता के सामने पर्वत झुक जाते हैं, नदियाँ पट जाती हैं और समुद्र मार्ग दे देता है। संसार की कोई भी बाधा इसके सामने टिक नहीं पाती, परन्तु ऐसा तभी होता है, जब हम अपनी इन्द्रियोंसहित मन पर भी नियन्त्रण रखें; क्योंकि नियन्त्रण सरल नहीं है। मन के बारे में लिखा है-‘मनः शीघ्रतरं वातात्’ अर्थात् मन की गति हवा से भी अधिक तेज है। यहीं बैठे एक क्षण में ही मन पूरा विश्व घूमने की बात सोच सकता है।

मन की अस्थिरता हार का कारण बनती है और एकाग्रता जीत का। अर्जुन मछली की आँख पर निशाना इसीलिए साध सका; क्योंकि उसका मन एकाग्र था। सावित्री अपने दृढ़ मनोबल के कारण ही अपने मृत पति सत्यवान के प्राण यमराज से छुड़वा सकी।

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर एक ऐसे गरीब घर में पैदा हुए थे कि रात में पढ़ने के लिए दीपक में तेल तक नहीं रहता था। फलतः सड़क के किनारे लगी लालटेन की टिमटिमाती धीमी रोशनी के नीचे खड़े होकर रातभर पढ़ते रहते थे। जब नींद जोर मारती तो आँख में सरसों का तेल लगा लेते। बंगाल में एक-से-एक बढ़कर विद्वान् हुए हैं, लेकिन विद्यासागर केवल ईश्वरचन्द्र ही कहलाए।

सफलता की कुंजी: मन की स्थिरता, धैर्य एवं सतत कर्म-वास्तव में मन की स्थिरता ही सफलता की कुंजी है। मन को नियन्त्रित करके ही व्यक्ति प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त करता है। जब तक मन एकाग्र न हो, मनुष्य कोई भी विद्या ग्रहण नहीं कर सकता। मूर्ख कालिदास मन की एकाग्रता के कारण ही संस्कृत जगत् में महाकवि कालिदास के नाम से प्रसिद्ध हुए। ‘किंग ब्रूस और स्पाइडर’ की छोटी-सी कथा में भी यही सार निहित है कि मन से न हारने वाले, स्थिर, धैर्य और सतत कर्म में निरत व्यक्ति को एक-न-एक दिन सफलता अवश्य ही मिलती है। जीवन में सफलता और असफलताएँ अनेक बार आती हैं। मनुष्य सफलता पर प्रसन्न और असफलता परे दु:खी होता है। असफल होने पर भी हमें अपने मन को नियन्त्रित रखना चाहिए, उसके वशीभूत नहीं होना चाहिए। साहस और उत्साह से मन को पुनः कार्य में लगाकर असफलता को सफलता में बदल देना महानता का लक्षण है।

दृढ़चित्तता की एक प्रमुख विशेषता है—प्रत्येक परिस्थिति में अविचलित रहना। सुख-दु:ख, आशानिराशा, स्तुति-निन्दा, निर्धनता-सम्पन्नता, तत्काल प्राणनाश की आशंका या दीर्घायु कोई भी अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति ऐसे धीर को उसके द्वारा स्वीकृत न्याय-मार्ग से डिगा नहीं सकती-

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वो यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥ ( भर्तृहरि, नीतिशतक)

ऐसे दृढ़चित्त धीर पुरुष जब एक बार किसी काम को शुरू कर देते हैं, फिर चाहे लाखों विघ्न-बाधाएँ आकर बार-बार टकराएँ, वे काम पूरा करके ही दम लेते हैं। गीता में ऐसे धीर पुरुषों को स्थितप्रज्ञ कहा गया है, जो सुख-दुःख और जय-पराजय को समभाव से ग्रहण करते हैं—सुखदुखे समे कृत्वा, लाभालाभौ जयाजयौ।

मानसिक दुर्बलता का उपचार-मानसिक दुर्बलता को दूर करने के लिए अथवा मन को शक्तिसम्पन्न बनाने के लिए अपने मन में कभी भी निराशावादी विचारों को नहीं आने देना चाहिए। आशावादी व्यक्ति कर्म करते हुए अलभ्य वस्तु को भी पा लेता है और जगत् में प्रसिद्धि भी प्राप्त करता है। मैथिलीशरण गुप्त जी कहते हैं

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रहकर कुछ नाम करो
X               X                    X
समझो न अलभ्य किसी धन को

यदि हम अपने को विश्व में दूसरे से श्रेष्ठ और ऊँचा दिखाना चाहते हैं तो हमें अपने मनोबल को ऊँचा उठाकर अपनी आशा को बलवती बनाये रखना होगा। विद्वानों के अनुसार हर प्रकार की मानसिक दुर्बलता को दूर करने का व्यावहारिक उपचार यह है कि मनुष्य विपरीत दिशा में सोचना शुरू कर दे; उदाहरणार्थ“मेरा व्यक्तित्व अपूर्ण नहीं है। उसमें कोई त्रुटि या कमजोरी है तो मैं उसे दूर करके रहूँगा। मुझे ईश्वर ने अपना ही रूप बनाया है। उसने मुझे पूर्ण मनुष्य बनने की आज्ञा दी है। पूर्ण पुरुष परमात्मा की मैं रचना हूँ, फिर मैं अपूर्ण कैसे हो सकता हूँ? मेरे जीवन की पूर्णता ही सत्य है। बनाने वाले ने मुझे दीन-हीन-दुर्बल बनने के लिए पैदा नहीं किया। इस प्रकार के विचार निरन्तर अपने मन में दुहराते रहने से मनुष्य कर्म से अपने मन को सबल बनाता जाता है।

उपसंहार-सारांश यह है कि मानव-मन अजस्र शक्ति का स्रोत है। मन की इसी शक्ति को पहचानकर ऋग्वेद में कहा गया है–“अहमिन्द्रो न पराजिग्ये’, अर्थात् मैं शक्ति का केन्द्र हूँ और आजीवन पराजित नहीं हो सकता। आवश्यकता है इस शक्ति को पहचानने की। जो पुरुष स्वभाव से ही दृढ़चित्त होते हैं, वे संसार में महान् कार्य करके, इतिहास को नया मोड़ देकर, सदा के लिए अपना नाम अमर कर जाते हैं। ऐसों को ही महापुरुष, महामानव या महात्मा कहा जाता है।

दैव-दैव आलसी पुकारा

सम्बद्ध शीर्षक

  • परिश्रम का महत्त्व
  • करम प्रधान बिस्व करि राखा

प्रमुख विचार-विन्द

  1. प्रस्तावना,
  2. भाग्यवाद : अकर्मण्यता का सूचक,
  3. प्रकृति भी परिश्रम का पाठ पढ़ाती है,
  4. शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम,
  5. भाग्य और पुरुषार्थ,
  6. सफलता का रहस्य : श्रम,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना-जीवन के उत्थान में परिश्रम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए, ऊँचा उठने के लिए और सुयश प्राप्त करने के लिए श्रम ही आधार है। श्रम से कठिन-से-कठिन कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं। जो श्रम करता है, भाग्य भी उसका ही साथ देता है। जो निष्क्रिय रहता है, उसका भाग्य भी विपरीत हो जाता है। श्रम के बल पर लोगों ने उफनती जलधाराओं को रोककर बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण कर दिया। इन्होंने श्रम के बल पर उत्तुंग, अगम्य पर्वत-चोटियों पर अपनी विजय का ध्वज फहरा दिया। श्रम के बल पर मनुष्य चन्द्रमा पर पहुँच गया। श्रम के द्वारा ही मानव समुद्र को लाँघ गया, खाइयों को पाट दिया तथा कोयले की खदानों से बहुमूल्य हीरे खोज निकाले। मानव सभ्यता और उन्नति का एकमात्र आधार श्रम ही है। श्रम के सोपानों का अवलम्ब लेकर मनुष्य अपनी मंजिल पर पहुँच जाता है। अतः परिश्रम ही मानव-जीवन का सच्चा सौन्दर्य है; क्योंकि परिश्रम के द्वारा ही मनुष्य अपने को पूर्ण बना सकता है। परिश्रम ही उसके जीवन में सभाग्य, उत्कर्ष और महानता लाने वाला है। जयशंकर प्रसाद जी ने भी कहा है

जितने कष्ट कण्टकों में है, जिनका जीवन-सुमन खिला,
गौरव-गन्ध उन्हें उतना ही, यत्र तत्र सर्वत्र मिला।

भाग्यवाद : अकर्मण्यता का सूचक-जिन लोगों ने परिश्रम का महत्त्व नहीं समझा; वे अभाव, गरीबी और दरिद्रता का दुःख भोगते रहे। जो लोग मात्र भाग्य को ही विकास का सहारा मानते हैं, वे भ्रम में हैं। आलसी और अकर्मण्य व्यक्ति सन्त मलूकदास का यह दोहा उधृत करते हैं-

अजगर करे न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम ॥

मेहनत से जी चुराने वाले दास मलूका के स्वर में स्वर मिलाकर भाग्य की दुहाई के गीत गा सकते हैं; लेकिन वे नहीं सोचते कि जो चलता है, वही आगे बढ़ता है और मंजिल को प्राप्त करता है। कहा भी गया है|

उद्यमेन ही सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥

अर्थात् परिश्रम से सभी कार्य सफल होते हैं, केवल कल्पना के महल बनाने से व्यक्ति अपने मनोरथ को पूर्ण नहीं कर सकता। शक्ति और स्फूर्ति से सम्पन्न गुफा में सोया हुआ वनराज शिकार-प्राप्ति के ख्याली पुलाव पकाती रहे तो उसके उदर की अग्नि कभी भी शान्त नहीं हो सकती। सोया पुरुषार्थ फलता नहीं है। ऐसे ही अकर्मण्य व आलसी व्यक्ति के लिए कहा गया है

सकल पदारथ एहि जग माहीं। करमहीन नर पावत नाहीं॥

अर्थात् संसार में सुख के सकल पदार्थ होते हुए भी कर्महीन लोग उसका उपभोग नहीं कर पाते। जो कर्म करता है, फल उसे ही प्राप्त होता है और जीवन भी उसी का जगमगाता है। उसके जीवन उद्यान में ही रंग-बिरंगे सफलता के सुमन खिलते हैं।

परिश्रम से जी चुराना, आलस्य और प्रमोद में जीवन बिताने के समान बड़ा कोई पाप नहीं है। गाँधी जी का कहना है कि जो लोग अपने हिस्से का काम किये बिना ही भोजन पाते हैं, वे चोर हैं। वास्तव में काहिली कायरों और दुर्बल जनों की शरण है। ऐसे आलसी मनुष्य में न तो आत्म-विश्वास ही होता है और न ही अपनी शक्ति पर भरोसा। किसी कार्य को करने में न तो उसे कोई उमंग होती है और न स्फूर्ति। परिणामस्वरूप पग-पग पर असफलता और निराशा के कॉटे उसके पैरों में चुभते हैं।

प्रकृति भी परिश्रम का पाठ पढ़ाती है-प्रकृति के प्रांगण में झाँककर देखें तो चींटियाँ रात-दिन अथक परिश्रम करती हुई नजर आती हैं। पक्षी दाने की खोज में अनन्त आकाश में उड़ते हुए दिखाई देते हैं। हिरन आहार की खोज में वन-उपवन में कुलाँचे भरते रहते हैं। समस्त सृष्टि में श्रम का चक्र निरन्तर चलता ही रहता है। जो लोग श्रम को त्यागकर आलस्य का आश्रय लेते हैं वे जीवन में कभी सफल नहीं होते, क्योंकि ईश्वर भी उनकी सहायता नहीं करता–“God helps those who help themselves.” परिश्रमी व्यक्ति के लिए सफलता व स्वागत के द्वार स्वयमेव खुल जाते हैं-

कर्मवीर के आगे पथ का, हर पत्थर साधक बनता है।
दीवारें भी दिशा बतातीं, जब वह आगे को बढ़ता है।

वस्तुत: परिश्रम द्वारा प्राप्त हुई उपलब्धि से जो मानसिक सन्तोष व आत्मिक तृप्ति प्राप्त होती है वह निष्क्रिय व्यक्ति को कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। प्रकृति ने ही यह विधान बनाया है कि बिना परिश्रम के खाये हुए अन्न का पाचन भी सम्भव नहीं। व्यक्ति को विश्राम का आनन्द भी तभी प्राप्त होता है जब उसने भरपूर श्रम किया हो। वस्तुत: श्रम उन्नति, उत्साह, स्वास्थ्य, सफलता, शान्ति व आनन्द का मूलाधार है।

शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम-परिश्रम चाहे शारीरिक हो अथवा मानसिक दोनों ही श्रेष्ठ । सत्य तो यह है कि मानसिक श्रम की अपेक्षा शारीरिक श्रम कहीं अधिक श्रेयस्कर है। गाँधी जी की मान्यता है। कि स्वस्थ, सुखी और समुन्नत जीवन के लिए शारीरिक श्रम अनिवार्य है। शारीरिक श्रम प्रकृति का नियम है। और इसकी अवहेलना निश्चय ही हमारे जीवन के लिए बहुत ही दुःखदायी सिद्ध होगी। परन्तु यह बड़ी लज्जा और क्षोभ की बात है कि आज मानसिक श्रम की अपेक्षा शारीरिक श्रम को नीची निगाहों से देखा जाता है। लोग अपना काम अपने हाथों से करने में लज्जा का अनुभव करते हैं।

भाग्य और पुरुषार्थ-भाग्य और पुरुषार्थ जीवन के दो पहिये हैं। भाग्यवादी बनकर हाथ पर हाथ रखकर बैठना मौत की निशानी है। परिश्रम के बल पर ही मनुष्य अपने बिगड़े भाग्य को बदल सकता है। परिश्रम ने महा मरुस्थलों को हरे-भरे उद्यानों में बदल दिया तथा मुरझाये जीवन में यौवन का वसन्त खिला दिया। कवि ने इन भावों को कितनी सुन्दर अभिव्यक्ति दी है

प्रकृति नहीं डरकर झुकती कभी भाग्य के बल से।
सदा हारती वह मनुष्य के उद्यम से श्रम जल से ।

परिश्रम सुमन का सौरभ है, मनुष्य का भाग्य है, जीवन का नवनीत है व देवताओं के वरदान से बढ़कर है। परिश्रम जीवन को नन्दन वन बना देता है। कवि श्रम का यशोगान करता हुआ कहता है

जीवन एक सुमन मानो तो सौरभ उसका श्रम है।
देवों की वरदान शक्ति भी इसके आगे कम है॥

सफलता का रहस्य : श्रम-महापुरुष बनने का प्रथम सोपान परिश्रमशीलता है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं सभी कष्ट-सहिष्णुता और श्रम के कारण श्रद्धा, गौरव और यश के पात्र बने। वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास आदि जन्म से महाकवि नहीं थे। उन्हें ठोकरें लगीं, ज्ञान-नेत्र खुले और अनवरत परिश्रम से महाकवि बने। गाँधी जी का सम्मान उनके परिश्रम एवं कष्ट-सहिष्णुता के कारण ही है। इन सबने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण श्रमरत रहकर बिताया। उसी का परिणाम था कि वे सफलता के उच्च शिखर तक पहुँच सके। महान् राजनेताओं, वैज्ञानिकों, कवियों, साहित्यकारों और ऋषि-मुनियों की सफलता का रहस्य एकमात्र परिश्रम ही है।

इतिहास साक्षी है कि भाग्य का आश्रय छोड़कर कर्म में तत्पर होने वाले लोगों ने ही इतिहास का निर्माण किया है, समय पर शासन किया है। कृष्ण यदि भाग्य के सहारे बैठे रहते तो एक ग्वाले का जीवन बिताकर ही काल-कवलित हो गये होते, नादिरशाह ईरान में जीवनपर्यन्त भेड़ों को ही चराता हुआ मर जाता, स्टालिन अपने वंश-परम्परागत व्यवसाय (जूते बनाने) को करता हुआ एक कुशल मोची बनता, खुश्चेव कोयले की खदान का मजदूर ही रह जाता, गोर्की कूड़े-कचरे के ढेर से चीथड़े ही बीनता रहता, बाबर समरकन्द से भागकर हिन्दूकुश की पर्वत-श्रेणियों में ही खो जाता, शेरशाह सूरी बिहार के गाँव में किसी किसान का हलवाहा होता, हैदरअली सेना का एक सामान्य सिपाही ही बना रहता, प्रेमचन्द एक प्राथमिक पाठशाला के अध्यापक के रूप में अज्ञात रह जाते और लाल बहादुर शास्त्री के लिए प्रधानमन्त्री का पद एक सुहावना सपना ही बना रहता। निश्चय ही इन्होंने जो कुछ पाया वह सब कुछ दृढ़ संकल्प शक्ति, साहस, धैर्य, अपने ध्येय में अटल विश्वास और कर्म शौर्य के कारण ही पाया। इनकी सफलता के पीछे किसी भाग्य अथवा संयोग का हाथ न था। दुष्यन्त कुमार ने कहा भी है–

कौन कहता है कि आसमाँ में सुराख नहीं होता।
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो ॥

ऊपर उल्लिखित पुरुषों ने सम्भवत: ऐसा ही कोई कथन अपने जीवन के प्रेरक के रूप में अपनाया होगा। संस्कृत में भी कहा गया है-

उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः।
दैवेन देयमिति का पुरुषा वदन्ति ।।
दैवं विहाय पौरुषमात्मकृत्या
यत्ने कृते यदि न सिद्ध्यति कोऽत्र दोषः ।।

तात्पर्य यह है कि उद्योगी पुरुष वास्तव में पुरुष-सिंह होता है, लक्ष्मी उसी का वरण करती है। ‘भाग्य देगा’ यह कायरों का कथन है। भाग्य को अलग रख कर परिश्रम करना चाहिए। यत्न करने पर भी यदि कुछ प्राप्त नहीं होता, तो इसमें तुम्हारा क्या दोष है ?

उपसंहार–परिश्रमी व्यक्ति राष्ट्र की बहुमूल्य पूँजी है। श्रम वह महान् गुण है, जिससे व्यक्ति को विकास और राष्ट्र की उन्नति होती है। संसार में महान् बनने और अमर होने के लिए परिश्रमशीलता अनिवार्य है। श्रम से अपार आनन्द मिलता है। महात्मा गाँधी ने हमें श्रम की पूजा का पाठ पढ़ाया। उन्होंने कहा-“श्रम से स्वावलम्बी बनने का सौभाग्य मिलता है। हम अपने देश को श्रम और स्वावलम्बन से ही ऊँचा उठा सकते हैं।” श्रम की अद्भुत शक्ति को देखकर ही नेपोलियन ने कहा था कि, “संसार में असम्भव कोई काम नहीं। असम्भव शब्द को तो केवल मूर्खा के शब्दकोष में ही हूँढ़ा जा सकता है।”

आधुनिक युग विज्ञान का युग है। प्रत्येक बात को तर्क की कसौटी पर कसा जा सकता है। भाग्य जैसी काल्पनिक वस्तुओं से अब जनता का विश्वास उठता जा रहा है। वास्तव में भाग्य श्रम से अधिक कुछ भी नहीं। श्रम का ही दूसरा नाम भाग्य है। जीवन में श्रम की महती आवश्यकता है। बिना श्रम के मानव-जाति का कल्याण नहीं, दुःखों से त्राण नहीं और समाज में उसका कहीं भी सम्मान नहीं। हमें सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अपने भाग्य के विधाता हम स्वयं हैं। जब हम कर्म करेंगे तो समय आने पर हमें उसका फल अवश्य ही मिलेगा। उसमें प्रकृति के नियमानुसार कुछ समय लगना स्वाभाविक ही है। कबीरदास ने ठीक ही कहा है-

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींच सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय ॥

को न कृसंगति पाई नसाई [2016, 18]

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. कुसंगति का मानव-जीवन पर प्रभाव,
  3. कुसंगति की छूत,
  4. कुसंगी व्यक्ति की समाज में स्थिति,
  5. कुसंगति से हानि,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-“को न कुसंगति पाई नसाई’ का अर्थ है-कुसंगति में पड़कर कौन नष्ट नहीं हो जाता। इसका तात्पर्य बुरे लोगों की संगति में आकर बुरे व्यवहार व आचरण को अनुसरण करने से है। इस प्रकार व्यक्ति जो कुसंगति में आकर बुरा व्यवहार करने लगता है, उसका मानसिक विकास रुक जाता है। तथा कुसंगति के कारण ऐसे मनुष्य का यश, धन, वैभव आदि सभी कुछ नष्ट हो जाता है। समाज में ऐसे कई जीवंत उदाहरण देखे जा सकते हैं। कई कुसंगी मनुष्यों को समय रहते काफी कुछ खोना पड़ता है। कुसंगी व्यक्ति अपने बुरे चरित्र के कारण ही दूसरों को हानि पहुँचाने वाले होते हैं तथा ऐसे व्यक्ति के साथ जो पुरुष मित्रता करता है, वह भी शीघ्र ही बुराइयों से प्रभावित हो जाता है। आचार्य चाणक्य का कहना है-“मनुष्य को कुसंगति से बचना चाहिए। उनके अनुसार मनुष्य की भलाई इसी में है कि वह जितनी जल्दी हो सके कुसंगी व्यक्तियों का साथ छोड़ दे। कुसंगी व्यक्तियों के सन्दर्भ में निम्न सूक्ति दी गई है—

हानि कुसंग सुसंगति लाहू, लोकहुँ वेद विदित सब काहू।।
बिनसहू उपजइ ज्ञान जिमि, पाई कुसंग सुसंग॥

कुसंगति का मानव-जीवन पर प्रभाव-कुसंगति का मुख्य रूप एक ही है-दूषित विचारों का संग। मनुष्य के शरीर का संचालन मन-मस्तिष्क के ही सांकेतिक निर्देशों से होता है। जैसा विचार और जैसी भावनाएँ होंगी वैसी ही कर्म प्रेरणा होगी और तीनों के सम्मिलित प्रभाव से व्यक्तित्व विनिर्मित होगा। विचारों का संग दो प्रकार से होता है—पहला साहित्य के अध्ययन से तथा दूसरा व्यक्तियों के सम्पर्क से। संगति दोनों की ही प्रभावकारी होती है। सस्ता साहित्य, सनसनीखेज खबरें और बातें, अश्लील साहित्य तथा गपोड़बाजी, नशेबाजी, जुआरी, सटोरिया, कलही, दुव्यसनी व्यक्ति अपना दुष्प्रभाव अन्य व्यक्तियों पर भी डालते हैं। भली-बुरी दोनों ही प्रकार की प्रवृत्तियाँ प्रोत्साहन से पनपती हैं। प्रोत्साहन और अवसर न मिलने पर मुरझाकरे धीरे-धीरे मृतप्राय अवस्था में जा पहुँचती हैं। कुसंगति दुष्प्रवृत्तियों को बढ़ाती है और सत्प्रवृत्तियाँ उसकी प्रचण्ड आँच से झुलसती जाती हैं। इन प्रवृत्तियों से मानव प्रभावित होता है, क्योंकि दुष्प्रवृत्तियों का प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति पर पड़े बिना नहीं रहता। समाज में सदाचारी और दुराचारी दोनों प्रकार के लोग रहते हैं। दोनों ही समाज को प्रभावित करते हैं। समाज में रहने वाले अन्य व्यक्ति किसी सदाचारी व्यक्ति से इतनी जल्दी प्रभावित नहीं होते जितना कि दुराचारी व्यक्ति से प्रभावित होते हैं। भविष्य में जिसका विपरीत प्रभाव उनके क्रियाकलापों को देखने से स्पष्ट होता है।

कुसंगति की छुत-कुसंगति (बुरी संगति) को कीचड़ के समान बताया गया है कि इस कीचड़ से बचकर रहना चाहिए, अन्यथा यह हमारे आचरण को दूषित कर देगा। यदि कोई मनुष्य एक बार बुरी संगत में फँस गया है और कलंकित हो गया तो वह फिर बार-बार कलंकित होने से नहीं डरता और धीरे-धीरे बुरी आदतों का अभ्यस्त हो जाता है। जब बुराई आदत बन जाती है तब वह उससे घृणा भी नहीं करता और न बुरा कहने से चिढ़ता ही है।

कुसंगति में पड़े हुए व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है और उसे भले-बुरे की पहचान भी नहीं रह जाती। उसे बुराई ही भलाई दीखने लगती है और वह इतना गिर जाता है कि बुराई की पूजा भक्त की तरह करने लगता है। इसलिए यदि अपने हृदय और आचरण को निष्कलंक और उज्ज्वल बनाये रखना है तो कुसंगति की छूत से बचना चाहिए।

कुसंगी व्यक्ति की समाज में स्थिति–कुसंगी व्यक्ति की समाज में स्थिति घृणापूर्ण होती है। क्योंकि उसके कुमार्ग पर पैर रखते ही उसके शरीर में तेज, बल, बुद्धि लेशमात्र भी नहीं रह जाती है। आत्मबल में कमी आ जाती है; जैसे-सीता जी का अपहरण करने से पहले रावण इधर-उधर देखता रहा और भयग्रस्त होकर कुत्ते की तरह उसने आश्रम में प्रवेश किया। कुसंगी व्यक्ति की बुराइयाँ भयानक बीमारी की तरह होती हैं, जो बहुत कम समय में ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को अपनी चपेट में ले लेती हैं, जिससे कुसंगी व्यक्ति की संगत में आने वाला हर व्यक्ति उसके ही सामान रोगी हो जाता है जो समाज को बहुत बुरी तरह से आहत करते हैं। इससे समाज का भविष्य भी बुराइयों के अँधेरे में डूब जाता है। इसी कारण कुसंगी व्यक्तियों को समाज से बाहर ही रखा जाता है या समाज के लोगों को सूचित कर दिया जाता है कि ऐसे लोगों से दूर रहकर अपना व अपने बच्चों का भविष्य खराब होने से बचाएँ, जिससे आपकी आने वाली पीढ़ियों को भी उसके दुष्परिणामों से सुरक्षित रखा जा सके। इन सब कारणों के कारण कुसंगी व्यक्ति को समाज से मिलने वाली बहुत सी प्रताड़नाओं को झेलना पड़ता है।

कुसंगति से हानि–कुसंगति बहुत ही हानिकारक होती है। यदि किसी व्यक्ति पर कुसंगति का कोई प्रभाव न पड़ रहा हो, फिर भी कुसंगी व्यक्तियों के साथ रहने के कारण उसे बुरा ही समझा जाता है। कोई चोरी न भी करे लेकिन यदि वह चोरों के साथ मिलता-जुलता भी है, तो लोग उसे भी चोर ही कहेंगे। विद्यार्थियों के लिए तो कुसंगति विनाश को जन्म देती है। इसमें पड़कर विद्यार्थी बहुत-सी बुराइयों को ग्रहण कर लेते हैं।

कुसंगति में रहने से कोई भी सुख प्राप्त नहीं होता, बल्कि थोड़ा-बहुत सुख-चैन होता भी है, वह भी नष्ट हो जाता है। अत: कुसंगति समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व को नष्ट करती है, जो भविष्य में उसके लिए हानिप्रद होती है।

उपसंहार-कुसंगति मानव-जीवन के लिए एक अभिशाप है क्योंकि कुसंगति का मानव-जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है और इससे सदैव हानि ही होती है। मनुष्य कितना ही सतर्क और सावधान रहे कुसंगति काजल की कोठरी के समान होती है जिसकी चपेट में व्यक्ति कभी-न-कभी आ ही जाता है, जिससे उसके जीवन का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति को उसके खुद के परिवार के साथ-साथ समाज के अन्य व्यक्ति भी स्वीकार नहीं करते हैं और हर तरफ से सिर्फ प्रताड़नाएँ मिलती हैं। इससे कुसंगी व्यक्ति के मन में सभी के प्रति गलत भावनाएँ घर कर लेती हैं जो दूसरों की हानि देखकर उसे प्रसन्नता प्रदान करती हैं। ऐसे व्यक्ति अपना शरीर त्याग करके भी दूसरों का अहित करने का पाठ पढ़ाते हैं; अतः कुसंगति से दूर ही रहना चाहिए। छात्रों के लिए तो कुसंगति विनाश लेकर आती है। इसमें पड़कर छात्र अनेक व्यसन सीख जाते हैं। कुसंगति के कारण महान-से-महान व्यक्ति भी पतन के गर्त में गिरता चला जाता है। कुसंगति व्यक्ति की बुद्धि को जड़ करती है, उसे पग-पग पर मान-हानि उठानी पड़ती है तथा व्यक्ति स्वार्थी हो जाता है; इसलिए सदैव कुसंगति से बचकर रहना चाहिए।

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