UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 9 संस्कृतभाषायाः गौरवम् (गद्य – भारती)

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परिचय

संस्कृत भाषा विश्व की समस्त भाषाओं में सर्वाधिक प्राचीन भाषा है। यह ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, सरल, मधुर, सरस और मनोहर है। इस बात को सभी पाश्चात्य भाषाविद् भी स्वीकार करते हैं। संस्कृत भाषा के दो रूप हैं—

  • वैदिक और
  • लौकिक।

हमारे प्राचीनतम ग्रन्थों, वेद, उपनिषद् आदि में जो भाषा मिलती है, वह वैदिक संस्कृत है और जिस भाषा का आजकल अध्ययन किया जाता है वह लौकिक संस्कृत। वैदिक संस्कृत की तुलना में लौकिक संस्कृत अधिक सरल है।

संस्कृत को सभी भारतीय भाषाओं की जननी कहा जाता है। संस्कृत से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश और विभिन्न अपभ्रंशों से वर्तमान समय की विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं का विकास माना जाता है। भारत का समस्त प्राचीन साहित्य संस्कृत में ही है। गद्य, पद्य, नाटक, व्याकरण, ज्योतिष, दर्शन, गणित आदि विषयों का विशाल साहित्य इस भाषा को आदरणीय बनाता है। इसीलिए इसका देववाणी, गीर्वाणवाणी, देवभाषा कहकर आदर किया जाता है।

प्रस्तुत पाठ में संस्कृत भाषा की प्राचीनता, वैज्ञानिकता, ज्ञान-सम्पन्नता, भावात्मकता आदि का परिचय देते हुए इसके महत्त्व को समझाया गया है। साथ ही यह भी बताया गया है कि इसी के द्वारा विश्व-शान्ति की स्थापना की जा सकती है।

पाठ-सारांश [2006, 07,08, 09, 10, 11, 12, 13, 14]

प्राचीनता संस्कृत भाषा विश्व की समस्त भाषाओं में प्राचीनतम, विपुल साहित्य और ज्ञान-सम्पन्न, सरल, मधुर, सरसे और मनोहर है। संस्कृत भाषा को देववाणी या गीर्वाणभारती भी कहा जाता है। इस बात को पाश्चात्य भाषाविद् भी मानते हैं कि यह ग्रीक, लैटिन आदि भाषाओं से भी पुरातन और प्रचुर साहित्य सम्पन्न भाषा है। इस बात को दो सौ वर्ष पहले ही सर विलियम जोन्स ने घोषित कर दिया था। प्राचीन काल में यही भाषा सर्वसाधारण लोगों की और व्यवहार की भाषा थी। इस भाषा की प्राचीनता एवं अन्न- समान्य के भाई होने के विश्व में एक दृ ५५ति है। कल जाता है कि कोई रातकड़ी का गट्ठर सिर पर रखे हुए जा रहा था। उसे देखकर राजा ने पूछा—-** भो भार धति?” अरे भार परेशान कर रहा है)। तब लकड़हारे ने कहा कि राजन् लकड़ियों का भार इतना परेशान नहीं कर रहा है, जितना कि आपके द्वारा प्रयुक्त ‘बाधति’ शब्द। राजा द्वारा प्रयुक्त ‘बाधति’ परस्मैपदी होने के कारण अशुद्ध था, यहाँ आत्मनेपद का रूप ‘बाधते’ प्रयुक्त होना था। यही बात लकड़हारे ने राजा से अन्योक्ति के माध्यम से कहीं है, जो संस्कृत का लोक-भाषा होना प्रमाणित करती है। इसके अतिरिक्त रामायणकालीन समाज में भी यह भाषा लोकभाषा के रूप में व्यवहृत होती थी। ‘रामायण’ में एक स्थान पर संस्कृत को द्विजाति की भाषा कहा गया है।

विशाल और प्राचीन साहित्य संस्कृत भाषा का साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। यह गद्य, पद्य और चम्पू तीन प्रकार का है। संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद’ इसी भाषा में है। इसी भाषा में वेद, वेदांग, दर्शन, उपनिषद्, स्मृति, पुराण, धर्मशास्त्र, महाभारत, रामायण आदि लिखे गये हैं। इन सभी में साहित्य के विषयानुरूप सरल और क्लिष्ट रूप प्रकट होते हैं। वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, कालिदास, अश्वघोष, बाण, सुबन्धु, दण्डी, भारवि, माघ, श्रीहर्ष आदि संस्कृत के महान कवि और लेखक हैं, जो संस्कृत भाषा के गौरव को द्योतित करते हैं। संस्कृत का व्याकरण तो संसार में अद्वितीय है। इसमें सन्धि, समास, अलंकारों आदि का सूक्ष्म विवेचन है। इसके काव्य में ध्वनि-माधुर्य और श्रुति-माधुर्य है।

भाषागत विशिष्टता संस्कृत भाषा के वाक्य-विन्यास में शब्दों का स्थान निर्धारित नहीं होता, अर्थात् वाक्य के अन्तर्गत प्रयुक्त शब्दों को कहीं भी रखा जा सकता है। इससे वाक्य के अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता। संस्कृत में व्युत्पत्ति अर्थ के अनुसार और व्युत्पत्ति के अनुसार सार्थक शब्दों की रचना की जाती है।

सामाजिक विशिष्टता संस्कृत भाषा की सामाजिक विशिष्टता भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इसकी कुछ एक सूक्तियों का अधोलिखित हिन्दी रूपान्तर इसे स्पष्ट करता है–

  • जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से। बढ़कर है।
  • यह अपना है और यह पराया है; यह भावना संकीर्ण विचारकों की हैं।
  • उदार चरित वाले व्यक्तियों के लिए सम्पूर्ण पृथ्वी ही कुटुम्ब के समान हैं।
  • कुत्ते और चाण्डाल के प्रति भी समान भाव रखने वाले पण्डित होते हैं, आदि।

अध्ययन की आवश्यकता संस्कृत भाषा के ज्ञान के बिना एकता और अखण्डता का पाठ निरर्थक है। प्राचीन भारतीय मनीषियों के उत्तमोत्तम विचार और अन्वेषण इसी भाषा में निबद्ध हैं। अपनी सभ्यता, धर्म और संस्कृति को अच्छी तरह समझने के लिए संस्कृत का अध्ययन परमावश्यक है। इस भाषा की उन्नति करने के लिए हमें सदैव तत्पर रहना चाहिए। पं० जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में संस्कृत भाषा के महत्त्व के विषय में लिखा है कि “संस्कृत भाषी भारत की अमूल्य निधि है। इसकी सुरक्षा का दायित्व स्वतन्त्र भारत पर है।”

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
संस्कृतभाषा विश्वस्य सर्वासु भाषासु प्राचीनतमा विपुलज्ञानविज्ञानसम्पन्ना सरला सुमधुरा हृद्या चेति सर्वैरपि प्राच्यपाश्चात्यविद्वद्भिरेकस्वरेणोररीक्रियते। भारतीयविद्याविशारदैस्तु “संस्कृतं नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभिः” इति संस्कृतभाषा हि गीर्वाणवाणीति नाम्ना सश्रद्धं समाम्नाता।

शब्दार्थ प्राचीनतमा = सबसे अधिक प्राचीन सम्पन्ना = परिपूर्ण। हृद्या = हृदय को आनन्दित करने वाली। प्राच्य = पूर्वीया उररीक्रियते = स्वीकार किया जाता है। विद्याविशारदैः = विद्या में कुशल वागन्याख्याता = ।वाणी कही गयी। सश्रद्धम् = श्रद्धासहित। समाम्नाता = मानी गयी है। सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘संस्कृतभाषायाः गौरवम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा ]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत भाषा की प्राचीनता और उसे देवभाषा होना बताया गया है।

अनुवाद संस्कृत भाषा विश्व की सभी भाषाओं में सबसे प्राचीन, अत्यधिक ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, सरल, अत्यन्त मधुर और सभी के मनों को हरने वाली है। ऐसा पूर्वी (भारतीय) और पाश्चात्य विद्वानों द्वारा एक स्वर से स्वीकार किया गया है। भारतीय विद्वानों के द्वारा “संस्कृत महर्षियों द्वारा दैवी वाणी कही गयी है” इस प्रकार (मानी गयी) संस्कृत भाषा देवताओं की वाणी इस नाम से श्रद्धा के साथ मानी गयी।

(2)
ग्रीकलैटिनादि प्राचीनासु भाषासु संस्कृतभाषैव प्राचीनतमा प्रचुरेसाहित्यसम्पन्ना चेति। श्रीसरविलियमजोंसनाम्ना पाश्चात्यसमीक्षकेणापि शतद्वयवर्षेभ्यः प्रागेव समुद्घोषितमिति सर्वत्र विश्रुतम्।।

शब्दार्थ प्रचुरसाहित्यसम्पन्ना = अधिक साहित्य से युक्त। शतद्वयवर्षेभ्यः = दो सौ वर्ष से। प्रागेव = पहले ही। विश्रुतं = प्रसिद्ध है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत भाषा की प्राचीनता और विपुल साहित्य की पुष्टि के लिए पाश्चात्य विद्वान् का सन्दर्भ दिया गया है।

अनुवाद ग्रीक, लैटिन आदि प्राचीन भाषाओं में संस्कृत भाषा ही सबसे प्राचीन और विशाल साहित्य से युक्त है। श्री सर विलियम जोन्स नाम के पाश्चात्य आलोचक ने भी दो सौ वर्ष पहले ही घोषणा कर दी थी, ऐसा सब जगह प्रसिद्ध है।

(3)
संस्कृतभाषा पुराकाले सर्वसाधारणजनानां वाग्व्यवहारभाषा चासीत्। तत्रेदं श्रूयते यत्.पुरा कोऽपि नरः काष्ठभारं स्वशिरसि निधाय काष्ठं विक्रेतुमापणं गच्छति स्म। मार्गे नृपः तेनामिलदपृच्छच्च, भो!भारं बाधति? काष्ठभारवाहको नृपं तत्प्रश्नोत्तरस्य प्रसङ्गेऽवदत्, भारं न बाधते राजन्! यथा बाधति बाधते। अनेनेदं सुतरामायाति यत्प्राचीनकाले भारतवर्षे संस्कृतभाषा साधारणजनानां भाषा आसीदिति। रामायणे यदा भगवतो रामस्य प्रियसेवको हनूमान् कनकमयीं मुद्रामादाय सीतायै दातुमिच्छति तदा विचारयति स्म [2014]

वाचं चोदाहरिष्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम्।
रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति ॥

एतेनापि संस्कृतस्य लोकव्यवहारप्रयोज्यता अवगम्यते।

संस्कृतभाषा पुराकाले ………………………………………………… भाषा आसीदिति। [2010]

शब्दार्थ वाग्व्यवहार-भाषा = बोल-चाल के व्यवहार की भाषा। तत्रेदं = इस विषय में यह पुरा = पहले, प्राचीन काल में। निधाय = रखकर विक्रेतुमापणं = बेचने के लिए बाजार को अपृच्छत् = पूछा। बाधते = कष्ट दे रही है। अनेनेदम् = इससे यह कनकमयीम् = सोने की बनी। मुद्राम् = अँगूठी को। द्विजातिरिव = ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों के समान। संस्कृताम् = संस्कार की हुई। मन्यमाना = मानती हुई। भीता = डरी हुई। प्रयोज्यता = प्रयोग में आना। अवगम्यते = जानी जाती है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में उदाहरणों द्वारा बताया गया है कि प्राचीनकाल में संस्कृत सामान्यजन की बोलचाल की भाषा थी।

अनुवाद संस्कृत भाषा प्राचीन काल में सर्वसाधारण लोगों की वाणी और व्यवहार की भाषा थी। इसके विषय में यह सुना जाता है कि प्राचीन काल में कोई मनुष्य लकड़ी का बोझे अपने सिर पर रखकर लकड़ी बेचने के लिए बाजार को जा रहा था। मार्ग में राजा उससे मिला और पूछा-“अरे! क्या बोझ पीड़ा पहुँचा रहा है (भो! भारं बाधति)?” लकड़ी का बोझा ढोने वाले (लकड़हारे) ने राजा से उसके प्रश्न के उत्तर के प्रसंग में कहा-“हे राजन्! बोझ पीड़ा नहीं दे रहा है, जैसा ‘बाधति’ (का प्रयोग) पीड़ा पहुँचा रहा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में भारतवर्ष में संस्कृत भाषा साधारणजनों की भाषा थी। रामायण में जब भगवान् राम के प्रिय सेवक हनुमान् सोने की अँगूठी को लेकर सीता को देना चाहते हैं, तब वह सोचते हैं मैं ब्राह्मण के समान संस्कृत वाणी बोलूंगा तो सीता मुझे रावण समझते हुए डर जाएँगी। इससे भी संस्कृत का – लोक-व्यवहार में प्रयोग होना माना जाता है।

(4)
अस्याः भाषायाः साहित्यं सर्वथा सुविशालं विद्यते। तत्र संस्कृतसाहित्यं गद्य-पद्य-चम्पू-प्रकारैः त्रिधा विभज्यते। संस्कृतसाहित्यं नितान्तमुदात्तभावबोधसामर्थ्यसम्पन्नसाधारणं श्रुतिमधुरञ्चेति निर्विवादम्। वस्तुतः साहित्यं खलु निखिलस्यापि समाजस्य प्रत्यक्ष प्रतिबिम्बं प्रस्तौति। अस्मिन् साहित्ये विश्व-प्राचीनतमा ऋग्यजुः सामाथर्वनामधेयाश्चत्वारो वेदाः, शिक्षा-कल्पो, व्याकरणं, निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमित्येतानि वेदानां षडङ्गानि, न्याय-वैशेषिक-साख्य-योग-मीमांसा-वेदान्तेति आस्तिकदर्शन शास्त्राणि; चार्वाक्-जैन-बौद्धेति नास्तिकदर्शनशास्त्राणि, उपनिषदः, स्मृतयः, सूत्राणि, धर्मशास्त्राणि, पुराणानि, रामायणं महाभारतमित्यादयः ग्रन्थाः संस्कृतसाहित्यस्य ज्ञानरत्नप्राचुर्यं समुद्घोषयन्ति। वाल्मीकि-व्यास-भवभूति-दण्डि-सुबन्धु-बाण-कालिदास-अश्वघोष-भारवि-जयदेव-माघ-श्रीहर्षप्रभृतयः कवयः लेखकाश्चास्याः गौरवं वर्धयन्ति। अहो! संस्कृतभाषायाः भण्डारस्य’ निःसीमता, यस्याः शब्दपारायणस्य विषये महाभाष्ये लिखितं वर्तते यद दिव्यं वर्षसहस्रं वृहस्पतिः इन्द्राय शब्दपारायणमिति कोष-प्रक्रिया आसीत्। संस्कृतव्याकरणेन एवंविधा शैली प्रकटिता पाणिनिना, यथा शब्दकोषाः अल्पप्रयोजना एवं जाता। तस्य व्याकरणं विश्वप्रसिद्धम् एव न अपितु अद्वितीयमपि मन्यते।।

अस्याः भाषायाः ………………………………………………… समुदघोषयन्ति । [2015]

शब्दार्थ सर्वथा सुविशालं = अत्यन्त विस्तृत। त्रिधा = तीन प्रकार से। विभज्यते = विभक्त किया जाता है। निर्विवादम् = विवाद से रहित प्रस्तौति = प्रस्तुत करता है। षडङ्गानि = छ: अंग। प्राचुर्यम् = अधिकता को। समुद्घोषयन्ति = उद्घोषित करते हैं। वर्धयन्ति = बढ़ाते हैं। निःसीमता = असीमता, सीमाहीनता। दिव्य वर्षसहस्रम् = हजार दिव्य वर्षों तक पारायणम् = पढ़ना। अल्पप्रयोजना = थोड़े प्रयोजन वाले।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत-साहित्य की विशालता बतायी गयी है तथा उसके ग्रन्थ, कवि, व्याकरण-कोशादि का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इस भाषा का साहित्य सब प्रकार से अत्यन्त विशाल है। वहाँ संस्कृत-साहित्य गद्य, पद्य और चम्पू के भेद से तीन प्रकार का विभाजित किया जाता है। संस्कृत-साहित्य अत्यन्त उच्च भावों के ज्ञान की योग्यता से युक्त, असाधारण वे सुनने में मधुर है-यह बात विवादरहित है। वास्तव में साहित्य निश्चय ही सम्पूर्ण समाज का प्रत्यक्ष प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है। इस साहित्य में विश्व के सबसे प्राचीन ऋक्, यजुः, साम और अथर्व नाम के चार वेद; शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष—ये वेदों के छ: अंग; न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त-ये आस्तिक दर्शनशास्त्र; चार्वाक, जैन, बौद्ध–ये नास्तिक दर्शनशास्त्र; उपनिषद्, स्मृतियाँ, सूत्र, धर्मशास्त्र, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ संस्कृत-साहित्य के ज्ञान-रत्न की अधिकता को घोषित करते हैं। वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, दण्डी, सुबन्धु, बाण, कालिदास, अश्वघोष, भारवि, जयदेव, माघ, श्रीहर्ष आदि कवि और लेखक इसके गौरव को बढ़ाते हैं। अहो! संस्कृत भाषा के भण्डार का सीमारहित होना आश्चर्यजनक है, जिसके शब्दों के पारायण (व्याख्यान) के विषय में महाभाष्य में लिखा है कि बृहस्पति ने दिव्य हजार वर्ष तक इन्द्र को शब्द का व्याख्यान किया। यह कोश की प्रक्रिया थी। महर्षि पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण के द्वारा ऐसी शैली का प्रतिपादन किया, जिससे शब्दकोश कम प्रयोजन वाले ही हो गये। उनका व्याकरण विश्वप्रसिद्ध ही नहीं, अपितु अद्वितीय भी माना जाता है।

(5)
अन्यासु भाषासु वाक्ययोजने प्रथमं कर्तुः प्रयोगः पुनः अन्येषां कारकाणां विन्यासः, पश्चात् क्रियायाः उक्तिः। कस्याञ्चित् भाषायां क्रियायाः विशेषणानां कारकाणाञ्च पश्चात् प्रयोगः, किन्तु संस्कृतव्याकरणे नास्ति एतादृशाः केऽपि नियमाः। यथा–आसीत् पुरा दशरथो नाम राजा अयोध्यायाम्। अस्यैव वाक्यस्य विन्यासः एवमपि भवति-पुरा अयोध्यायां दशरथो नाम राजा आसीत्, अयोध्यायां दशरथो नाम राजा पुरा आसीत्, इति वा। कस्यापि पदस्य कुत्रापि स्थानं भवेत् न कापि क्षतिः। [2008, 10]

शब्दार्थ वाक्ययोजने = वाक्य की योजना (प्रयोग) में। अन्येषां = दूसरे। विन्यासः = रचना। उक्तिः = कथन। एतादृशाः = इस प्रकार के। अस्यैव = इसका ही। कुत्रापि = कहीं भी। क्षतिः = हानि।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत की वाक्य-योजना के विषय में बताया गया है।

अनुवाद” अन्य भाषाओं में वाक्य-योजना में पहले कर्ता का प्रयोग, फिर दूसरे कारकों का प्रयोग, बाद में क्रिया का कथन होता है। किसी भाषा में क्रिया का प्रयोग विशेषणों और कारकों के बाद होता है, किन्तु संस्कृत व्याकरण में इस प्रकार के कोई नियम नहीं हैं; जैसे—आसीत् पुरा दशरथो नाम राजा अयोध्यायाम्। (प्राचीन काल में अयोध्या में दशरथ नाम का राजा था।) इसी वाक्य की रचना ऐसी भी होती है-पुरा अयोध्यायां दशरथो नाम राजा आसीत्, अथवा अयोध्यायां दशरथो नाम राजा पुरा आसीत्; ऐसी भी। किसी भी पद का कहीं भी स्थान हो, कोई हानि नहीं है।

(6)
सन्धीनां विधानेन वाक्यस्य विन्यासे सौकर्यं जायते। एकस्यां पङ्क्त समासेन बहूनां शब्दानां योजना भवितुं शक्या, यथा-कविकुलगुरुकालिदासः। एकस्याः क्रियायाः विभिन्नार्थद्योतनाय दशलकारा वर्णिताः। लकाराणां प्रयोगज्ञानेन इत्थं ज्ञायते इयं घटना कियत्कालिकी, किंकालिकी, यथा—हरिश्चन्द्रो राजा बभूव। रामो लक्ष्मणेन सीतया च सह वनं जगाम अत्र लिट्प्रयोगेण ज्ञायते इयं घटना पुरा-कालिकी सहस्रवर्षात्मिका लक्षात्मिका वा स्यात्। गन्तास्मि वाराणसी कथनेनैव ज्ञायते श्वः गन्तास्मि। सामान्यभविष्यत्काले लुट् प्रयोगो भवति, एवं भूतकालेऽपि अद्यतनस्य अनद्यतनस्य च भूतकालस्य कृते पृथक् पृथक् लकारस्य प्रयोगोऽस्ति।

शब्दार्थ सौकर्यम् = सरलता। विभिन्नार्थ = भिन्न-भिन्न अर्थ। द्योतनाय = बताने के लिए। कियत्कालिकी = कितने समय की। किंकालिकी = किस समय की। सहस्रवर्षात्मिका = हजार वर्ष की। लक्षात्मिका = एक लाख वर्ष की। गन्तास्मि = जाने वाला हूँ। अद्यतनस्य = आज का। अनद्यतनस्य = आज से भिन्न का।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत में सन्धि, समास तथा लकारों के प्रयोग के महत्त्व को बताते हुए इस भाषा की लोकप्रियता बतायी गयी है।

अनुवाद सन्धियों के करने में वाक्य की रचना में सरलता हो जाती है। समास के द्वारा एक पंक्ति में बहुत-से शब्दों का प्रयोग हो सकता है; जैसे-कविकुलगुरुकालिदासः (कवियों के समूह के गुरु कालिदास)। एक क्रिया के विभिन्न अर्थों को बताने के लिए दस लकारों का वर्णन किया गया है। लकारों के प्रयोग के ज्ञान से इस प्रकार ज्ञात हो जाता है कि यह घटना कितने समय की और किस समय की है; जैसे—हरिश्चन्द्रो राजा बभूव (हरिश्चन्द्र राजा थे)। रामो लक्ष्मणेन सीतया च सह वनं जगाम (राम, लक्ष्मण और सीता के साथ वन गये)। यहाँ (बभूव और जगाम में) लिट् लकार का प्रयोग करने से ज्ञात होता है कि यह घटना प्राचीन समय की-हजार वर्ष की या लाख वर्ष की-है। गन्तास्मि वाराणसीम् (वाराणसी जाऊँगा) कहने से ही ज्ञात हो जाता है—कल जाऊँगा। सामान्य भविष्यकाल में लुट् लकार का प्रयोग होता है। इसी प्रकार भूतकाल में भी अद्यतन, अनद्यतन और भूतकाल के लिए अलग-अलग लकार का प्रयोग है।

(7)
संस्कृते अर्थान् गुणांश्च क्रोडीकृत्य शब्दानां निष्पत्तिः, यथा-पुत्रः कस्मात् पुत्रः? पुं नरकात् त्रायतेऽसौ पुत्रः, आत्मजः कस्मादात्मजः? आत्मनो जायतेऽसौ आत्मजः, सूर्यः कस्मात् सूर्यः? सुवति कर्मणि लोकं प्रेरयति अतः सूर्यः। सूर्यः यदा नभोमण्डलमारोहति प्रेरयति लोकं, कस्मात् शेषे? उत्तिष्ठ, वाति वातः, स्वास्थ्यप्रदायकं प्राणवायुं गृहाण, नैत्त्यिकानि कर्माणि कुरु, इत्थं प्रेरयन्, आकाशमागच्छति अतः सूर्य इति। खगः कस्मात्? खे (आकाशे) गच्छति अस्मात् खगः? एवमर्थज्ञानाय व्यवस्थान्यासु भाषासु नास्ति। अव्युत्पन्नाः शब्दाः तेषामपि निरुक्तिः अर्थानुसन्धानिकी भवत्येव इति नैरुक्ताः। सर्वं नाम च धातुजमाह इति शाकटायनः, उणादिसूत्रेषु एषैव प्रक्रिया वर्तते।।

शब्दार्थ क्रोडीकृत्य = मिलाकर, क्रोड में लेकर। निष्पत्तिः = निर्माण, व्युत्पत्तिा पुं नरकात् त्रायते =’पुम्’ नामक नरक से रक्षा करता है। सुवति = प्रेरित करता है। नभोमण्डलमारोहति = आकाश-मण्डल पर चढ़ता है। प्रेरयति = प्रेरित करता है। नैत्यिकानि = नित्य करने योग्य। इत्थं प्रेरयन् = इस प्रकार प्रेरणा करता हुआ। खे = आकाश में। अव्युत्पन्नाः = बिना व्युत्पत्ति के अर्थानुसन्धानिकी = अर्थ की खोज से होने वाली। नैरुक्ताः = निरुक्त शास्त्र के आचार्य। धातुजमाह = धातु से उत्पन्न कहा है। एषैव = यह ही।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शब्दों की निष्पत्ति के बारे में बताया गया है।

अनुवाद संस्कृत में अर्थ और गुणों को मिलाकर शब्दों की व्युत्पत्ति होती है; जैसे-‘पुत्र’ किस कारण से पुत्र है? (पुम् नाम्नः नरकात् त्रायते इति पुत्रः) पुम्’ नामक नरक से बचाता है; अत: वह ‘पुत्र’ है। ‘आत्मज’ किस कारण से आत्मज (पुत्र) है? अपने से उत्पन्न होता है; अतः वह ‘आत्मज’ (आत्मनः जायते) है। ‘सूर्य’ किस कारण से सूर्य हैं? संसार को कर्म में प्रेरित करता है; अत: वह ‘सूर्य’ (सुवति कर्मणि लोकम्) है। सूर्य जब आकाशमण्डल में चढ़ता है, संसार को प्रेरित करता है। किस कारण सो रहे हो? उठो, हवा चल रही है, स्वास्थ्यप्रद प्राणवायु को ग्रहण करो। नित्य के कर्मों को करो-इस प्रकार प्रेरित करता हुआ आकाश में आता है; अतः वह सूर्य (सुवति कर्मणि लोकम्) है। ‘खग’ (पक्षी) किस कारण खग है? आकाश में जाता है, इस कारण से ‘खग’ (खे गच्छति) है। इस प्रकार अर्थ को जानने की व्यवस्था अन्य भाषाओं में नहीं है। जो व्युत्पत्तिरहित शब्द हैं, उनकी भी व्याख्या अर्थ की खोज से ही होती है; ऐसा निरुक्त में कहा गया है। सभी संज्ञाशब्द धातु से बनते हैं-ऐसा शाकटायन ने कहा है। उणे आदि सूत्रों में भी यही प्रक्रिया है।।

(8)
इयं वाणी गुणतोऽनणीयसी, अर्थतो गरीयसी, एकस्य श्लोकस्य षषडर्थाः प्रदर्शिताः नैषधे, वाङ्मयदृष्ट्या महीयसी, भावतो भूयसी, अलङ्कारतो वरीयसी, सुधातोऽपि स्वादीयसी, सुधाशनानामपि प्रेयसी, अत एव जातकलेखकाः बौद्धाः सर्वात्मना पालिं प्रयोक्तुं कृतप्रतिज्ञा अपि संस्कृतेऽपि स्वीयान् ग्रन्थान् व्यरीरचन्। एवं जैनाः कवयः दार्शनिका अपि संस्कृतभाषामपि स्वीकृतवन्तः यद्यपि ते विचारेषु विपक्षधरा एवं आसन्।

शब्दार्थ गुणतोऽनणीयसी = गुणों के कारण अधिक विस्तृता गरीयसी = गौरवशालिनी। वाङमयदृष्ट्या = साहित्य की दृष्टि से। महीयसी = महत्त्वपूर्ण भूयसी = श्रेष्ठ। वरीयसी = वरिष्ठ। सुधांतोऽपि = अमृत से भी। स्वादीयसी = अधिक स्वादिष्ट सुधाशनानाम् = अमृत का भोजन करने वालों की। स्वीयान् = अपनों को। व्यरीरचन् = रचना की। स्वीकृतवन्तः = स्वीकार किया। विपक्षधराः = विरोधी पक्ष धारण करने वाले।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत भाषा का महत्त्व बताते हुए इसकी लोकप्रियता बतायी गयी है।

अनुवाद यह वाणी गुण से भी बड़ी है, अर्थ से महान् है, नैषध (श्रीहर्ष द्वारा रचित ग्रन्थ) में एक श्लोक के छः-छः अर्थ दिखाये हैं। वाङ्मय (साहित्य) की दृष्टि से महान् है। भाव से भी अधिक (धनी) है, अलंकार से श्रेष्ठ है, अमृत से भी स्वादिष्ट है। अमृतपान करने वालों को भी प्रिय है। अतएव जातक’ (बौद्ध ग्रन्थ) के लेखक बौद्धों ने सब प्रकार से पालि का प्रयोग करने की प्रतिज्ञा करते हुए संस्कृत में भी अपने ग्रन्थों की रचना की। इसी प्रकार जैन दार्शनिकों और कवियों ने भी संस्कृत भाषा को स्वीकार किया। यद्यपि वे विचारों में विरोधी पक्ष को धारण करने वाले थे।

(9)
अस्याः काव्यभाषायाः शब्दगतमर्थगतञ्च ध्वनिमाधुर्यं श्रावं आवं सुराङ्गनापदनूपुरध्वनिमाधुर्यं धिक्कुर्वन्ति वाङ्मयाध्वनीनाः, काव्यक्षेत्रे शब्दगतानर्थगतांश्च विस्फुरतोऽलङ्कारान् विलोक्य पुनर्नावलोकयन्ति मणिमयानलङ्कारान्।।

अस्याः काव्यभाषायाः ………………………………………………… मणिमयानलङ्कारान् [2011]

शब्दार्थ ध्वनिमाधुर्यं आवं आवं = ध्वनि की मधुरता को सुन-सुनकर। सुराङ्गनापदनूपुरध्वनिमाधुर्यम् = देवांगनाओं के पैरों के नूपुरों की ध्वनि की मधुरता को। धिक्-कुर्वन्ति = अपमानित करते हैं। विस्फुरतः = स्फुरित होते हुए। मणिमयान् = मणि के बने।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत भाषा की मधुरता का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इसके काव्य की भाषा की शब्दगत और अर्थगत ध्वनि की मधुरता को सुन-सुनकर संस्कृत-साहित्य का अध्ययन करने वाले विद्वान् देवांगनाओं की पायलों की ध्वनि की मधुरता की भी निन्दा करते हैं। काव्य के क्षेत्र में शब्दगत और अर्थगत अलंकारों को स्फुरित होते हुए देखकर फिर मणि के बने आभूषणों को नहीं देखते हैं।

(10)
भारतीय धर्म इव संस्कृतभाषापि भारतीयानां वरिष्ठः शेवधिः। इयमेव भाषा शाखाप्रशाखारूपेण प्रान्तीयासु तासु-तासु भाषासु तिरोहिता वर्तते। अद्य केचन धर्मान्धाः राजनीतिभावनाभाविताः भारतस्य खण्डनमभिलषन्ति। कारणं तेषां संस्कृतभाषायाः अज्ञानम्। “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”, “अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्”, “उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्”, “शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः”, “मा हिस्स र्वभूतानि”;”मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव” इमे उपदेशाः यदि भारतीयानां संमक्षं समीक्ष्यन्तां तदा सकलं भारतं स्वयमेव एकसूत्रे अखण्डतासूत्रे च निबध्येत| “अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः”, “मानसं यान्ति हंसाः न पुरुषा एव?” इति सडिण्डिमं घोषयति इयं भाषा। [2006]

भारतीय धर्म इव ………………………………………………… निबध्येत [2009,11]
भारतीय धर्म इव ………………………………………………… तिरोहिता वर्तते [2011]

शब्दार्थ वरिष्ठः = उत्तम शेवधिः = निधि, खजाना। तासु-तासु = उन-उन। तिरोहिता = छिपी हुई। खण्डनमभिलषन्ति = टुकड़े करना चाहते हैं। परोवेति = अथवा पराया है, ऐसी| वसुधैव = धरती ही। शुनि = कुत्ते में। श्वपाके = चाण्डाल में प्रोतं = पिरोया हुआ है। निबध्येत = बँध जाएगा।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने संस्कृत भाषा के महत्त्व पर प्रकाश डाला है।

अनुवाद भारतीय धर्म के समान संस्कृत भाषा भी भारतीयों की सर्वश्रेष्ठ निधि है। यही भाषा शाखा-प्रशाखा के रूप में प्रान्तों की उन-उन भाषाओं में छिपी हुई है। आज कुछ धर्मान्ध राजनीतिक भावना से युक्त होकर भारत के टुकड़े करना चाहते हैं। इसमें उनका संस्कृत को न जानना कारण है। “माता और जन्मभूमि स्वर्ग से बढ़कर है’, “यह अपना अथवा यह पराया है, यह तुच्छ चित्तवृत्ति वालों का विचार है, “उदार चरित्र वाले मनुष्यों के लिए तो सारी पृथ्वी ही कुटुम्ब के समान है”, “पण्डित कुत्ते और चाण्डाल में समान दृष्टि रखने वाले होते हैं”, “सब प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए”, “मुझ (कृष्ण) में यह सारा संसार धागे में मणियों के समान पिरोया हुआ है, ये उपदेश यदि भारतीयों के समक्ष समीक्षा करके देखे जाएँ तो सारा भारत स्वयं अखण्डता के एक सूत्र में बँध जाए। “उत्तर दिशा में देवात्मस्वरूप हिमालय नाम को पर्वतराज है”, “क्या मानसरोवर पर हंस ही जाते हैं, पुरुष नहीं यह भाषा इस प्रकार ढिंढोरा पीटकर घोषणा करती है।

(11)
संस्कृतं विना एकताया अखण्डतायाः पाठः निरर्थक एव प्रतीयते। नेहरूमहाभागेनापि स्वकीयायाम् आत्मकथायां लिखितं यत् संस्कृतभाषा भारतस्य निधिस्तस्याः सुरक्षाया उत्तरदायित्वं स्वतन्त्रे भारते आपतितम्। अस्माकं पूर्वजानां विचाराः अनुसन्धानानि चास्यामेव भाषायां सन्ति। स्वसभ्यतायाः धर्मस्य राष्ट्रियेतिहासस्य, संस्कृतेश्च सम्यग्बोधाय संस्कृतस्य ज्ञानं परमावश्यकमस्ति। केनापि कविना मधुरमुक्तम्
भवति भारतसंस्कृतिरक्षणं प्रतिदिनं हि यया सुरभाषया। सकलवाग्जननी भुवि सा श्रुता बुधजनैः सततं हि समादृती ॥ तथा भूतायाः अस्याः भाषायाः पुनरभ्युदयाय भारतीयैः पुनरपि सततं यतनीयम्।

अस्माकं पूर्वजानां ………………………………………………… सततं यतनीयम्। [2010]
संस्कृतं विना ………………………………………………… परमावश्यकमस्ति
संस्कृतं विना ………………………………………………… भाषायां सन्ति।

शब्दार्थ निरर्थक = व्यर्थ, बेकार प्रतीयते = प्रतीत होती है। निधिः = खजाना। आपतितम् = आ पड़ा है। अनुसन्धानानि = खोजें। सम्यग्बोधाय = अच्छी तरह से ज्ञान के लिए। भारतसंस्कृतिरक्षणम् = भारत की संस्कृति की रक्षा। सुरभाषया = देवभाषा संस्कृत के द्वारा। सकलवाग्जननी = सभी भाषाओं की माता। सततं = सदा। समादृता = आदर के योग्य| यतनीयम् = प्रयत्न करना चाहिए।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में भाषा की सुरक्षा, उसका ज्ञान और उसका अभ्युदय करने के लिए भारतीयों को प्रेरित किया गया है।

अनुवाद संस्कृत के बिना एकता और अखण्डता का पाठ व्यर्थ ही प्रतीत होता है। नेहरू जी ने भी अपनी आत्मकथा में लिखा है कि संस्कृत भाषा भारत की निधि है, उसकी सुरक्षा का उत्तरदायित्व स्वतन्त्र भारत पर आ पड़ा है। हमारे पूर्वजों के विचार और खोजें इसी भाषा में हैं। अपनी सभ्यता, धर्म, राष्ट्रीय इतिहास और संस्कृति के अच्छी तरह से ज्ञान के लिए संस्कृत का ज्ञान परम आवश्यक है। किसी कवि ने अपनी मधुर वाणी में कहा हैजिस संस्कृत भाषा के द्वारा प्रतिदिन भारत की संस्कृति की रक्षा होती है, पृथ्वी पर वह सभी भाषाओं की जननी है, ऐसा विद्वानों ने सुना है। निश्चय ही, वह निरन्तर आदर के योग्य है। ऐसी इस भाषा के पुनरुत्थान के लिए भारतीयों को फिर से निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए।

लघु उत्तटीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संस्कृत भाषा में निबद्ध वेदांगों की संख्या तथा नाम लिखिए। [2009]
या
वेदांगों के नाम लिखिए। [2006, 08,09, 10, 11, 12, 13, 14]
उत्तर :
संस्कृत भाषा में निबद्ध वेदांगों की संख्या छः है। इनके नाम हैं—

  • शिक्षा,
  • कल्प,
  • व्याकरण,
  • निरुक्त,
  • छन्द तथा
  • ज्योतिषः

प्रश्न 2.
चार वेदों के नाम लिखिए। [2007, 15]
उत्तर :
चार वेदों के नाम हैं-

  • ऋग्वेद,
  • यजुर्वेद,
  • सामवेद और
  • अथर्ववेद।

प्रश्न 3.
संस्कृत भाषा का महत्त्व समझाइए। [2006,07]
उत्तर :
संस्कृत भाषा विश्व की सभी भाषाओं में सबसे प्राचीन, अत्यधिक ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, सरल, अत्यन्त मधुर और सभी के मन को हरने वाली है। यह बात पूर्वी (भारतीय) और पाश्चात्य विद्वानों द्वारा एक स्वर से स्वीकार की गयी है। ग्रीक, लैटिन आदि प्राचीन भाषाओं में संस्कृत भाषा ही सबसे प्राचीन और विशाल साहित्य से युक्त है।

प्रश्न 4.
दर्शन मुख्य रूप से कितने भागों में विभक्त हैं?
उत्तर :
दर्शन मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त हैं-
(क) आस्तिक दर्शन और
(ख) नास्तिक दर्शन। आस्तिक दर्शन के अन्तर्गत छ: दर्शन आते हैं-

  • न्याय,
  • वैशेषिक,
  • सांख्य,
  • योग,
  • मीमांसा तथा
  • वेदान्त।

नास्तिक दर्शन के अन्तर्गत तीन दर्शन आते हैं—

  • चार्वाक,
  • जैन और
  • बौद्ध।

प्रश्न 5.
संस्कृत भाषा की विपुल साहित्य-राशि का संक्षेप में परिचय दीजिए।
उत्तर :
संस्कृत साहित्य में विश्व के सबसे प्राचीन ऋक्, यजुः, साम और अथर्व नाम के चार वेद; शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष-ये वेदों के छ: अंग; न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त-ये छः आस्तिक दर्शन; चार्वाक, जैन, बौद्ध-ये तीन नास्तिक दर्शन; उपनिषद्, स्मृतियाँ, सूत्र, धर्मशास्त्र, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ संस्कृत साहित्य की विपुल राशि के परिचायक हैं।

प्रश्न 6.
संस्कृत साहित्य किन तीन प्रकारों में से विभाजित है? इसके कुछ प्रमुख कवियों-लेखकों के नाम बताइए। [2006,09]
या
सुप्रसिद्ध संस्कृत कवियों में से पाँच के नाम लिखिए। [2006, 09, 12]
या
सुप्रसिद्ध संस्कृत कवियों के नाम बताइए। [2014]
उत्तर :
संस्कृत साहित्य-गद्य, पद्य और चम्पू-तीन प्रकारों में विभाजित है। वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, दण्डी, सुबन्धु, बाण, कालिदास, अश्वघोष, भारवि, जयदेव, माघ, श्रीहर्ष आदि कवि और लेखक इसके गौरव को बढ़ाते हैं।

प्रश्न 7.
राजा ने लकड़हारे से किस शब्द का गलत प्रयोग किया था? सही शब्दक्या होना चाहिए था?
उत्तर :
राजा ने लकड़हारे से ‘बाधति’ क्रिया का प्रयोग किया था, जो कि परस्मैपदी होने के कारण अशुद्ध था। इसके स्थान पर क्रिया को आत्मनेपदी प्रयोग ‘बाधते’ होना चाहिए था।

प्रश्न 8.
रामायण के अनुसार हनुमान ने सीताजी से किस भाषा में बातचीत की थी? उद्धरणपूर्वक लिखिए।
उत्तर :
रामायण के अनुसार हनुमान ने सीताजी से सामान्य लोगों में प्रचलित संस्कृत भाषा में निम्नवत् विचार करते हुए बातचीत की थी–

वाचं चोदाहरिष्यामि, द्विजातिरिव संस्कृताम्।
रावणं मन्यमानां मां, सीता भीता भविष्यति ॥

प्रश्न 9.
भारतीय संस्कृति को प्रतिबिम्बित करने वाली भाषा कौन-सी है? [2010, 12]
उत्तर :
भारतीय संस्कृति को प्रतिबिम्बित करने वाली भाषा संस्कृत है, क्योंकि इस भाषा में रचित सम्पूर्ण साहित्य भारतीय समाज को प्रत्यक्ष प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है।

प्रश्न 10.
संस्कृत भाषा के सम्बन्ध में नेहरू जी ने अपनी आत्मकथा में क्या लिखा था?
उत्तर :
पं० जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्म-कथा में संस्कृत के महत्त्व के विषय में लिखा है कि, संस्कृत भाषा»भारत की अमूल्य निधि है। उसकी सुरक्षा का दायित्व स्वतन्त्र भारत पर है।”

प्रश्न 11.
हनुमान् ने सीता को मुद्रिका देते समय सीता से संस्कृत में वार्तालाप क्यों नहीं किया? [2010]
उत्तर :
सीता को मुद्रिका देते समय हनुमान ने उनसे ब्राह्मणों के द्वारा बोली जाने वाली संस्कृत में वार्तालाप इसलिए नहीं किया, क्योंकि उन्हें भय था कि सीता उनको रावण समझते हुए डर जाएँगी।

प्रश्न 12.
भारत की अखण्डता को बनाये रखने वाली दो सूक्तियाँ लिखिए। [2012]
उत्तर :
भारत की अखण्डता को बनाये रखने वाली दो सूक्तियाँ निम्नलिखित हैं

  • अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
  • मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।

प्रश्न 13.
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कथन का अभिप्राय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रस्तुत कथन का अर्थ है-माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान् हैं। वास्तव में स्वर्ग को किसी ने देखा नहीं है कि वह है भी या नहीं और वहाँ वास्तव में परम सुख मिलता भी है अथवा नहीं । लेकिन माता
और जन्मभूमि हमारे समक्ष प्रत्यक्ष उपस्थित हैं। माता हमें जन्म देती है और अनेकानेक दुःख-कष्ट सहनकर हमें हर सम्भव सुख प्रदान करती है। इसी प्रकार हमारी मातृभूमि हमारे भरण-पोषण के लिए अन्न-जल और विविध प्रकार के धन-धान्य उपलब्ध कराकर हमें स्वर्ग का-सा सुख प्रदान करती है। इसीलिए यह कहना उचित ही है कि “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।”

प्रश्न 14.
“शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः” का अभिप्राय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर  :
ण्डाल और कुत्ते दोनों का स्वभाव एक जैसा होता है, क्योंकि ये दोनों अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं। अपना पेट भरने के लिए ये अपने परिजनों, माता-पिता, पुत्र-पुत्री आदि किसी को भी मारने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसलिए विद्वान् लोग चाण्डाल और कुत्ते को एक समान दृष्टि से देखते हैं।

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