UP Board Solutions for Class 9 Hindi Chapter 3 गुरु नानकदेव (गद्य खंड)
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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. निम्नलिखित गद्यांशों में रेखांकित अंशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या और तथ्यपरक प्रश्नों के उत्तर दीजिये-
(1) आकाश में जिस प्रकार षोडश कला से पूर्ण चन्द्रमा अपनी कोमल स्निग्ध किरणों से प्रकाशित होता है, उसी प्रकार मानव चित्त में भी किसी उज्ज्वल प्रसन्न ज्योतिपुंज का आविर्भाव होना स्वाभाविक है। गुरु नानकदेव ऐसे ही षोडश कला से पूर्ण स्निग्ध ज्योति महामानव थे । लोकमानस में अर्से से कार्तिकी पूर्णिमा के साथ गुरु के आविर्भाव को सम्बन्ध जोड़ दिया गया है। गुरु किसी एक ही दिन को पार्थिव शरीर में आविर्भूत हुए होंगे, पर भक्तों के चित्त में वे प्रतिक्षण प्रकट हो सकते हैं। पार्थिव रूप को महत्त्व दिया जाता है, परन्तु प्रतिक्षण आविर्भूत होने को आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक महत्त्व मिलना चाहिए। इतिहास के पण्डित गुरु के पार्थिव शरीर के आविर्भाव के विषय में वादविवाद करते रहें, इस देश का सामूहिक मानव चित्त उतना महत्त्व नहीं देता।
प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
(2) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(3) लेखक की दृष्टि में गुरु के पार्थिव शरीर के आविर्भाव के स्थान पर किसको महत्त्व मिलना चाहिए?
(4) चन्द्रमा कितनी कलाओं से परिपूर्ण होता है?
(5) कार्तिक पूर्णिमा का सम्बन्ध किस महामानव से है?
[शब्दार्थ-लोकमानस = जनता का मन। अर्से से = बहुत समय से। आविर्भाव = उत्पत्ति, जन्म। पार्थिव = पृथ्वी सम्बन्धी, भौतिक स्थूल।]
उत्तर-
- सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी गद्य’ के ‘गुरु नानकदेव’ पाठ से उधृत किया गया है। इसके लेखक संस्कृत एवं हिन्दी के मूर्द्धन्य विद्वान् आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हैं। नियत गद्यांश में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने गुरु नानकदेव के जन्म-दिन का महत्त्व बताते हुए उनके प्रति भक्तों की असीम श्रद्धा को व्यक्त किया है। गुरु तो भक्तों के हृदय में प्रतिक्षण प्रकट होते रहते हैं-इस भावना का सहज आध्यात्मिक रूप प्रस्तुत किया है। ।
- रेखांकित अंशों की व्याख्या- प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने यह बताया है कि आकाश में जिस प्रकार सोलह कलाओं से युक्त चन्द्रमा प्रकाशित होता है ठीक उसी प्रकार मानव के मस्तिष्क में किसी ज्योतिपुंज का उत्पन्न होना अत्यन्त स्वाभाविक है। गुरुनानक देव ऐसे ही सोलह कलाओं से युक्त स्निग्ध ज्योति महामानव थे। हमारे देश की जनता बहुत समय से गुरु नानकदेव के जम को कार्तिक महीने की पूर्णिमा के दिन मनाती आ रही है। गुरु नानकदेव तो किसी एक ही दिन अपने भौतिक शरीर से प्रकट हुए होंगे, किन्तु श्रद्धालु भक्तगणों के हृदय में तो वे सदैव ही आध्यात्मिक रूप से प्रकट होते रहते हैं। यद्यपि भौतिक रूप से जन्म लेने को महत्त्व दिया जाता रहा है, फिर भी प्रतिक्षण आध्यात्मिक दृष्टि से जन्म लेने का अधिक महत्त्व समझा जाना चाहिए-ऐसी लेखक का मत है। यद्यपि इतिहास के विद्वानों के मत में उनकी जन्म-तिथि सम्बन्धी विवाद है, किन्तु इस देश की जनता का सामूहिक मन इस बात पर विशेष ध्यान नहीं देता। उसके मन में जो जन्म सम्बन्धी धारणा बन गयी है, उसके लिए वही सत्य है। उसे तो इसके माध्यम से अपने गुरु को पूजना है, सो वह कार्तिक पूर्णिमा को पूज लेता है।
- लेखक की दृष्टि में गुरु के पार्थिव शरीर के आविर्भाव के स्थान पर उनके आध्यात्मिकता को महत्त्व मिलना चाहिए।
- चन्द्रमा षोडश कलाओं से परिपूर्ण होता है।
- कार्तिक पूर्णिमा का सम्बन्ध महामानव गुरु नानकदेव से है।
(2) गुरु जिस किसी भी शुभ क्षण में चित्त में आविर्भूत हो जायँ, वही क्षण उत्सव का है, वही क्षण उल्लसित कर देने के लिएपर्याप्त है।
नवो नवो भवसि जायमानः- गुरु, तुम प्रतिक्षण चित्तभूमि में आविर्भूत होकर नित्य नवीन हो रहे हो। हजारों वर्षों से शरत्काल की यह सर्वाधिक प्रसन्न तिथि प्रभामण्डित पूर्णचन्द्र के साथ उतनी ही मीठी ज्योति के धनी महामानव का स्मरण कराती रही है। इस चन्द्रमा के साथ महामानवों का सम्बन्ध जोड़ने में इस देश का समष्टि चित्त, आह्लाद अनुभव करता है। हम ‘रामचन्द्र’, ‘कृष्णचन्द्र’ आदि कहकर इसी आह्लाद को प्रकट करते हैं। गुरु नानकदेव के साथ इस पूर्णचन्द्र का सम्बन्ध जोड़ना भारतीय जनता के मानस के अनुकूल है। आज वह अपना आह्लाद प्रकट करती है।
प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
(2) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(3) शरदकाल की यह तिथि किसकी याद कराती रही है?
(4) उत्सव का क्षण कौन-सा है?
(5) शरद पूर्णिमा किसका स्मरण कराती है? |
[शब्दार्थ-उत्सव =त्योहार, उल्लास। उल्लसित = हर्षित । नव = नया। जायमानः = जन्म लेनेवाला । चित्तभूमि = चित्त या मन में। नवीन = नया।]
उत्तर-
- सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी गद्य’ के ‘गुरु नानकदेव’ नामक पाठ से उद्धृत है। इसके लेखक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी हैं। प्रस्तुत गद्यांश में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने गुरु की महिमा की ओर संकेत करते हुए कहा है कि मन में जब कभी भी गुरु प्रकट हो जायँ वही क्षण हर्षित कर देनेवाला होता है।
- रेखांकित अंशों की व्याख्या- लेखक का मत है कि गुरु जिस किसी भी शुभ मुहूर्त में हृदय में उत्पन्न हो जायँ वही समय वही मुहूर्त आनन्द का है, प्रसन्नता का है। वह ऐसा समय है जो जीवन में हर्षोल्लास भर देनेवाला होता है। परमात्मा की ये महान् विभूतियाँ प्रतिक्षण भक्तों के हृदय में जन्म लेकर नित्य नया रूप धारण करती रहती हैं। सच है कि गुरु तो हर क्षण चित्तभूमि अर्थात् मन में उत्पन्न होकर नये-नये होते रहते हैं। भक्तों के लिए ऐसा हर क्षण उत्सव का है, उल्लास का है। हजारों वर्षों से शरदकाल की यह तिथि प्रभामंडित पूर्णचन्द्र के साथ उस महामानव का याद कराती रही है। इस चन्द्रमा के साथ महामानवों का तादात्म्य करने से इस देश का समष्टि चित्त प्रसन्नता का अनुभव करता है। हम लोग ‘रामचन्द्र कृष्णचन्द्र इत्यादि कहकर इसी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। गुरु नानकदेव के साथ इस पूर्णचन्द्र का सम्बन्ध जोड़ना भारतीय जन-मानस के अत्यन्त अनुकूल है। आज भारतीय जनता गुरु नानकदेव को स्मरण करके प्रसन्नता का अनुभव करती है।
- शरदकाल की यह तिथि प्रभामंडित पूर्णचन्द्र के साथ गुरुनानक जी की याद कराती रही है।
- गुरु जिस किसी भी शुभ क्षण में चित्त में आविर्भूत हो जायँ, वह क्षण उत्सव का है।
- शरद पूर्णिमा महामानव गुरु नानकदेव का स्मरण कराती है।
(3) विचार और आचार की दुनिया में इतनी बड़ी क्रान्ति ले आनेवाला यह सन्त इतने मधुर, इतने स्निग्ध, इतने मोहक वचनों को बोलनेवाला है। किसी का दिल दुखाये बिना, किसी पर आघात किये बिना, कुसंस्कारों को छिन्न करने की शक्ति रखनेवाला, नयी संजीवनी धारा से प्राणिमात्र को उल्लसित करनेवाला यह सन्त मध्यकाल की ज्योतिष्क मण्डली में अपनी निराली शोभा से शरत् पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र की तरह ज्योतिष्मान् है। आज उसकी याद आये बिना नहीं रह सकती। वह सब प्रकार से लोकोत्तर है। उसका उपचार प्रेम और मैत्री है। उसका शास्त्र सहानुभूति और हित-चिन्ता है।
प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए। |
(2) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(3) गुरुनानक जी का उपचार क्या है?
(4) क्रान्ति लाने वाले यहाँ किस सन्त का वर्णन है?
(5) शरद पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र की तरह कौन ज्योतिष्मान है?
उत्तर-
- सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी गद्य’ के ‘गुरु नानकदेव’ नामक पाठ से उद्धृत है। इसके लेखक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी हैं। इन पंक्तियों में गुरु नानकदेव के महान् व्यक्तित्व और उनकी महत्ता पर प्रकाश डाला गया है।
- रेखांकित अंशों की व्याख्या- गुरु नानकदेव एक महान् सन्त थे। उनके समय के समाज में अनेक प्रकार की बुराइयाँ विद्यमान थीं । समाज का आचरण दूषित हो चुका था। इन बुराइयों को दूर करने और सामाजिक आचरणों में सुधार लाने के लिए गुरु नानकदेव ने न तो किसी की निन्दा की और न ही तर्क-वितर्क द्वारा किसी की विचारधारा का खपडन किया। उन्होंने अपने आचरण और मधुर वाणी से ही दूसरों के विचारों और आचरण में परिवर्तन करने का प्रयास किया और इस दृष्टि से उन्होंने आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की। बिना किसी का दिल दुखाये और बिना किसी को किसी प्रकारे की चोट पहुँचाये, उन्होंने दूसरों के बुरे संस्कारों को नष्ट कर दिया। उनकी सन्त वाणी को सुनकर दूसरों का हृदय हर्षित हो जाता था और लोगों को नवजीवन प्राप्त होता था। लोग उनके उपदेशों को जीवनदायिनी औषध की भाँति ग्रहण करते थे। मध्यकालीन सन्तों के बीच गुरु नानकदेव इसी प्रकार प्रकाशमान दिखायी पड़ते हैं, जैसे आकाश में आलोक बिखेरने वाले नक्षत्रों के मध्य; शरद पूर्णिमा का चन्द्रमा शोभायमान होता है । विशेषकर शरद पूर्णिमा के अवसर पर ऐसे महान् सन्त का स्मरण हो आना स्वाभाविक है। वे सभी दृष्टियों से एक अलौकिक पुरुष थे। प्रेम और मैत्री के द्वारा ही वे दूसरों की बुराइयों को दूर करने में विश्वास रखते थे। दूसरों के प्रति सहानुभूति का भाव रखना और उनके कल्याण के प्रति चिन्तित रहना ही उनका आदर्श था। गुरु नानकदेव का सम्पूर्ण जीवन, उनके इन्हीं आदर्शों पर आधारित था।
- गुरुनानक जी का उपचार प्रेम और मैत्री है।
- क्रान्ति लाने वाले यहाँ सन्त गुरु नानकदेव का वर्णन है।
- शरद पूर्णिमा पूर्ण चन्द्र की तरह गुरु नानकदेव ज्योतिष्मान हैं?
(4) किसी लकीर को मिटाये बिना छोटी बना देने का उपाय है बड़ी लकीर खींच देना। क्षुद्र अहमिकाओं और अर्थहीन संकीर्णताओं की क्षुद्रता सिद्ध करने के लिए तर्क और शास्त्रार्थ का मार्ग कदाचित् ठीक नहीं है। सही उपाय है बड़े सत्य को प्रत्यक्ष कर देना। गुरु नानक ने यही किया। उन्होंने जनता को बड़े-से-बड़े सत्य के सम्मुखीन कर दिया, हजारों दीये उस महाज्योति के सामने स्वयं फीके पड़ गये।।
प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
(2) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(3) हजारो दीये किसके सामने स्वयं फीके पड़ गये?
(4) छोटी लकीर के सामने बड़ी लकीर खींच देने की क्या तात्पर्य है?
(5) अहमिकाओं और कार्यहीन संकीर्णताओं की क्षुद्रता सिद्ध करने का सही उपाय क्या है?
[शब्दार्थ-क्षुद्र = तुच्छ, छोटा। अहमिकाओं = अहंकार की भावनाएँ। संकीर्णता = हृदय का छोटापन। कदाचित् = कभः। सम्मुखीन = सामने।]
उत्तर-
- सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी गद्य’ में संकलित एवं आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘गुरु नानकदेव’ नामक निबन्ध से अवतरित है। इन पंक्तियों में लेखक ने व्यक्त किया है कि गुरु नानकदेव ने महान् सत्य का उद्घाटन करके संसार की भौतिक वस्तुओं को सहज ही तुच्छ सिद्ध कर दिया है।
- रेखांकित अंशों की व्याख्या- हम किसी रेखा को मिटाये बिना यदि उसे छोटा करना चाहते हैं तो उसका एक ही उपाय है कि उस रेखा के पास उससे बड़ी रेखा खींच दी जाय। ऐसा करने पर पहली रेखा स्वयं छोटी प्रतीत होने लगेगी। इसी प्रकार यदि हम अपने मन के अहंकार और तुच्छ भावनाओं को दूर करना चाहते हैं, तो उसके लिये भी हमें महानता की बड़ी लकीर खींचनी होगी। अहंकार, तुच्छ भावना, संकीर्णता आदि को शास्त्रज्ञान के आधार पर वाद-विवाद करके या तर्क देकर छोटा नहीं किया जा सकता; उसके लिये व्यापक और बड़े सत्य का दर्शन आवश्यक है। इसी उद्देश्य से मानव-जीवन की संकीर्णताओं और क्षुद्रताओं को छोटा सिद्ध करने के लिए गुरु नानकदेव ने जीवन की महानता को प्रस्तुत किया। गुरु की वाणी ने साधारण जनता को परम सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव कराया। परमसत्य के ज्ञान एवं प्रत्यक्ष अनुभव से अहंकार और संकीर्णता आदि इस प्रकार तुच्छ प्रतीत होने लगे, जैसे महाज्योति के सम्मुख छोटे दीपक आभाहीन हो जाते हैं। गुरु की वाणी ऐसी महाज्योति थी, जिसने जन साधारण के मन से अहंकार, क्षुद्रता, संकीर्णता आदि के अन्धकार को दूर कर उसे दिव्य ज्योति से प्रकाशित कर दिया।
- हजारों दीये गुरु नानकदेव की महाज्योति के सामने फीके पड़ गये।
- किसी लकीर को मिटाये बिना छोटी बना देने का उपाय है बड़ी लकीर खींच देना।
- अहमिकाओं और अर्थहीन संकीर्णताओं की क्षुद्रता सिद्ध करने के लिए सही उपाय है बड़े सत्य को प्रत्यक्ष कर देना।
(5) भगवान् जब अनुग्रह करते हैं तो अपनी दिव्य ज्योति ऐसे महान् सन्तों में उतार देते हैं। एक बार जब यह ज्योति मानव देह को आश्रय करके उतरती है तो चुपचाप नहीं बैठती। वह क्रियात्मक होती है, नीचे गिरे हुए अभाजन लोगों को वह प्रभावित करती है, ऊपर उठाती है। वह उतरती है और ऊपर उठाती है। इसे पुराने पारिभाषिक शब्दों में कहें तो कुछ इस प्रकार होगा कि एक ओर उसका ‘अवतार’ होता है, दूसरी ओर औरों का उद्धार होता है। अवतार और उद्धार की यह लीला भगवान् के प्रेम का सक्रिय रूप है, जिसे पुराने भक्तजन ‘अनुग्रह’ कहते हैं। आज से लगभग पाँच सौ वर्ष से पहले परम प्रेयान् हरि का यह ‘अनुग्रह’ सक्रिय हुआ था, वह आज भी क्रियाशील है। आज कदाचित् गुरु की वाणी र सबसे अधिक तीव्र आवश्यकता अनुभूत हो रही है।
प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
(2) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(3) भगवान के प्रेम में क्या सक्रिय रूप है?
(4) सन्तजन क्या कार्य करते हैं?
(5) अनुग्रह का क्या तात्पर्य है?
[शब्दार्थ-अनुग्रह = कृपा, उपकार। दिव्य ज्योति = आलोकित प्रकाश। आश्रय = आधार, सहारा। अभाजन = अयोग्य।]
उत्तर-
- सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी गद्य’ में संकलित एवं आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘गुरु नानकदेव’ नामक निबन्ध से अवतरित है। लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि गुरु नानक जैसे महान् सन्तों में ईश्वर अपनी ज्योति अवतरित करते हैं और ये महान् सन्त इस ज्योति के सहारे गिरे हुए लोगों को ऊपर उठाते हैं।
- रेखांकित अंशों की व्याख्या- द्विवेदी जी का मत है कि जब संसार पर ईश्वर की विशेष कृपा होती है तो उसकी अलौकिक ज्योति किसी सन्त के रूप में इस संसार में अवतरित होती है। तात्पर्य यह है कि ईश्वर अपनी दिव्य ज्योति को किसी महान् सन्त के रूप में प्रस्तुत करके उसे इस जगत् का उद्धार करने के लिए पृथ्वी पर भेजता है। वह महान् सन्त ईश्वर की ज्योति से आलोकित होकर संसार का मार्गदर्शन करता है। ईश्वर निरीह लोगों के कष्टों को दूर करना चाहता है, इसलिए उसकी यह दिव्य-ज्योति मानव-शरीर प्राप्त करके चैन से नहीं बैठती, वरन् अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए सक्रिय हो उठती है। मानव रूप में जब भी ईश्वर अवतार लेता है, तभी इस विश्व का उद्धार तथा कल्याण होता है। प्राचीन भक्ति-साहित्य में ईश्वर की दिव्य ज्योति का मानव रूप में जन्म ‘अवतार और उद्धार’ कहा गया है। इस दिव्य ज्योति का ‘अवतार’ अर्थात् उतरना होता है और सांसारिक प्राणियों का उद्धार’ अर्थात् ऊपर उठना होता है। आचार्य द्विवेदी अन्त में कहते हैं कि ईश्वर का अवतार लेना और प्राणियों का उद्धार करना ईश्वर के प्रेम का सक्रिय रूप है। भक्तजन इसे ईश्वर की विशेष कृपा मानकर ‘अनुग्रह’ की संज्ञा बताते हैं।
- भगवान् के प्रेम में अवतार और उद्धार की यह लीला सक्रिय रूप है।
- सन्तजन लोगों का उद्धार करते हैं।
- भगवान का अवतार लेकर गिरे जनों का उद्धार करने की लीला को अनुग्रह. करते हैं।
(6) महागुरु, नयी आशा, नयी उमंग, नये उल्लास की आशा में आज इस देश की जनता तुम्हारे चरणों में प्रणति निवेदन कर रही है। आशा की ज्योति विकीर्ण करो, मैत्री और प्रीति की स्निग्ध धारा से आप्लावित करो। हम उलझ गये हैं, भटक गये हैं, पर कृतज्ञता अब भी हम में रह गयी है। आज भी हम तुम्हारी अमृतोपम वाणी को भूल नहीं गये हैं। कृतज्ञ भारत को प्रणाम अंगीकार करो।
प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
(2) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(3) ‘कृतज्ञ भारत का प्रणाम अंगीकार करो’ का क्या मतलब है?
(4) कृतज्ञता से आप क्या समझते हैं?
(5) लेखक गुरु से किस प्रकार की ज्योति विकीर्ण करने का निवेदन कर रहा है?
[शब्दार्थ-विकीर्ण = प्रसारित । स्निग्ध = पवित्र। अमृतोपम = अमृत के समान । अंगीकार = स्वयं में समाहित, स्वीकार ।]
उत्तर-
- सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी गद्य’ में संकलित एवं आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘गुरु नानकदेव’ नामक निबन्ध से अवतरित है। यहाँ लेखक ने गुरु नानकदेव के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए उनके ति श्रद्धा का भाव व्यक्त किया है।
- रेखांकित अंशों की व्याख्या- लेखक गुरु से प्रार्थना करता है कि वे भटके हुए भारतवासियों के हृदय में प्रेम, मैत्री एवं सदाचार का विकास करके उनमें नयी आशा, नये उल्लास व नयी उमंग का संचार करें। इस देश की जनता उनके चरणों में अपना प्रणाम निवेदन करती है। लेखक का कथन है कि वर्तमान समाज में रहनेवाले भारतवासी कामना, लोभ, तृष्णा, ईष्र्या, ऊँचनीच, जातीयता एवं साम्प्रदायिकता जैसे दुर्गुणों से ग्रसित होकर भटक गये हैं, फिर भी इनमें कृतज्ञता का भाव विद्यमान है। इस कृतज्ञता के कारण ही आज भी ये भारतवासी आपकी अमृतवाणी को नहीं भूले हैं। हे गुरु! आप कृतज्ञ भारतवासियों के प्रणाम को स्वीकार करने की कृपा करें।
- कृतज्ञ भारत का प्रणाम अंगीकार करो का मतलब आप कृतज्ञ भारतवासियों के प्रणाम को स्वीकार करने की कृपा करे।
- किसी के उपकार को अंगीकार करके सम्मान देना और उसके प्रति न्यौछावर होना कृतज्ञता है।
- लेखक गुरु से आशा की ज्योति विकीर्ण करने का निवेदन कर रहा है।
प्रश्न 2. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का जीवन-परिचय बताते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए।
प्रश्न 3. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के जीवन एवं साहित्यिक परिचय का उल्लेख कीजिए।
प्रश्न 4. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की साहित्यिक विशेषताएँ बताते हुए उनकी भाषा-शैली पर अपने विचार प्रकट कीजिए। अथवा डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक परिचय देते हुए उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी
( स्मरणीय तथ्य )
जन्म-सन् 1907 ई०। मृत्यु-18 मई, 1979 ई० । जन्म-आरत दुबे का छपरा, जिला बलिया (उ० प्र०) में। शिक्षा-इण्टर, ज्योतिष तथा साहित्य में आचार्य।
रचनाएँ-‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’, ‘सूर साहित्य’, ‘कबीर’, ‘अशोक के फूल’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’, विचार और वितर्क’, ‘विश्व-परिचय’, ‘लाल कनेर’, ‘चारु चन्द्रलेख’।
वर्य-विषय- भारतीय संस्कृति का इतिहास, ज्योतिष साहित्य, विभिन्न धर्म तथा सम्प्रदाय। ।
शैली- सरल तथा विवेचनात्मक।
- जीवन-परिचय- डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी का जन्म बलिया जिले के ‘आरत दुबे का छपरा’ नामक ग्राम में एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण-परिवार में सन् 1907 ई० में हुआ था। इनकी शिक्षा का प्रारम्भ संस्कृत से ही हुआ था। सन् 1930 ई० में इन्होंने काशी विश्वविद्यालय से ज्योतिषाचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की और उसी वर्ष प्रधानाध्यापक होकर शान्ति निकेतन चले गये। सन् 1940 ई० से 1950 ई० तक वे वहाँ हिन्दी भवन के डायरेक्टर के पद पर काम करते रहे; तदुपरान्त वे काशी विश्वविद्यालय में हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए। लखनऊ विश्वविद्यालय ने इनकी हिन्दी की महत्त्वपूर्ण सेवाओं के लिए 1949 ई० में इन्हें डी० लिट्० की उपाधि प्रदान की। सन् 1957 ई० में इनकी विद्वत्ता पर इन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया गया। 1960 ई० में ये चण्डीगढ़ विश्वविद्यालय में विभागाध्यक्ष होकर चले गये और वहाँ से सन् 1968 ई० में पुन: काशी विश्वविद्यालय में ‘डायरेक्टर’ होकर आ गये। कुछ दिन तक उत्तर प्रदेश ग्रन्थ अकादमी के अध्यक्ष पद पर कार्य करने के उपरान्त 18 मई, 1979 ई० को इनका देहावसान हो गया।
- कृतियाँ
- आलोचना- ‘सूर-साहित्य’, ‘हिन्दी-साहित्य की भूमिका’, ‘हिन्दी-साहित्य का आदिकाल’, ‘कालिदास की लालित्ययोजना’, ‘सूरदास और उनका काव्य’, ‘कबीर’, ‘हमारी साहित्यिक समस्याएँ’, ‘साहित्य का मर्म’, ‘भारतीय वाङ्मय’, ‘साहित्यसहचर’, ‘नखदर्पण में हिन्दी-कविता’ आदि।
- निबन्ध-संग्रह- अशोक के फूल’, ‘कुटज’, ‘विचार-प्रवाह’, ‘विचार और वितर्क’, ‘कल्पलता’, ‘आलोक-पर्व’ आदि।
- उपन्यास- ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारु चन्द्रलेख’, ‘पुनर्नवा’ तथा ‘अनामदास का पोथा’।
- अनूदित साहित्य- ‘प्रबन्ध-चिन्तामणि’, ‘पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह’, ‘प्रबन्ध-कोष’, ‘विश्व-परिचय’, ‘लाल कनेर’, ‘मेरा वचन’ आदि। द्विवेदी जी मूल रूप से शुक्ल जी की परम्परा के आलोचक होते हुए भी आलोचना-साहित्य में अपनी एक मौलिक दिशा प्रदान करते हैं।
- साहित्यिक परिचय- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी में मौलिक रूप से साहित्य का सृजन करने की योग्यता बाल्यकाल से ही विद्यमान थी। इन्होंने अपने बाल्यकाल में ही व्योमकेश शास्त्री से कविता लिखने की कला सीखनी प्रारम्भ कर दी थी। धीरे-धीरे साहित्य-जगत् इनकी विलक्षण सृजन-प्रतिभा से परिचित होने लगा। शान्ति-निकेतन पहुँचकर इनकी साहित्यिक प्रतिभा और भी अधिक निखरने लगी । बंगला साहित्य से भी वे बहुत अधिक प्रभावित थे। इनकी बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभा विभिन्न क्षेत्रों में प्रकट हुई । ये उच्चकोटि के शोधकर्ता, निबन्धकार, उपन्यासकार और आलोचक थे । इन्होंने अनेक विषयों पर उत्कृष्ट कोटि के निबन्धों तथा नवीन शैली पर आधारित उपन्यासों की रचना की। विशेष रूप से वैयक्तिक एवं भावात्मक निबन्धों की रचना करने में द्विवेदी जी अद्वितीय थे। ये ‘उत्तर प्रदेश ग्रन्थ अकादमी’ के अध्यक्ष और हिन्दी संस्थान’ के उपाध्यक्ष भी रहे। इनकी सुप्रसिद्ध कृति ‘कबीर’ पर इन्हें ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक’ तथा ‘सूर-साहित्य’ पर ‘इन्दौर साहित्य समिति’ से ‘स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ था।
- भाषा और शैली- द्विवेदी जी की भाषा संस्कृतनिष्ठ शुद्ध खड़ीबोली है। इनकी भाषा के दो रूप हैं। निबन्ध में जहाँ संस्कृत के सरल तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है वहीं उर्दू, फारसी, बंगला और देशज शब्दों के भी प्रयोग मिलते हैं। द्विवेदी जी की शैली में अनेकरूपता है। उसमें बुद्धि-तत्त्व के साथ-साथ हृदय–तत्त्व का भी समावेश है। उनकी शैली को गवेषणात्मक शैली (नाथसम्प्रदाय जैसे सांस्कृतिक निबन्धों में), आलोचनात्मक शैली, व्यावहारिक आलोचनाओं में, भावात्मक शैली (ललित और आत्मव्यंजक निबन्धों में), व्याख्यात्मक शैली (दार्शनिक विषयों के स्पष्टीकरण में), व्यंग्यात्मक शैली (हास्य-व्यंग्य सम्बन्धी निबन्धों में तथा ललित निबन्धों में), कथात्मक शैली (उपन्यासों और संस्मरणात्मक निबन्धों में) आदि छह कोटियों में विभक्त किया जा सकता है।
उदाहरण
- गवेषणत्मिक शैली- कार्तिक पूर्णिमा इस देश की बहुत पवित्र तिथि है। इस दिन सारे भारतवर्ष में कोई-न-कोई उत्सव, मेला, स्नान या अनुष्ठान होता है।” – गुरु नानकदेव
- आलोचनात्मक शैली- “अद्भुत है गुरु की बानी की सहज बोधक शक्ति। कहीं कोई आडम्बर नहीं, कोई बनाव नहीं, सहज हृदय से निकली हुई सहज प्रभावित करने की अपार शक्ति है।” – गुरु नानकदेव
- भावात्मक शैली- “दुरन्त जीवन शक्ति है। कठिन उपदेश है। जीना भी एक कला है लेकिन कला ही नहीं तपस्या है। जियो तो प्राण ढाल दो जिन्दगी में, जीवन रस के उपकरणों में ठीक है।” – कुटज
- व्याख्यात्मक शैली- “किसी लकीर को मिटाये बिना छोटी बना देने का उपाय है बड़ी लकीर खींच देना।” – गुरु नानकदेव
- व्यंग्यात्मक शैली- “इस गिरिकूट बिहारी का नाम क्या है? मन दूर-दूर तक उड़ रहा है-देश में और काल में-‘मनोरथमनार्नगतिनं विद्यते’ अचानक याद आया-अरे यह तो ‘कुटज’ है।” – कुटज
- कथात्मक शैली- ‘यह जो मेरे सामने कुटज का लहराता पौधा खड़ा है वह नाम व रूप दोनों में अपनी अपराजेय जीवनी शक्ति की घोषणा कर रहा है।” – कुटज
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. अपने समकालीन सन्तों से गुरु नानकदेव किस प्रकार भिन्न एवं विशिष्ट हैं?
उत्तर- अपने समकालीन सन्तों से गुरु नानकदेव भिन्न थे। उन्होंने प्रेम का संदेश दिया है। उनके लिए संन्यास तथा गृहस्थ दोनों समान हैं।
प्रश्न 2. अनुग्रह का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- भगवान् जब अनुग्रह करते हैं तो अपनी दिव्य ज्योति ऐसे महान् सन्तों में उतार देते हैं। एक बार जब यह ज्योति मानव देह को आश्रय करके उतरती है तो चुपचाप नहीं बैठती है। वह क्रियात्मक होती है, नीचे गिरे हुए अभाजन जनों को वह प्रभावित करती है, ऊपर उठाती है।
प्रश्न 3. ‘गुरु नानकदेव’ पाठ की भाषा-शैली पर तीन वाक्य लिखिए। |
उत्तर- गुरु नानकदेव पाठ की भाषा अत्यन्त सरल एवं प्रवाहमान है। इसमें उर्दू, फारसी, अंग्रेजी एवं देशज शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। यत्र-तत्र मुहावरेदार भाषा का भी प्रयोग हुआ है। भाषा शुद्ध, संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली है। शैली अत्यन्त सरल एवं आकर्षक है।
प्रश्न 4. गुरु नानक की ‘सहज-साधना’ से सम्बन्धित लेखक के विचार संक्षेप में लिखिए।
उत्तर- गुरु नानक जी ‘सहज-साधना’ के पक्षधर थे। वे आडम्बर में विश्वास नहीं करते थे। सहज जीवन बड़ी कठिन साधना है। सहज भाषा बड़ी बलवती आस्था है।
प्रश्न 5. गुरु नानकदेव’ के आविर्भाव काल को दर्शाते हुए उनमें आनेवाली समस्याओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- गुरु नानकदेव का आविर्भाव आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व हुआ। आज से पाँच सौ वर्ष पूर्व देश अनेक कुसँस्कारों से जकड़ा हुआ था। जातियों, सम्प्रदायों, धर्मों और संकीर्ण कुलाभिमानों से वह खण्ड-विच्छिन्न हो गया था। इस विषम परिस्थितियों में महान् गुरु नानकदेव ने सुधा लेप का काम किया।
प्रश्न 6. किन तथ्यों के आधार पर लेखक ने कार्तिक पूर्णिमा को पवित्र तिथि बताया है?
उत्तर- कार्तिक पूर्णिमा भारत की बहुत पवित्र तिथि है। इस दिन सारे भारतवर्ष में कोई-न-कोई उत्सव, मेला, स्नान या अनुष्ठान होता है। शरद्काल का पूर्ण चन्द्रमा इस दिन अपने पूरे वैभव पर होता है । आकाश निर्मल, दिशाएँ प्रसन्न, वायुमण्डल शांत, पृथ्वी हरी-भरी, जल प्रवाह मृदु-मन्थर हो जाता है।
प्रश्न 7. गुरु नानकदेव द्वारा दिये गये जनता के सन्देश को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर- गुरु नानक ने प्रेम का सन्देश दिया है। उनका कथन था कि ईश्वर नाम के सम्मुख जाति और कुल के बन्धन निरर्थक हैं क्योंकि मनुष्य जीवन का जो चरम प्राप्तव्य है वह स्वयं प्रेमरूप है। प्रेम ही उसका स्वभाव है, प्रेम ही उसका साधन है। गुरु नानक जी बाह्य आडम्बर में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने अभिमान से दूर रहने का संदेश दिया।
प्रश्न 8. कार्तिक पूर्णिमा क्यों प्रसिद्ध है? तर्कसंगत उत्तर दीजिए।
उत्तर- कार्तिक पूर्णिमा के दिन महान् गुरु नानकदेव का जन्म-दिवस मनाया जाता है, इसलिए कार्तिक पूर्णिमा प्रसिद्ध है।
प्रश्न 9. गुरु नानकदेव पाठ से दस सुन्दर वाक्य लिखिए। |
उत्तर- कार्तिक पूर्णिमा इस देश की बहुत पवित्र तिथि है। इस दिन सारे भारतवर्ष में कोई-न-कोई उत्सव, मेला, स्नान या अनुष्ठान होता है । शरदकाल का पूर्ण चन्द्रमा इस दिन अपने पूरे वैभव पर होता है। गुरु नानकदेव षोडश कला से पूर्ण स्निग्ध ज्योति महामानव थे! भारतवर्ष की मिट्टी में युग के अनुरूप महापुरुषों को जन्म देने का अद्भुत गुण है। गुरु नानक ने प्रेम का संदेश दिया है। ईश्वर नाम के सम्मुख जाति और कुल का बन्धन निरर्थक है। प्रेम मानव का स्वभाव है। किसी लकीर को मिटाये बिना छोटी बना देने का उपाय है बड़ी लकीर खींच देना। सहज जीवन बड़ी कठिन साधना है। सहज भाषा बड़ी बलवती आस्था है।
प्रश्न 10. गुरु नानकदेव के गुणों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- गुरु नानक ने प्रेम का संदेश दिया। नानक जी जाति-पाँति में विश्वास नहीं करते थे। वे बाह्य आडम्बर से दूर थे। उनकी दृष्टि में संन्यास लेना आवश्यक नहीं है। वे अभिमान से दूर रहना चाहते थे। उन्होंने अहंकार से दूर रहने को संदेश दिया।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के दो उपन्यासों के नाम लिखिए।
उत्तर- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के दो उपन्यास-पुनर्नवा और चारुचन्द्र लेख हैं।
प्रश्न 2. निम्नलिखित में से सही वाक्य के सम्मुख सही (√) का चिह्न लगाइए –
(अ) कार्तिक पूर्णिमा के साथ गुरु के आविर्भाव का सम्बन्ध जोड़ दिया गया है। (√)
(ब) गुरु नानक ने प्रेम का संदेश दिया है। (√)
(स) आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्विवेदी युग के लेखक हैं। (×)
(द) सीधी लकीर खींचना आसान काम है। (×)
प्रश्न 3. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी किस युग के लेखक हैं?
उत्तर- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी शुक्लोत्तर युग के लेखक थे।
प्रश्न 4. ‘कबीर’ नामक रचना पर हजारीप्रसाद द्विवेदी को कौन-सा पारितोषिक प्राप्त हुआ?
उत्तर- ‘कबीर’ पर हजारीप्रसाद द्विवेदी को मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ।
प्रश्न 5. गुरु नानकदेव का आविर्भाव कब हुआ था?
उत्तर- गुरु नानकदेव का आविर्भाव आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व हुआ था।
व्याकरण-बोध
प्रश्न 1. निम्नलिखित में सन्धि-विच्छेद करते हुए सन्धि का नाम लिखिए –
उत्तर- कुलाभिमान, सर्वाधिक, अनायास, लोकोत्तर, अमृतोपम।
कुलाभिमान – कुल + अभिमान – दीर्घ सन्धि
सर्वाधिक – सर्व + अधिक – दीर्घ सन्धि
अनायास – अन + आयास – दीर्ध सन्धि
लोकोत्तर – लोक + उत्तर – गुण सन्धि
अमृतोपम – अमृत + उपम – गुण सन्धि
प्रश्न 2. निम्नलिखित समस्त पदों का समास-विग्रह कीजिए तथा समास का नाम लिखिए –
अर्थहीन, महापुरुष, स्वर्णकमल, चित्रभूमि, प्राणधारा।
उत्तर-
अर्थहीन – अर्थ से हीन – करण तत्पुरुष
महापुरुष – महान् है पुरुष जो – कर्मधारय
स्वर्णकमल – स्वर्णरूपी कमल – कर्मधारय
चित्रभूमि – चित्रों से युक्त भूमि – करण तत्पुरुष
प्राणधारा – प्राणरूपी धारा – कर्मधारय
प्रश्न 3. निम्नलिखित शब्दों का प्रत्यय अलग कीजिए –
अवतार, संजीवनी, स्वाभाविक, महत्त्व, प्रहार, उल्लसित
उत्तर –
शब्द – प्रत्यय
अवतार – र
संजीवनी – अनी
स्वाभाविक – इक
महत्त्व – त्व
प्रहार – र
उल्लसित – इत
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